एक कविता, भोपाल गैस त्रासदी पर…
Dec 11, 2011 | Panini Anandरक्तबीज
शून्य हो कर
खो गया है आंख से.
पानी नहीं है.
हवा के झोंके ने नहीं मारा इन्हें
ज़हर ने नहीं ली इनकी जान
ये मारे गए कागज़ों पर हुए हस्ताक्षरों से
समझौतों और साजिशों से
सोच और स्वार्थ से
संपत्ति और सत्ता की खातिर
सतही वादों और संगीन चालों के चलते.
नस्लें बर्बाद हो गई
और
नाम भाप के ज़हर में घुलकर
मर्चरी का पंचनामा,
कब्रों के पत्थर हो गए.
इन्हें उस खास किस्म की
नस्ल ने मारा है
जो देश, दुनिया के हर कोने में फैल चुकी है
अफ्रीका में भी और मध्य एशिया में
कंधार में भी और कुदानकुलम में
जो लगातार हवा, पानी, ज़मीन में
ज़हर घोल रहे हैं.
एक त्रासदी की अंधी आंखें
इन लोगों का चेहरा खोज रही हैं
और ये नकाबपोश
गांधी के बंदरों को मदारी की तरह नचाते
अब हर शहर, गांव घूम रहे हैं
भोपाल गैस कांड को याद करो
इस नस्ल को
बधिया कर दो
इनकी जड़ों में इतना पानी भर दो
कि ये डूब मरें
सड़ें
फिर दोबारा न जन्मने पाएं
रोको
इस गैस को रोको
एक और भोपाल होने से रोको
इसके पहले कि हम
इस नस्ल के हाथों मारे जाएं
अपनी नस्लों को गंवाएं
इन आबादियों को तड़पकर
घुट-घुटकर मरता देखें
आओ, इन्हें रोक दें.
पाणिनि आनंद
3 दिसंबर, 2011.
दिल्ली
(भोपाल गैस त्रासदी को याद करते हुए)