इराक़, अफ़ग़ानिस्तान में मारे गए लोगों का क्या?

11 सितंबर, 2001 की घटना ने अमरीका को हिलाकर रख दिया था. इतना कि 10 वर्ष बाद भी देश हिला हुआ लगता है. भय को पूरी तरह निकाल पाने में असमर्थ सरकार ने एक जीत का संदेश देने के लिए 10वीं बरसी से ठीक पहले लादेन को भी मार गिराने का खेल दिखाया.
बच्चे को नीचे गिरने पर लगी चोट भुलाने के लिए चींटियों को मारने का उपक्रम कोई नई बात नहीं है. पर इससे दर्द और दुख कम नहीं होते. कुछ देर के लिए ध्यान भर हटता है. 10वीं बरसी पर जब इसी तरह ध्यान बंटाने के लिए लादेन को मार गिराने का तमगा पहने बराक ओबामा ग्राउंड ज़ीरो के स्मृति स्थल पहुंचे तो लगा कि जीतकर एक सेनापति लौटा है जिसने अपने कुछ खोए हैं पर दुश्मन को पराजित कर दिया है.
पर क्या दुश्मन पराजित हो गया. क्या आतंकवाद का खात्मा लादेन की मौत के साथ सुनिश्चित हो गया. अमरीका अपने ऊपर हुए हमले को याद रखने के लिए एक बड़ा स्मारक स्थल तैयार कर चुका है पर लादेन का शव तक परिजनों को या उसके देश की मिट्टी को नसीब नहीं हुआ. ऐसे में क्या यह एकतरफा और पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं है जहाँ हम तो अपनी तकलीफों को याद रखें और स्मारक बनाकर अपने इरादों को मजबूत करने के संबल तैयार करते रहें पर दूसरे को यह भी नसीब न होने दें.
दरअसल, अमरीका यह भूल रहा है कि लादेन को मारकर और उसका शव समुद्र की अतल गहराइयों में फेंककर वो दिमागों में घर कर चुके तालेबान से निजात नहीं पा सकता. चरमपंथ विचारों के ज़रिए लोगों में प्रसारित हो रहा है और अमरीका या अन्य पश्चिमी देश बंदूक की नोक पर इसे रोक नहीं सकते.
अमरीका ने ग्राउंड ज़ीरो पर उन लोगों के नाम पुकारे और उन्हें श्रद्धांजलि दी जो 11 सितंबर के हमले में मारे गए थे पर क्या अमरीका उन लोगों के नाम याद कर सकता है या उनकी संख्या भर भी अपने लबों पर दोहरा सकता है जिन्हें उसने इस हमले के बदले मार दिया.
आंकड़ों के मुताबिक अमरीका ने इन 10 वर्षों के दौरान चले आतंकवाद विरोधी अभियान में इराक़ के वर्ष 2004 से 2009 के दौरान एक लाख, नौ हज़ार लोगों का मार डाला. इनमें से अमरीका के दुश्मनों की तादाद 23 हज़ार, नौ सौ चैरासी है. इराक़ी सेना की संख्या 15 हज़ार, एक सौ छियानबे है, गठबंधन सेना के मारे गए सिपाहियों की तादाद 3 हज़ार, सात सौ इकहत्तर है और बाकी सारे यानी 66 हज़ार, इक्यासी लोग आम नागरिक थे.
यानी आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहा अमरीका इराक़ में छह वर्ष तक रोज़ औसतन 31 लोगों की जान ले रहा था.
अमरीका कहता है कि डब्ल्युटीसी पर हमले में मारे गए निर्दोषों का गुनाह इतना भर था कि वे उस दिन वहां मौजूद थे. तो क्या इराक़ में अमरीका रोज़ 31 निर्दोष लोगों को मार रहा था और वो फिर पूरे छह वर्ष तक, सिर्फ इसलिए कि वे इराक़ में पैदा हुए और मुसलमान थे.
क़रीब 30 हज़ार लोगों की मौत पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में हो गई. क़रीब 50 हज़ार लोग घायल हुए. लाखों लोग बेघर और निर्वासित हुए और इन सबके पीछे अमरीका का आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष है.
तो क्या इतने लोगों के दिलों में और ज़िंदगियों में ज़हर घोलकर कोई देश आतंकवाद की समस्या से निजात पा सकता है. क्या लोगों के दिमागों में अमरीका के प्रति घृणा और क्रूरता को इन कार्रवाइयों ने कई गुना बढ़ाया नहीं है. जिन बेगुनाहों की ज़िंदगियां अमरीका ने तबाह कर दी हैं, वो क्या कभी भी यह नहीं सोचेंगे कि अमरीका से उसकी कारगुजारियों का बदला लें और क्या मौका मिलने पर वो हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे.
अमरीका भले ही आज इस बात को फक्र से कहे कि पिछले 10 बरस में कोई और हमला करने की हिम्मत किसी आतंकवादी की नहीं हो सकी है पर अपने लिए करोड़ों लोगों के दिलों में नफरत पैदा कर चुका अमरीका यह कैसा आतंकवाद विरोधी अभियान चला रहा है.
हर मोर्चे पर हारे अमरीका की स्थिति 10 वर्ष बाद और भी चिंताजनक है. इन 10 वर्षों के अंधे खूनखराबे की उपलब्धियों से जूझने के लिए अमरीका को तैयारी करनी चाहिए और उसका रास्ता घाव देने से नहीं, घाव भरने से निकल सकता है. पूरी दुनिया को चरमपंथ की इस नई तस्वीर में ठूंसने का काम अमरीका ने ही किया है और इससे जूझना भी सबसे ज़्यादा अमरीका को ही पड़ेगा. भले ही वो खेल में फिलहाल को जीता समझे पर संकट कभी बताकर नहीं आता और अमरीका के लिए भविष्य की चुनौतियां 11 सिंतबर, 2001 से कहीं ज़्यादा कठिन हो सकती हैं.

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