श्रीलंका से नाराजगी जताने का हक नहीं भारत को
Apr 17, 2012 | डॉ. सुशील उपाध्यायपिछले दिनों भारत ने बाहरी-भीतरी दबाव के बीच इस आरोप पर मुहर लगा दी कि श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ युद्ध में मानवाधिकारों का हनन हुआ है. तमिलों के मामले में भारत से प्रायः सहयोग लेते रहे श्रीलंका के लिए यह बहुत बड़ा झटका था. अब, कुदानकुलम संयंत्र पर सवाल खड़े करके श्रीलंका ने अपना दांव चला है. बदले हालात में भारत के पास यह हक नहीं है कि वह श्रीलंका पर नैतिक दबाव बनाए या उसे पुरानी दोस्ती का हवाला दे. जब, भारत सरकार अमेरिका के पक्ष में खड़ी हो सकती है तो श्रीलंका को भी यह हक है कि चीन या किसी अन्य शक्तिशाली खेमे का हिस्सा बने.
47 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में जब श्रीलंका के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पर वोटिंग हुई तो भारत के तमाम पड़ोसी देशों ने इसके विरोध में वोट दिया. इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने वालों में पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन का नाम भी शामिल थे, जबकि निंदा प्रस्ताव के हिमायती 24 देशों में भारत भी शुमार रहा. इन 24 हिमायतियों में सबसे बड़ा नाम अमेरिका ही है और उनके पिछलग्गुओं की सूची में भारत सबसे ध्यान खींचने वाला देश है.
ध्यान देने वाली बात यह है कि इस मामले में मालदीव जैसे छोटे-से देश ने भी इस प्रस्ताव में संशोधन के लिए आवाज उठाई. इस मामले में भारत के पास तीन विकल्प थे. पहला, समर्थन करना. दूसरा, विरोध करना और तीसरा, मतदान से अलग रहना. भारत ने पहला विकल्प चुना. जबकि, इससे पहले भारत का रुख अस्पष्ट था. सरकार कभी इसके विरोध की बात कह रही थी तो कभी मतदान से दूर रहने की.
चूंकि, तमिलों के मुद्दे पर भारत सरकार लगातार श्रीलंका के संपर्क में थी और श्रीलंका सरकार ने भारत की अपेक्षा के अनुरूप कदम उठाने का वादा भी किया हुआ है, लेकिन अब भारत ने इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने में मदद की है तो श्रीलंका के पास कोई वजह नहीं कि वह भारत की लिहाज रखे.
अब, कुदानकुलम परमाणु संयंत्र के मामले में श्रीलंका ने दिखा दिया कि उसे भारत की फिक्र नहीं है. भारत के पास अब वह नैतिक आधार नहीं है कि श्रीलंका को परमाणु संयंत्र के मामले को इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी के पास ले जाने से रोक सके. अब, इस बात का कोई मतलब नहीं है कि श्रीलंका ने पहले कभी संयंत्र पर सवाल खड़ा नहीं किया और भारत ने इस संयंत्र को हर तरह से सुरक्षित करार दिया है. श्रीलंका के मामले में एक बार पहले घरेलू राजनीति के दबाव में आ चुकी केंद्र के सरकार के सामने अब बड़ी चुनौती है कि वह श्रीलंका को भरोसा दिलाए कि दोनों देशों के संबंधों को बिगड़ने नहीं दिया जाएगा.
पिछले दिनों श्रीलंका के खिलाफ मतदान ने कई ऐसे सवाल खड़े किए हैं जिनका जवाब देना भारत के लिए आसान कतई नहीं होगा. इसमें कोई छिपी हुई बात नहीं है कि अगर केंद्र सरकार पर डीएमके का दबाव न होता तो संभवतः भारत विरोध में मतदान नहीं करता. वैसे, इस मुद्दे पर डीएमके और एआईडीएमके, दोनों एक ही सुर में बोलते रहे हैं. लेकिन, केंद्र में सरकार को बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री को इस स्तर तक झुकना पड़ा जिसमें भारत-श्रीलंका संबंधों में तल्खी का खतरा पैदा हो गया.
