एक कविता, अमरीकावासी दोस्तों के नाम
Oct 16, 2014 | Panini Anandसाथ पढ़े कितने ही दोस्त अमरीका जाकर रहने लगे. कुछ बस गए. कुछ बसने की कोशिश में हैं. कोई बुराई नहीं. पर आजकल भारतीयता की किताब से सबक याद करा रहे हैं. देश के भगोड़े जब कथित राष्ट्रभक्ति की लुटिया से शौंचते नज़र आते हैं तो हंसी आती है. उन्हें समर्पित एक कविता…
माई फ्रेंड्स इन अमरीका
वो पढ़े थे यहीं
हमारे तुम्हारे बीच
15 अगस्त के राष्ट्रीय गीतों पर
उत्साह से भरे हुए
भगत सिंह और चंद्रशेखर की ज़मीन पर
पैदा होने का गर्व लिए हुए
उन्हें लगा था कि
आज़ादी अभी अधूरी है
आबादी भूखी और बेबस है
आंखें अबतक सुराज का स्वप्न देखती हैं
और यह भी
कि भगत सिंह और चंद्रशेखर महान क्रांतिकारी थे
उन्हें मालूम था
कि देश में डॉक्टरों के बिना मर रहे हैं लोग
सड़कें अबतक गांव नहीं आई हैं
अंधेरा अबतक घना है
झुलसाती दोपहर में,
न बिजली का पंखा है
न हरियाली वाला तना है
वो पढ़ रहे थे, यहीं
हमारे तुम्हारे बीच
मां की पूजा और बाप की डपटों के दौरान
भरते रहे अभ्यास पुस्तिकाएं
करते रहे तैयारी
सोचते रहे कि जो नहीं हुआ है पीढ़ियों से,
अब होगा
हमारे समाज, देश, लोगों के लिए
ऐसा ही सोचता रहा विदर्भ का किसान
झारखंड का आदिवासी
बेग़मपुर की शमीना
लातेहार का संतोष
दीन, रामदीन, भूमिहीन
सब ऐसा सोचते रहे
और टैक्स भरते रहे
वो पढ़ते रहे.
वो पढ़े थे यहीं,
हमारे तुम्हारे बीच
सब्सिडी और सरकारी छूट की बदौलत
60 की पढ़ाई को छह में पढ़कर
कुछ बने डॉक्टर
कुछ इंजीनियर
कुछ बने बाबू, मैनेजर
पासपोर्ट
वीज़ा
बोर्डिंग पास
चेक इन
और फुर्रर्रर्र
उड़ गए हमारे बीच से
पीछे रह गयी शमीना
संतोष, रामदीन, सब
खेत, अस्पताल, सड़कें, पुल
पुरानी राजनीति, नई दुश्वारियां
कच्ची मेड़, बूढ़ा बरगद
आधा गांव, रग्घू और कासी
नरपतगंज, पांडेपुर
कोडरमा, गया, आरा
ठगे गए सब, अपने सवालों के बीच
उलझे और लड़ते हुए
तुम्हारा इंतज़ार नहीं करते अब
बस याद आते हो
फिर तुम मिले, कई दिन बाद
फेसबुक पर
लिंक्डइन और ट्विटर पर
अपनी पत्नी और बच्चों की तस्वीरों के साथ
किसी बड़े टापू पर सैर करते
बर्फ़ के गोलों से खेलते
अपनी लंबी कार के सामने इतराते
ओवरकोट, लॉन्ग बूट, गॉगल्स
बीयर पाइंट, गजेट्स, क्रिसमस
हैंगआउट और गेट-टुगैदर में
तुम्हें देखते रहे हम
सुदामा की तरह
शहर में नया सिनेमा आया था, उन दिनों
तुम ही तो थे
लहराए ऐसे कि देश हो गए
पोस्टर पर छपकर स्वदेश हो गए
अब नमक तो वहीं का खाते हो
नौकरी भी वहीं
घर भी बना ही लिया वहां
सुना है अपने ब्लॉक के रिप्रेज़ेटेटिव भी हो
फिर क्या हुआ अचानक
इन दिनों, देश याद आता है तुम्हें
तुम अचानक ही बन गए हो हिंदू
संस्कृति की गंगा के भगीरथ
महान परंपरा और इतिहास के तुलसी
नैतिकताओं, मर्यादाओं के राम
तुम चढ़ बैठते हो हमपर राणा प्रताप की तरह
तुम्हारी बातें गोडसे की तरह अंधी हैं
तुम्हारे तेवरों में है मठाधीशों जैसा अहंकार
तुम्हारी जिह्वा दोमुही हो गई है
देखता हूं
तुम्हारे लौटने से पहले
तुम सबकुछ व्यवस्थित चाहते हो यहां
दलित, अल्पसंख्यक, भ्रष्टाचार
वेलफेयर स्टेट, वामपंथी विचार
यज्ञ में हो भस्म
बचे रहें धनुर्वीर, बनी रहे रस्म
बाज़ार हो, सुरक्षा हो
निवेश की व्यवस्था हो
मनें रोज़ पर्व
तुम करो गर्व
अपने होने पर
गंगा को धोने पर
आंख रहे सोने पर
देश रहे धन्य
पढ़े पान्चजन्य
आने से पहले हम सीख लें सलीका
इतना सुधरें,
देश लगे अमरीका
तुम लौटेगे
सोचकर डर लगता है.
पाणिनि आनंद
अक्टूबर, 2014
नई दिल्ली