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जनकवि नागार्जुन की स्मृति में…

Dec 11, 2011 | सुधीर सुमन

 पिछले साल 25-26 जून को समस्तीपुर और बाबा नागार्जुन के गांव तरौनी से जसम ने उनके जन्मशताब्दी समारोहों की शुरुआत की थी और यह निर्णय किया था कि इस सिलसिले का समापन भोजपुर में किया जाएगा. उसी फैसले के अनुरूप नागरी प्रचारिणी सभागार, आरा में विगत 25 जून 2011 को नागार्जुन जन्मशताब्दी समापन समारोह का आयोजन किया गया.

  
जनता, जनांदोलन, राजनीति, इंकलाब और कविता के साथ गहन रिश्ते की जो नागार्जुन की परंपरा है, उसी के अनुरूप यह समारोह आयोजित हुआ. लगभग एक सप्ताह तक जनकवि नागार्जुन की कविताएं और उनका राजनीतिक-सामाजिक स्वप्न लोगों के बीच चर्चा का विषय बने रहे. अखबारों की भी भूमिका काफी साकारात्मक रही.
 
समारोह की तैयारी के दौरान आरा शहर और गड़हनी व पवना नामक ग्रामीण बाजारों में चार नुक्कड़ कविता पाठ आयोजित किए गए, जिनमें नागार्जुन के महत्व और उनकी प्रासंगिकता के बारे में बताया गया तथा उनकी कविताएं आम लोगों को सुनाई गईं. 
 
अपने जीवन के संकटों और शासकवर्गीय राजनीति व संस्कृति के जरिए बने विभ्रमों से घिरे आम मेहनतकश जन इस तरह अपने संघर्षों और अपने जीवन की बेहतरी के पक्ष में आजीवन सक्रिय रहने वाले कवि की कविताओं से मिले. 
 
यह महसूस हुआ कि जो जनता के हित में रचा गया साहित्य है उसे जनता तक ले जाने का काम सांस्कृतिक संगठनों को प्रमुखता से करना चाहिए। यह एक तरह से जनता को उसी की मूल्यवान थाती उसे सौंपने की तरह था.
 
नागार्जुन का भोजपुर
 
नागार्जुन का भोजपुर से पुराना जुड़ाव था. साठ के दशक में वे पूर्वांचल नाम की संस्था के अध्यक्ष बनाए गए थे. 
 
जनांदोलनों में शामिल होने के कारण उन्हें बक्सर जेल में भी रखा गया था. नागार्जुन ने तेलंगाना से लेकर जे.पी. के संपूर्ण क्रांति आंदोलन तक पर लिखा, लेकिन भोजपुर के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन में तो जैसे उन्हें अपना जीवन-स्वप्न साकार होता दिखता था. ‘हरिजन गाथा’ और ‘भोजपुर’ जैसी कविताएं इसकी बानगी हैं.
 
बारिश दस्तक दे चुकी थी, उससे समारोह की तैयारी थोड़ी प्रभावित भी हुई. लेकिन इसके बावजूद 25 जून को नागरी प्रचारिणी सभागार में लोगों की अच्छी-खासी मौजूदगी के बीच समारोह की शुरुआत हुई. 
 
सभागार के बाहर और अंदर की दीवारों पर लगाए गए नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध जैसे कवियों की कविताओं पर आधारित राधिका और अर्जुन द्वारा निर्मित आदमकद कविता-पोस्टर और बाबा नागार्जुन की कविताओं व चित्रों वाले बैनर समारोह स्थल को भव्य बना रहे थे. कैंपस और सभागार में बाबा की दो बड़ी तस्वीरें लगी हुई थीं. बाबा के चित्रों वाली सैकड़ों झंडियां हवा में लहरा रही थीं.
 
समारोह का उद्घाटन करते हुए नक्सलबाड़ी विद्रोह की धारा के मशहूर कवि आलोकधन्वा ने खुद को भोजपुर में चल रहे सामाजिक न्याय की लड़ाई से जोड़ते हुए कहा कि मनुष्य के लिए जितनी उसकी आत्मा अनिवार्य है, राजनीति भी उसके लिए उतनी ही अनिवार्य है. बेशक हमारा आज का दौर बहुत मुश्किलों से भरा है, लेकिन इसी दौर में नागार्जुन के प्रति पूरे देश में जैसी उत्कंठा और सम्मान देखने को मिला है, वह उम्मीद जगाता है. संभव है हम चुनाव में हार गए हैं, लेकिन जो जीते हैं, अभी भी विरोध के मत का प्रतिशत उनसे अधिक है. वैसे भी दुनिया में तानाशाह बहुमत के रास्ते ही आते रहे हैं. लेकिन जो शहीदों के रास्ते पर चलते हैं, वे किसी तानाशाही से नहीं डरते और न ही तात्कालिक पराजयों से विचलित होते हैं. भोजपुर में जो कामरेड शहीद हुए उन्होंने कोई मुआवजा नहीं मांगा. उन्होंने तो एक रास्ता चुना, कि जो समाज लूट पर कायम है उसे बदलना है, और उसमें अपना जीवन लगा दिया.
 
आलोकधन्वा ने कहा कि नागार्जुन इसलिए बडे़ कवि हैं कि वे वर्ग-संघर्ष को जानते हैं. वे सबसे प्रत्यक्ष राजनीतिक कवि हैं. आज उन पर जो चर्चाएं हो रही हैं, उनमें उन्हें मार्क्सवाद से प्रायः काटकर देखा जा रहा है जबकि सच यह है कि नागार्जुन नहीं होते तो हमलोग नहीं होते. और खुद हमारी परंपरा में कबीर और निराला नहीं होते तो नागार्जुन भी नहीं होते. 
 
