एक नई कविता- सर्जरी
Nov 12, 2014 | Panini Anandएक प्रधान सेवक के द्वारा अपने मालिक के अस्पताल के उदघाटन पर दिए गए गौरवमयी शल्यचिकित्सकीय अतीत के उद्धरणों को समर्पित कविता… सर्जरी
सर्जरी
वो कहता है
सर्जरी पुरानी परंपरा है
संस्कार का हिस्सा है सिर उतार लेना
और परंपरा का, सिर पहना देना
ऐसा ही हुआ था तब भी
हाथी के बच्चे का सिर
चढ़ा दिया गया देवता के कंधे पर
इस प्रकार ईश्वर की संतान बचा ली गईं
इसी तरह देवताओं का नायक पैदा हुआ
इसी तरह मान रखा गया,
पार्वती का भी और शिव का भी
इसी तरह चलती रही परंपरा
इसी तरह काटे जाते रहे सिर
ताकि बचे रहें देवता
बची रहें ईश्वर की संतानें
इसी तरह
कुल की नाक के लिए
प्रवाहित कर दिया गया कर्ण
गर्भ के विज्ञान को
प्रकृति के नियम को
ममता के कवच को
काट दिया गया वरदान की नोंक से
बचा रहा क्षत्रियों का मान
राजवंशों की पवित्रता
परंपरा आगे बढ़ती रही
जुलाहों को मिलते रहे कबीर
मीरा को मिलता रहा विष
शाखाओं में पैदा होते रहे स्वयंसेवक
और सर्जरी बदलती रही चेहरे
बेहद भयानक चेहरों ने पहन लिया विकास
क्रूरता ने ओढ़ लिया आत्मविश्वास
हत्यारों के चेहरे पर टांक दिया गया,
गांधी का चश्मा
सने हुए हाथों ने पकड़ ली झाड़ू
नीयत ने सर्जरी के बाद
पहन ली मृग की खाल
ऐसे फैलता रहा सर्जरी का जाल
मैं खोज रहा हूं हाथी के बच्चे का धड़
और उस बच्चे का कटा हुआ सिर
जिन्हें सदियों से नहीं बचाने आया कोई
जिन्हें काटा जा रहा है निरंतर
और भूलाने के लिए
गणपति पूजा चल रही है
पाणिनि आनंद
31 अक्टूबर, 2014
नई दिल्ली