धातु की चमक पर फिसलता अतीत का उन्मादी सुख
Feb 4, 2014 | PRATIRODH BUREAUसुबोध गुप्ता की कलाकृति ‘एवीरीथिंग इज़ इनसाइड’ पर कुछ टिप्पणियां
स्टील और पीतल इन दो धातुओं से सुबोध गुप्ता ने अतीत, जीवन और सुख को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें आकार में ढाला है. इनके साथ गोबर के कंडे-उपले भी हैं जिनसे एक घर बना हुआ है, मां की याद दिलाता हुआ. इनमें सबसे चर्चित है स्टील का बना हुआ बरगद का एक पेड़ ‘दादा’ और दूसरा उपलों जिसे पूर्वांचल के इलाकों में चिपरी कहते हैं, से बना हुआ घर ‘मार्इ मदर एण्ड मी. इन कलाकृतियों में एक और आकर्षण है ‘रेज’, एक विशाल स्टील की बाल्टी ऊंचे आसमान से अथाह बर्तन-भांडे पलट रही है. इसी सीरीज में ‘आल इन द सेम बोट’ को देखा जा सकता है जिसमें मानो ब्रम्हांड और धरती के सारे बर्तन को एक नाव मां की तरह या कह सकते हैं घर की तरह अपने में समेटे हुए है. इसके अलावा ‘देअर इज आलवेज सिनेमा’ और ‘ए ग्लास आफ वाटर’ सीरीज की कलाकृतियां हैं. सब कुछ स्टील और पीतल का बना हुआ. गुंथा हुआ आटा, सीकर से लटकी हुर्इ बटलोर्इयां, रिक्शा और रिक्शे पर लदा हुआ बर्तनों का रेला, अनजाने स्रोत से बहती हुर्इ आ रही बर्तनों की धाराएं, समय को रेखांकित करते कमोड और सिनेमा की रीलें, और भी बहुत कुछ. कुछ टिफिन हैं जो संगमरमर के बने हुए हैं, अपवाद हैं. बुलेट और प्रिया स्कूटर और उन पर लदे हुए दूध ढोने वाले बर्तन स्टील और पीतल की दुहराव के साथ निर्मित हुए हैं, एक तयशुदा समय को दो हिस्सों में विभाजित करता हुआ. इन सभी के साथ है कैनवास पर गोबर पोत कर बनाया गया सुबोध गुप्ता को सेल्फ पोर्टेट ‘बिहारी’ जो इलेक्ट्रानिक लेड से लगातार लिखता रहता है : ‘बि हा री बिहारी’. सुबोध गुप्ता के शब्दों में ‘यह एक पहचान है. दुनिया के स्तर पर भारत की जैसी पहचान है वैसी ही भारत के भीतर बिहार की पहचान है’.
सुबोध गुप्ता बताते हैं कि उनकी कलाकृतियां मार्इग्रेशन यानी प्रवास, उजाड़ और समय, अतीत और यादें, घर और जीवन, संबधों की भंगिमाएं प्रदर्शित करती हैं. उनकी कलाकृतियों में प्यास है, विभाजित होता समय और पीछा करता हुआ अतीत है, अतीत का संग्रहण है, कुछ सुख है जिसे बांध लेने की आकांक्षा है और इन सबको बांधकर उलट पुलट करती एक विशाल बाल्टी है और इन्हें आसमान टांग कर खड़ा चिकना, चमकदार, निस्पृह, अकेला स्टील का वटवृक्ष है.
