बंदरबांट का शिकार जन लोकपाल बिल

अन्ना के अनशन के आखिरी दिन जब इंडिया गेट से लोग मोमबत्तियां जलाकर लौट रहे थे तो उनको लग रहा था कि एक टिटहरी प्रयास से ही सही, पर देश में जनलोकपाल बिल बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है और भ्रष्टाचार का मारीच अब फाइलों के जंगल से निकलकर शमशानवासी हो जाएगा. केंद्र सरकार की 10 सदस्यी जनलोकपाल मसौदा समिति में पांच मंत्री और पांच सिविल सोसाइटी के सरबरा शामिल कर लिए गए. अब केंद्रीय मसलों के कई दौर देख चुके बैठक कक्षों में एक मेज है, उसपर जन लोकपाल बिल का प्रस्तावित मसौदा है और दोनों ओर दो मंडलियां हैं. हूतूतूतू…हूतूतूतू… शुरू.

कमेटी की पहली बैठक से पहले कहा गया था कि कमेटी भले ही बंद कमरे में बैठे, कार्यवाही पूरे देश को दिखाई देगी, सुनाई देगी. मीटिंग के दौरान नोट्स लिए जाएंगे जो मीटिंग के बाद सार्वजनिक कर दिए जाएंगे ताकि लोग जान सकें कि क़ानून बनाने की प्रक्रिया में हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. ऐसा स्वयं अन्ना के श्रीमुख से कहा गया था. इस पारदर्शिता की ज़रूरत इसलिए भी थी क्योंकि इससे लोग समिति की ताज़ातरीन गतिविधियों को समझते और उसपर टिप्पणी करते, सुझाव देते ताकि एक बेहतर ड्राफ्ट की ओर बढ़ा जा सके. अफसोस, ऐसा नहीं हो सका. पिछले कई हफ्तों के दौरान हुई बैठक में मंत्री और समाजसेवी केवल आते-जाते दिखे. मीटिंग की कार्यवाही न तो किसी को दिखी और न किसी ने सुनी. जो देखा, सुना वो इन्हीं लोगों के बाहर आने के बाद की टिप्पणियां थीं. कभी राजनीतिक पैतरों में लिपटी तो कभी सकारात्मक दिशा की औपचारिक बयानबाज़ियों के साथ. एक मीटिंग के नोट्स सार्वजनिक भी हुए पर आगे बढ़ने का क्रम वहीं रुक गया. कह दिया गया कि बाकी की बैठकों के नोट्स दोनों पक्षों की सहमति लेकर ही सार्वजनिक होंगे. अब यह समझ से परे है कि नोट्स को अविकल प्रस्तुत करने में इस समिति को क्यों गुरेज हो रहा है. पारदर्शिता का राग अलापने वाले लोग खुद अपारदर्शी तरीके से चर्चा-समीक्षा में लगे हैं. तुर्रा यह कि मानसून सत्र तक ड्राफ्ट तैयार कर देंगे पर मेज पर तो अभी तक सैद्धांतिक सहमतियों की गाड़ी ही आगे नहीं बढ़ पा रही है. बाकी मसलों पर तो दूर, पहले से मौजूद पीएमओ को लोकपाल के दायरे में लाने जैसे प्रावधानों पर भी पूरब-पश्चिम वाली स्थिति बनी हुई है. कुछ दिखावे वाले प्रयास भी सामने आए. मसलन, जन लोकपाल पर जनसंवाद के एक-दो मंच राजधानी में पिछले दिनों सजे. पर इनमें अपने से विचार, अपने से लोग और अपनी ही बात का गुणगान होता दिखा. लोकपाल क़ानून के प्रस्ताव की समीक्षा और आलोचनाएं सुनने के बजाय अरविंद केजरीवाल उन विशेषज्ञों पर बरसते नज़र आए जो जन लोकपाल बिल के बारे में उनसे अलग राय रखते हैं और वर्तमान मसौदे की कमियों के बारे में बोल रहे हैं या अपने लेखों में उल्लेख कर रहे हैं.
