दिवाली के कई बिंब हैं. बचपन में घर के आंगन में तुलसी के चौतरे तले मिट्टी का एक घरौंदा होता था. इसमें होते थे मिट्टी के कुछ बर्तन जिनमें खील और गट्टे रखे रहते थे. हाथी बहुत प्रिय था इसलिए मिट्टी के दो हाथी. माचिस की डिब्बियों से बना सोफा-सेट और टेबल. मिट्टी की ही चिड़िया और घरौंदे के अंदर स्प्रिंग लगी गर्दन वाले दादा-दादी, अपनी गर्दन हिलाकर कुछ बोलते हुए से. सफेद चूने और लाल आलते के बार्डर वाली पुताई. बाहर रखवाली के लिए एक घुड़सवार. ढेर सारे दिए और एक मिट्टी की जीप जिसमें आगे रस्सी बांधने का टोचन-हुक होता था. आतिशबाज़ी भी करते थे पर खुली जगह और पेड़ों वाले इलाके में इतना कोहरा, शोर नहीं मचता था. गायों के पास आतिशबाज़ी सख़्त मना थी क्योंकि वो बेचारी बहुत परेशान होती थीं.
दिल्ली आया तो बिंब बदले. बाज़ार बदला दिखाई दिया. अपनी इस कविता में पिछले बरस की दिवाली के चार बिंब प्रस्तुत कर रहा हूं.