सुबोध गुप्ता बिहार में पटना के पास एक छोटे से कस्बे खगोलिया जहां आर्यभट्ट हुए थे, से आते हैं. एक गरीब परिवार में पले बढ़े इस कलाकार की शिक्षा दीक्षा पटना आर्ट्स कालेज से हुर्इ. सुबोध गुप्ता पर आर्यभट्ट और बिहार के मेधावी गणितज्ञों की जितनी छाया दिखती है उतनी ही उनके आस पास के जीवन की छाया भी दिखती है. 2004 तक की पेंटिंग में उतरे हुए बर्तन और आमजीवन 2000 के बाद धातुओं में ठोस में रूप में ढलने लगते हैं. रंग, लय, रोशनी, छाया, स्पर्श सबकुछ धातुओं की घिसार्इ, मोड़ार्इ, सज्जा, कोण और स्पेसिंग में बदल जाता है. कला एक उन्मादी सुख में बदल जाता है. सैकड़ों सजी थालियों के सामने अघार्इ बैठी गाय और पीतल का बंद दरवाजा एक ही अर्थ देते हैं अघार्इ हुर्इ निस्पृहता.
इन कलाकृतियों में कुछ ऐसे हैं जो संदेह पैदा करते हैं और ऐसी कलाकृतियां अपने आप में संदिग्ध हो उठती हैं. यदि सुबोध गुप्ता इन्हें खास स्थान, समय और प्रस्तुति से नहीं जोड़ते तो यह समस्या नहीं बनती. मसलन दूध ढोने के लिए प्रिया स्कूटर और बुलेट का प्रयोग बिहार के संदर्भ में खटकता है. दलित और मध्यम जातियों के उभार के समय तक पटना या ऐसे शहरों में इनका प्रयोग न के बराबर था और बाद में भी बिहार में इन गाडि़यों का प्रयोग देखा नहीं गया. इनका प्रयोग दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में लंबे समय से जरूर होता रहा है. सुबोध गुप्ता जिस समय को विभाजित करते हैं उसके स्थान की तलाश संदेह और संदिग्धता लिए हुए आती है. इसी तरह फिल्म के प्रोजेक्टर, रीलें, खाली चकरौने न तो म्युजियम जैसे दिखते हैं और न ही किसी ध्वस्त सिनेमा हाल के अंदर खाने का दृष्य और न ही कबाड़ में बिकने के लिए इंतजार करता यह ठोस समय. आप इस कलाकृति के सामने खड़े होकर खुद संदिग्ध स्थिति में होते हैं कि हम हैं कहां और यह कलाकृति सामने आकर क्यों खड़ी हो गयी है.
नेशनल आर्ट गैलरी में इन कलाकृतियों को लाने के लिए क्रेन की जरूरत पड़ी. इन्हें बनाने के लिए टनों स्टील और पीतल का प्रयोग किया गया. भारी मशीनों, घिसार्इ और जोड़ार्इ का लंबा काम हुआ. सैकड़ों मजदूरों और कलाकारों की मेहनत से धीरे धीरे ये आकृतियां एक अर्थ ग्रहण कीं. जाहिर सी बात है कि कलाकृति में इनका जिक्र नहीं होता है. इन कलाकृतियों का पूरा प्रोडक्शन एक फिल्म बनने की याद दिलाता है जिसमें कला श्रम, पूंजी के साथ मिलकर एक चलचित्र में ढल जाता है. फिल्म में उपस्थिति और अनुपस्थिति का अजब मिश्रण होता है जिससे उससे फिल्म की विशिष्टता निर्मित होती है. सुबोध गुप्ता की कलाकृतियों में उपस्थिति सिर्फ नायक कलाकार और उस कलाकृति की है. अन्य सारे कलाकार, श्रम दृष्य से गायब हैं. और, पूंजी कला के साथ मिलकर बाजार में आसमान छूते मुनाफे के लिए कारपोरेट घरानों में चक्कर मार रही है, बोलियों का इंतजार कर रही है, किसी महान आत्मतुष्ट घराने का स्पर्श हासिल कर महान बन जाने के लिए लालायित है.