अब आइए हूतूतूतू पर…. तो साब कबड्डी में कोई हारता नज़र नहीं आ रहा है. पर्दे के सामने खेल और पीछे मैच फिक्सिंग जारी है. पहले बात खेल की. सिविल सोसाइटी वाले कहते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय और मुख्य न्यायाधीश भी लोकपाल के प्रति जवाबदेह बनें. लोकपाल को इनकी गरदन पकड़कर सवाल जवाब करने का अधिकार दिया जाए. उधर मंत्रिगण कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है. ऐसा करना उचित नहीं है. प्रधानमंत्री को दायरे में लाए तो सत्ता की रेलगाड़ी और सराकारी कामकाज रुक जाएगा. नेतृत्व पर उंगली उठी तो देश रुक जाएगा. और न्यायपालिका के प्रधान को अगर इसके दायरे में रखा गया तो न्यायपालिका की अपनी स्वायत्तता का क्या होगा. एक प्रभावी, महत्वपूर्ण और स्वतंत्र संस्था के नथुनों में लोकपाल की नकेल लगाना सही नहीं होगा. दोनों ओर से ताल ठोंककर समिति वाले सधे-सधे वार कर रहे हैं. सिब्बल का सुर अलग और सिविल सोसाइटी की सुर अलग. मेरा..तुम्हारा का कोई संकेत नहीं. लोग सही किसे मानें और ग़लत किसे, इसके लिए इस बैठक की कार्यवाही का और नोट्स का समय से सार्वजनिक होना ज़रूरी था पर ऐसा नहीं हुआ. सबकुछ काले बक्से के अंदर, फाइलों की चपेट में. सिविल सोसाइटी वाले अपने ड्राफ्ट में कोई बदलाव लाने की तैयार नहीं और सरकार अपने पुराने मसौदे से भी दो क़दम पीछे.
इस बंदरबांट में सबसे ज़्यादा दयनीय फिर से देश की जनता ही बनी हुई नज़र आ रही है. एक तरफ कुआं और दूसरी ओर खाई. सरकार के ड्राफ्ट और नीयत पर चलें तो ऐसा कमज़ोर क़ानून मिलता है कि जो न बने तो ही बेहतर. दूसरी ओर सिविल सोसाइटी वालों के साथ चलें तो ऐसा क़ानून जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को दूरगामी विकलांगता और तानाशाही की ओर ले जा सकता है. सो कबड्डी जारी है. और जारी रहे, यही सरकार की मंशा है. अन्ना के अनशन के दौरान कांग्रेस ने अपना तात्कालिक मकसद पूरा करने के लिए कह दिया था कि आपसे बात करेंगे, आपको समिति में शामिल करेंगे. फिलहाल अनशन से उठ जाइए. और फिर… और फिर क्या, राज्यों के चुनाव संपन्न हो गए. भ्रष्टाचार के आरोपों की जो चोट कांग्रेस को तमिलनाडु में लगी है, वो और बुरी हो सकती थी अगर अन्ना का अनशन और कुछ दिनों तक जारी रहता, अन्ना को कुछ हो जाता और भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में एक विपक्ष खड़ा हो जाता तो. अन्ना उठ गए और साथ ही अप्रैल में विधानसभा चुनावों की चिंता के बादल भी कांग्रेस के सिर से उठ गए. अब सरकार गेंडे की खाल ओढ़कर मंत्रणा कक्ष में झपकियां ले रही है. सिविल सोसाइटी वाले उन्हें जगाने और अपनी बात मनवाने के लिए बयान दे रहे हैं, धमका रहे हैं. सरकारी सदस्यों को इसमें गेंदा फूल के खेल का मज़ा मिल रहा है. देश और समिति के सिविल सोसाइटी वालों को साफ दिखने लगा है कि इस चाल से तो किसी लोकपाल बिल की ओर न ही बढ़ा जा सकता है और न ही आगामी सत्र में यह संसद के पटल तक लाया जा सकता है. अप्रैल में सरकार को जल्दी थी पर चुनाव निपटाने की न कि लोकपाल बनाने की. चुनाव निपट गए, अब कछुआ अपनी चाल चलेगा.
