एनजीओवादी राजनीति पर एक कविता- परजीवी
May 10, 2014 | Panini Anandप्रतीकात्मक ही तो लड़ते आ रहे हो तुम
केवल प्रतीकात्मक
सच्ची लड़ाई का भ्रम पैदा करते हुए
खोखले खप्पर से क्रांति के बीज जगाने का स्वांग रचते
देश में असली लड़ाई के लिए तैयार है ज़मीन
पर तुमको मिट्टी से तकलीफ़ होती है
तुम दीमक की तरह, हगते हो अपनी ही मिट्टी
और उसी को जनतंत्र की अकादमी बना लेते हो
बांबियों से शुरू होकर बांबियों तक ही सिमटा है
तुम्हारा गढ़ा हुआ संसार
तुम, जो रोकना चाहते हो दंगे, अराजकता और अन्याय
दरअसल, मृतोपजीवी हो
उग आते हो हर अन्याय के बाद
पीड़ितों की लाश पर, कटे हुए अंगों पर
तुम सत्ता की पिटारी पर उग आते हो
कभी मारे गए लोगों के खूंरेज कपड़ों पर
कमीशनों से लेकर सेमिनारों, सभागारों तक
तुम लड़ते हो, लगातार
एक प्रतीकात्मक युद्ध
तुम्हारी नहीं है कोई विचारधारा
न ही है कोई विचार
तुम केवल एक धारा हो
जो अवसर की नाली से बहती हुई
अनावश्यक शोर करती है.
कुल्हड़ की चाय छलकने से
क्रांति नहीं हो जाती
न ही जीती जाती है व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई
किसी एक शहर के कला मंच पर
कबीर की दुहाई गाते हुए
या किसी सादी टोपी वाले सर, चमड़े वाले बैग और हवाई टिकट के सहारे
उत्तरजीवित्व के इस भौतिक संघर्ष में
जहाँ जीत भी तुम्हारी प्रतीकात्मक हो चुकी हैं
मुझे नहीं बनना तुम्हारा सिपाही
न मुझे चाहिए तुम्हारी ताकत
अपने संघर्षों पर टिके रहने के लिए.
तुम,
जो बचाना चाहते हो, लोगों को
लड़ना चाहते हो हर शोषण के खिलाफ़
रोकना चाहते हो दंगों को, हत्यारों को
हराना चाहते हो हर तानाशाह को
दिखाना चाहते हो नए रास्ते
गढ़ना चाहते हो सपनों का संसार
केवल परजीवी बन गए हो
इन सारी प्रतिकूलताओं की खाद पर आश्रित
तुम जहां होते हो
मुझे क्यों लगता है कि अब वहां नहीं रहेगा चैन
आग फिर भड़केगी
लोग मरेंगे, गलेंगे, सड़ेंगे
बन जाएंगे खाद
ज़ोर से बोलो, ज़िंदाबाद.
पाणिनि आनंद
10 मई, 2014.