कवियत्री विस्साव शिंबोर्स्का का निधन
Feb 2, 2012 | Pratirodh Bureauविस्साव शिंबोर्स्का नहीं रहीं. हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कहकर सदा के लिए सो गईं. पोलैंड की यह 88 वर्षीय कवियत्री फेफड़ों में कैंसर से ग्रस्त थीं.
विस्साव शिंबोर्स्का का जाना अपने समय की एक बेहद सरल और विलक्षण, पैनी और स्पष्ट कविता का खत्म हो जाने जैसा है. एक ऐसी कविता जिसमें संवेदनाएं जटिलताओं के बजाय सीधी और सरल शब्दावली में भीतर तक उतरती चली जाती हो.
सरल और सीधे लहजे में राजनीतिक और मानवीय रचनाएं गढ़ने वाली विस्साव पोलैंड की सर्वाधिक लोकप्रिय कवियत्रियों में से एक थीं.
उन्हें नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था. दुनिया के अधिकतर लोग 1996 के इस नोबल सम्मान से पहले उनके बारे में कम ही जानते थे. पर नोबल मिलना कोई मानक नहीं है. कविता नोबल के पहले और नोबल के बाद वाले पलड़ों में नहीं तौली जा सकती.
उनके जाने पर परदों की आहत से कुछ कविताएं बोलती नज़र आ रही हैं. उन्हीं में से एक यहाँ श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है.
यातनाएं
बदला कुछ भी नहीं
यह देह उसी तरह दर्द का कुआं है.
इसे खाना, सांस लेना और सोना होता है.
इस पर होती है महीन त्वचा
जिसके नीचे ख़ून दौड़ता रहता है.
इसके दांत और नाख़ून होते हैं.
इसकी हड्डियां होती हैं जिन्हें तोड़ा जा सकता है.
जोड़ होते हैं जिन्हें खींचा जा सकता है.
बदला कुछ भी नहीं.
देह आज भी कांपती है उसी तरह
जैसे कांपती थी
रोम के बसने के पूर्व और पश्चात.
ईसा के बीस सदी पूर्व और पश्चात
यातनाएं वही-की-वही हैं
सिर्फ़ धरती सिकुड़ गई है
कहीं भी कुछ होता है
तो लगता है हमारे पड़ोस में हुआ है.
बदला कुछ भी नहीं.
केवल आबादी बढ़ती गई है.
गुनाहों के फेहरिस्त में कुछ और गुनाह जुड़ गए हैं
सच्चे, झूठे, फौरी और फर्जी.
लेकिन उनके जवाब में देह से उठती हुई चीख
हमेशा से बेगुनाह थी, है और रहेगी.
बदला कुछ भी नहीं
सिवाय तौर-तरीकों, तीज-त्यौहारों और नृत्य-समारोहों के.
अलबत्ता मार खाते हुए सिर के बचाव में उठे हुए हाथ की मुद्रा वही रही.
शरीर को जब भी मारा-पीटा, धकेला-घसीटा
और ठुकराया जाता है,
वह आज भी उसी तरह तड़पता ऐंठता
और लहूलुहान हो जाता है.
बदला कुछ भी नहीं
सिवाय नदियों, घाटियों, रेगिस्तानों
और हिमशिलाओं के आकारों के.
हमारी छोटी-सी आत्मा दर-दर भटकती फिरती है.
खो जाती है, लौट आती है.
क़्ररीब होती है और दूर निकल जाती है
अपने आप से अजनबी होती हुई.
अपने अस्तित्व को कभी स्वीकारती और कभी नकारती हुई.
जब कि देह बेचारी नहीं जानती
कि जाए तो कहां जाए.
विस्साव शिंबोर्स्का (अनुवाद: विजय अहलूवालिया)