नागार्जुन की कविता बुर्जुआ से सबसे ज्यादा जिरह करती है. उनकी कविताएं आधुनिक भारतीय समाज के सारे अंतर्विरोधों की शिनाख्त करती हैं. नागार्जुन की काव्य धारा हिंदी कविता की मुख्य-धारा है. उनकी जो काव्य-चेतना है, वही जनचेतना है.
 
नागार्जुन की भूमिका
 
विचार-विमर्श के सत्र में ‘प्रगतिशील आंदोलन और नागार्जुन की भूमिका’ विषय पर बोलते हुए जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिन्हें लगता है कि प्रगतिशीलता कहीं बाहर से आई उन्हें राहुल सांकृत्यायन, डी.डी. कोशांबी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नागार्जुन की परंपरा को समझना होगा. सारी परंपराओं को आत्मसात करके और उसका निचोड़ निकालकर प्रगतिशील आंदोलन को विकसित किया गया. 
 
हिंदी कविता में तो बाबा प्रगतिशीलता की नींव रखने वालों में से हैं. नागार्जुन की काव्य यात्रा के विभिन्न पड़ावों का जिक्र करते हुए प्रणय कृष्ण ने कहा कि वे प्रगतिशीलता के आंदोलन के आत्मसंघर्ष के भी नुमाइंदे हैं. ऊंचे से ऊंचे दर्शन को भी उन्होंने संशय से देखा. बुद्ध और गांधी पर भी सवाल किए. योगी अरविंद पर भी कटुक्ति की. वे किसी से नहीं डरते थे, इसलिए कि वे अपनी परंपरा में उतने ही गहरे धंसे हुए थे.
 
बाबा शुरू से ही सत्ता के चरित्र को पहचानने वाले कवि रहे. नामवर सिंह 1962 के बाद के दौर को मोहभंग का दौर मानते हैं, लेकिन नागार्जुन, मुक्तिबोध और केदार जैसे कवियों में 1947 की आजादी के प्रति कोई मोह नहीं था, कि मोहभंग होता. स्वाधीनता आंदोलन के कांग्रेसी नेतृत्व में महाजनों-जमींदारों के वर्चस्व को लेकर इन सबको आजादी के प्रति गहरा संशय था. नागार्जुन ने तो कांग्रेसी हुकूमत की लगातार आलोचना की. 
 
दरअसल प्रगतिशीलता की प्रामाणिक दृष्टि हमें इन्हीं कवियों से मिलती है. तेलंगाना के बाद साठ के दशक के अंत में नक्सलबाड़ी विद्रोह के जरिए किसानों की खुदमुख्तारी का जो संघर्ष नए सिरे से सामने आया, उसने प्रगतिशीलता और वर्ग संघर्ष को नई जमीन मुहैया की और सत्तर के दशक में जनांदोलनों ने नागार्जुन सरीखे कवियों को नए सिरे से प्रासंगिक बना दिया. 
 
बीसवीं सदी के हिंदुस्तान में जितने भी जनांदोलन हुए, नागार्जुन प्रायः उनके साथ रहे और उनकी कमजोरियों और गड़बडि़यों की आलोचना भी की लेकिन नक्सलबाड़ी के स्वागत के बाद पलटकर कभी उसकी आलोचना नहीं की. जबकि संपूर्ण क्रांति के भ्रांति में बदल जाने की विडंबना पर उन्होंने स्पष्ट तौर पर लिखा. 
 
आज जिस तरीके से पूरी की पूरी राजनीति को जनता से काटकर रख दिया गया है और जनता को आंदोलन की शक्ति न बनने देने और बगैर संघर्ष के सत्ता में भागीदारी की राजनीति चल रही है, तब जनता की सत्ता कायम करने के लिहाज से नागार्जुन पिछले किसी दौर से अधिक प्रांसगिक हो उठे हैं.
 
आइसा नेता रामायण राम ने नागार्जुन की कविता ‘हरिजन-गाथा’ को एक सचेत वर्ग-दृष्टि का उदाहरण बताते हुए कहा कि इसमें जनसंहार को लेकर कोई भावुक अपील नहीं है, बल्कि एक भविष्य की राजनैतिक शक्ति के उभार की ओर संकेत है. उत्तर भारत में दलित आंदोलन जिस पतन के रास्ते पर आज चला गया है, उससे अलग दिशा है इस कविता में. एक सचेत राजनैतिक वर्ग दृष्टि के मामले में इससे साहित्य और राजनीति दोनों को सही दिशा मिलती है.
 
समकालीन जनमत के प्रधन संपादक रामजी राय ने ‘भोजपुर’ और नागार्जुन का जीवन-स्वप्न विषय पर बोलते हुए कहा कि नागार्जुन अपने भीतर अपने समय के तूफान को बांधे हुए थे. मार्क्सवाद में उनकी गहन आस्था थी. 
 
अपनी एक कविता में उन्होंने कहा था कि बाजारू बीजों की निर्मम छंटाई करूंगा. जाहिर है उनके लिए कविता एक खेती थी, खेती- समाजवाद के सपनों की. भोजपुर उन्हें उन्हीं सपनों के लिए होने वाले जनसंघर्षों के कारण बेहद अपना लगता था और इसी कारण भगतसिंह उन्हें प्यारे थे. वे भारत में इंकलाब चाहते थे. उसे पूरा करना हम सबका कार्यभार है.

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