खैर, अब चलिए कुछ मैच फिक्सिंग की भी बात कर ली जाए. बाबा का ये अचानक भ्रष्टाचार विरोधी महात्मा वाला प्राकट्य भी समझना होगा. हालांकि यह उतना ही पेचीदा है जितना बाबा रामदेव खुद हैं. सरकार को लगता है कि कमेटी के सिविल सोसाइटी वालों के हाथ में झुनझुना बहुत देर तक उन्हें खामोश नहीं रखेगा. ऐसा दिखने भी लगा है. अन्ना, अरविंद और प्रशांत भूषण कह रहे हैं कि सरकार उनके साथ धोखा कर रही है. कथित भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नेताओं में से एक लेकिन समिति में शामिल पांच लोगों की मंडली से खिन्न, बाबा रामदेव सरकार को एक बेहतर विकल्प दिखाई दिए जिसके मार्फत लोगों का ध्यान बांटा जा सके और मौजूदा सिविल सोसाइटी सदस्यों के दबाव को कम किया जा सके. बाबा रामदेव की प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में लाने के बारे में की गई टिप्पणी इस बाबत खासी अहमियत रखती है. रामदेव की योगा मार्केटिंग और भगवा की वजह से भीड़ जुटाने की क्षमता से तो इनकार नहीं किया जा सकता. उसपर अगर कोई राष्ट्रभक्ति की भभूति और विदेशों से काला धन वापस लाने जैसे नारे लगाने लगे तो भीड़ की गुंजाइश और बढ़ जाती है. अपनी ज़मीन खो चुके विपक्ष के लिए रामदेव सबसे उर्वरक हथियार हैं जिसको षिखंडी बनाकर लड़ाई जीतने की मज़बूत कोशिश की जा सकती है. इसीलिए रामदेव के अनशन से पहले ही आरएसएस ने अपने स्वयंसेवकों को कह दिया कि अनशन को सफल बनाने के प्रयासों में जुट जाएं. भाजपा के नेताओं की टिप्पणियां बाबा रामदेव के समर्थन में माहौल बनाने का काम करने लगी. उधर कांग्रेस अपने पत्ते सजाने में लग गई. बाबा का अन्ना के बराबर खड़ा हो जाना सरकार को ज़रूरी लगने लगा था. पर्दे के पीछे भी और आगे भी रामदेव को लपकने का खेल शुरू हो गया. पर रामदेव का उदय अन्ना ब्रिगेड को कमज़ोर करने के लिए जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है रामदेव को नियंत्रित करना. उज्जैन से निजी विमान में दिल्ली आने से पहले ही प्रधानमंत्री का रामदेव से अपील करना कि वे अनशन पर न बैठें, रामदेव को दिल्ली हवाईअड्डे पर रिसीव करने के लिए चार-चार कैबिनेट मंत्रियों का पहुंचना और सरकार के मंत्रियों का घुटनों के बल बैठ जाना एक अति-उत्साही, मीडियालोलूप और अवसरवादी बाबा के लिए कुछ ज़्यादा ही हो गया. सरकार अपने इन कारनामों से रामदेव को एक अन्ना बराबर कद देने में तो सफल रही पर नियंत्रण की चाबी उसके हाथ से जाती रही. परिणति यह, कि रामदेव केंद्र सरकार के लिए भस्मासुर बन गए. दिल्ली में हज़ारों की तादाद में आम लोगों और पागलों की तरह जारी मीडिया कवरेज के साथ रामदेव में अपने अनशन का आगाज़ किया. विश्व हिंदू परिषद के कई बड़े नेता मंच पर हैं. सांप्रदायिक और हिंदुत्ववादी तत्व रामदेव का कोई पायंचा नहीं छोड़ना चाहते. भाजपा लखनऊ में केंद्रीय स्तर की बैठक से ही बाबामय दिखी. कुछ मीडिया चैनल बाबा से निकटता को एक धार्मिक दायित्व की तरह निभा रहे हैं. लाखों की लागत से तैयार हुए सत्याग्रह पंडाल में उदघाटन भाषण देने के लिए खुद साध्वी ऋतंभरा मौजूद थीं. ये वही साध्वी हैं जिन्होंने कितने ही कोमल दिमागों पर सांप्रदायिक विभेद और हिंदू राष्ट्र की कलई चढ़ाई थी और बाबरी विध्वंस आंदोलन में पैट्रोल का काम किया था. (यहां उन संगठनों से मैं निजी रूप से एक प्रश्न करना चाहता हूं कि अगर अन्ना का अनशन अपने तमाम संदिग्ध और सांप्रदायिक स्वरूपों के बावजूद आपके लिए स्वीकार्य था तो फिर रामदेव के मंच पर भी आपको जाना चाहिए था. आप एक बड़े मकसद को पाने में लगे मिशन का हिस्सा बनते और आपकी राजनीति और समझ लोगों के सामने और स्पष्ट हो जाती). अनाप शनाप खर्च पर बने पंडाल को देखकर या उसमें जाकर ऐसा कहीं प्रतीत नहीं हो रहा था कि यह एक आंदोलन का पंडाल है, यहाँ से भ्रष्टाचार की लड़ाई होगी. सारी तैयारियों के बाद भी बाबा की पोल खुल गई. रामदेव सरकार को धोखा देकर जन छवि के लिए अनशन पर बैठे थे. बाबा सांप भी मारना चाहते थे और लाठी भी बचाना चाहते थे. सरकार और बाबा का खेल बाबा के हस्ताक्षर वाले समझौते के सार्वजनिक होने के साथ ही सामने आ गया.