सुबोध गुप्ता ने समय, जीवन, सुख और प्रवास की जिस अवधारणा पर कलाकृतियों को बनाते हैं और अथाह मात्रा में स्टील जैसी धातुओं का प्रयोग करते हैं ठीक उसी अवधारणा का एक विलोम पक्ष भी है. इन्हीं लोहा, स्टील, पीतल, बाक्सार्इट आदि धातुओं के लिए समय, जीवन, सुख और प्रवास का एक घिनौना व्यापार भी चल रहा है. जिंदल, मित्तल, टाटा आदि पूरे मध्य भारत को हथियार के बल पर, भारत की सेना, पुलिस, गुप्तचर, कानून और इस देश का संसद का प्रयोग कर काबिज करने का अभियान चलाए हुए है. पेड़ों की कटार्इ, पशुओं की हत्या से लेकर आम आदिवासी समुदाय और उनके देवस्वरूप पेड़ और पहाड़, गर्भ में जीवन समेटे हुए धरती का शिकार सलवा जुडुम से लेकर आपरेशन ग्रीन हंट जैसे अभियानों के माध्यम से चलाया जा रहा है. युद्ध की विभिषिका और मौत के कारोबार के पीछे यही धातु और इन्हें गलाने के लिए उपयोग में लाया जा रहा कोयला है. इस देश की सारी रोशनी, सारा कारोबार, सारा जीवन, अतीत और वर्तमान और इसकी जगमग; इन धातुओं, इससे पैदा होने वाला मुनाफा, इससे बनने वाली पूंजी और उस पर काबिज होते साम्राज्यवादी निगम और उनके दलालों का कारोबार और उनका अघाया हुआ जीवन देश के आम लोग और आदिवासी जीवन की शर्त पर फलफूल रहा है.
कोर्इ भी कलाकृति अपने साथ बिम्ब, प्रतीक, समय, समाज और एक उद्देश्य के साथ आती है. सुबोध गुप्ता की कलाकृतियां इससे अलग नहीं हैं. दिल्ली के उजाड़ में करोड़ों रूपये का चिकना, चमकदार, रोशनी में झलमल और विशाल निस्पृह वटवृक्ष देश के किन पेड़ों का, किन बड़े बूढ़ों का, अतीत और वर्तमान को जोड़ते हुए किस इतिहास निर्माता का प्रतिनिधित्व करता है! आपरेशन ग्रीन हंट के बाद बचे हुए जीवन और उसके इतिहास, बचे रह गये आसमान में लटके हुए बर्तन-भांडे और उजाड़ के बाद बचा रह गयी सफेदी का यह बिम्ब है या टाटा, जिंदल, मित्तल के स्टील प्लांट की जीत का यह लहराता हुआ झंडा है! ये विशाल आकृतियां अपना स्पेस हासिल करने के लिए जमीन और आसमान पर काबिज हो जाने के लिए आतुर दिखती हैं, एक स्रोत से शुरू होकर फैलाव की ओर बढ़ती हुर्इ. ये किन्हें संबोधित करेगीं और कहां काबिज होंगी! करोड़ों अरबों रूपए के कला बाजार में इन धातुओं का व्यापार और मुनाफ़ा बटोरने वाले कारपोरेट घरानों (जिसमें सरकारें भी शामिल हैं) को निश्चय ही ये कलाकृतियां लुभा रही हैं और बोलियां लग रही हैं. हमें तो इनमें खून के छींटें दिखार्इ दे रहे हैं.
सुबोध गुप्ता की एक कलाकृति है जिसमें एक रिक्शे पर बर्तनों का विशाल भंडार लदा हुआ है. पटनहिया रिक्शा भार से चरमराता हुआ दिख रहा है और चरमराहट में स्थिर खड़ा है, सिर झुकाए. सचमुच एक समय दो हिस्सों में विभाजित है. इस विभाजन में बिम्ब, प्रतीक, जीवन, सुख भी विभाजित हैं. इन धातुओं का प्रयोग, कारोबार और इससे प्रभावित होने वाला जीवन भी प्रभावित है. सुबोध गुप्ता के प्रवास का सुख एक उन्माद में बदल गया है, कारपोरेट घरानों के सानिध्य में सफेदी और पीलापन लिए हुए आत्मजर्जर सुख.