इसके बाद जो हुआ वो और भी दुखद है. सब मोर्चों पर जीतती दिखाई दे रही सरकार ने एक बड़ी भूल कर दी अनशनकारियों पर पुलिस कार्रवाई करवाकर. बाबा ने किसी ईमानदार और आत्मविश्वास से भरे सिपाही की तरह नहीं, बल्कि एक गोदाम के चोर चूहे की तरह पंडाल में पुलिस के आने पर खूब करतब दिखाए. मंच से कूदे, महिलाओँ के बीच छिपे. किसी महिला के कपड़े पहन लिए और फिर अपने इर्द-गिर्द एक तीन पर्त का चक्रव्युह बना लिया. मंच से पुलिसवालों पर पत्थर भी बरसवाए. और सरकार बाबा से भी आगे निकल गई. औरतों, बच्चों और बुजुर्गों की मौजूदगी वाले पंडाल में आंसूगैस के गोले और भारी जमावड़ा किसी बड़ी घटना का कारण भी बन सकता था. इसकी विचारधाराओं की सीमा से बाहर जाकर निंदा होनी चाहिए. पर क्या सत्ता पहली बार ऐसा कुछ किसी धरने प्रदर्शन के साथ कर रही थी. गोरखपुर में महीने भर से जारी मजदूरों के संघर्ष पर एक मिनट की रिपोर्ट तक नहीं और रामदेव पर एक हफ्ते से लगातार कवरेज का पागलपन, यह किसी लोकतंत्र को मज़बूत बनाने की कोशिशें और तरीके हैं. जो लोग मीडिया मैनेजमेंट के भरोसे देश में जनांदोलनों का चेहरा बनते जा रहे हैं, उन्हें पहचानिए और उनका समर्थन करने के बजाय उनसे सवाल कीजिए. और बाबा रामदेव ने अनशन के नाम पर आम लोगों से झूठ बोलकर सत्याग्रह की सत्यता और निष्ठा को जिस तरह दागदार किया है, वो निहायत शर्मनाक है.
भ्रष्टाचार के खिलाफ खोखली और झूठी लड़ाई को लेकर केंद्र सरकार ने और पुलिस ने जो बेवकूफी की, उस घटना की प्रतिक्रिया कहें या मौके का तकाज़ा, अन्ना और टीम ने छह जून की बैठक का बहिष्कार कर दिया. 8 को अनशन की घोषणा कर दी. यानी कमेटी में भी रहेंगे, बैठक भी नहीं करेंगे और अनशन पर भी बैठेंगे. जन लोकपाल का मुद्दा इस भ्रम और कवरेज के खेल में कहीं खो गया है. रामदेव के अनशन के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में शुरू हुए इस मिडिल क्लास रिवोल्यूशन-पार्ट टू का नतीजा जो भी हो, पर कुछ बहुत बड़ी चीज़ें एकदम स्पष्ट दिख रही हैं. पहली तो यह कि लोकपाल क़ानून और भ्रष्टाचार के प्रति सरकार की शातिर और चालाकी भरी तैयारियां अब कहीं छिपी नहीं हैं. सिविल सोसाइटी इस मुद्दे पर पूरी तरह से बंटी दिख रही है और यही उससे अपेक्षित भी था. मंच की अपार्चुनिटी में कई अन्ना वाले व्याकुल नज़र आए. सरकार अन्ना के बिंब के बराबर एक छवि को बनाने और फिर ध्वस्त करने में सफल रही. इससे दो लाभ सीधे हुए. पहला कि अन्ना मंडली का भ्रष्टाचार विरोधी अभियान पर एकाधिकार नहीं रह गया और दूसरा यह कि रामदेव की पोल खोलकर केंद्र सरकार ने सिविल सोसाइटी और बाबाओं के राग-रुदन की सत्यता को भी संदिग्ध कर दिया.
देश में पिछले दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल बनता नज़र आ रहा था, वो भ्रष्टाचार की वर्षों से चली आ रही निर्बाध पीड़ा का असर था. लोकपाल बिल इस पूरी पीड़ा में अचानक से राष्ट्रव्यापी मांग बनकर उभर आया. राजनीति और विचारधारा के अभाव में लड़ाई कर रहे कुछ सिविल सोसाइटी के चेहरे आसानी से सरकार की चालबाज़ियों के निशाना बन गए हैं. संकट यह है कि दोनों के विकल्पों में या तो अतिवाद या फिर उपेक्षा की बू आ रही है. सियासत ने गोट बिछा दी है और लोकपाल उसमें फंसकर रह गया है. भ्रष्टाचार मिटाने और लोकपाल लाने के नाम पर हो रही इस अधकचरी और शातिर बंदरबांट में आगे आगे देखिए, होता है क्या.

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