वैश्विक स्तर पर यह घटना भारत के लिए इसलिए भी चिंताजनक है कि पिछले कुछ महीनों में दो क्षेत्रीय दल दो अलग अंतरराष्ट्रीय मामलों में सरकार की नाक कटवा चुके हैं. इससे पहले, बांग्लादेश में प्रधानमंत्री उस वक्त हक्के-बक्के रह गए थे जब तीस्ता जल संधि पर ममता ने हंगामा खड़ा कर दिया था और अब डीएमके ने सरकार के हाथ बांध दिए. सोचिए, अगर किसी दिन जम्मू-कश्मीर की पार्टियां केंद्र सरकार को पाकिस्तान के सामने झुकने के लिए मजबूर कर दें क्या परिणाम होगा?
पिछले कुछ सालों से अमेरिका जिस स्तर पर भारत के राजनयिक फैसलों को प्रभावित करता रहा है, उससे श्रीलंका के खिलाफ वोट डालने को बड़ी घटना के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. लेकिन, इसे मामूली घटना मानना आसान नहीं होगा. भारत ने अपने सबसे अच्छे पड़ोसी के खिलाफ अमेरिका और उसके समर्थकों के सुर में सुर मिलाया है, यह किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है. इस पूरे मामले में अमेरिका के साथ-साथ पश्चिमी देशों के हित भी जुड़े हैं. इनमें नार्वे का नाम खासतौर से लिया जा सकता है. ध्यातव्य है कि नार्वे कभी खुले तो कभी छिपे तौर पर लिट्टे को मदद देता रहा है और प्रभाकरण की मौत पर सबसे अधिक नाराजगी नार्वे की ओर से आई थी.
भारत का यह रुख श्रीलंका के लिए आसान कतई नहीं है क्योंकि वैश्विक मुद्दों पर श्रीलंका या तो भारत के साथ रहा है या फिर उसके रुख के अनुरूप निर्णय लेता रहा है. अब, भारत ने लिट्टे के खिलाफ युद्ध में श्रीलंका को मानवाधिकारों के हनन का दोषी मान ही लिया है तो श्रीलंका के लिए भी विकल्प खुले हैं और उसने कुडनकुलम के मामले में इस विकल्प का प्रयोग करके भी दिखा दिया है. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत के मामले में कभी जम्मू-कश्मीर, कभी पंजाब, तभी नॉर्थ-ईस्ट तो कभी नक्सलियों के खिलाफ अभियानों को लेकर मानवाधिकार हनन के आरोप लगते रहे हैं. यदि, ऐसे किसी प्रस्ताव पर श्रीलंका ने भारत के खिलाफ खड़ा हुआ तो भारत के पास ऐसा कोई तर्क नहीं होगा जिससे श्रीलंका को मना सके. यकीनन, श्रीलंका पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश का शुक्रगुजार होगा, जिन्होंने इस आड़े वक्त में समर्थन दिया. भले ही, घरेलू राजनीति के चलते भारत को ऐसा करना पड़ा हो, लेकिन वह इस फैसले से भारत ने खुद को दक्षिण एशिया में अपनी स्थिति को कमजोर किया है. इस मामले में भारत अलग-थलग पड़ गया. यहां तक की भारत का चिरकालिक दोस्त रूस भी श्रीलंका के साथ है, जबकि भारत अमेरिका के खेमे में खड़ा हुआ है.
पड़ोसी देशों के मन में अब इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं रहेगा कि भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. भले ही, अमेरिकी चाहत गलत और अवैध क्यों न हो! भारत ने अचानक ही चीन और पाकिस्तान को एक बड़ा अवसर मुहैया करा दिया है. हिंद महासागर में चीन की रुचि लगातार बढ़ी है. वह हिंद महासागर की मुहिम में श्रीलंका को अपना हमराही बनाना चाह रहा है. अब, इस एहसान के बाद श्रीलंका की ओर से इनकार कर पाना आसान नहीं होगा. श्रीलंका-चीन के बीच कोई सहमति बनती है तो पाकिस्तान को उसमें शरीक होने में कोई गुरेज नहीं होगा. संभव है कुछ लोग यह तर्क दें कि मानवाधिकार के पैमाने पर चीन और पाकिस्तान का रिकार्ड भी दागदार है. इसलिए श्रीलंका के पक्ष में खड़ा होना उनकी मजबूरी थी, लेकिन भारत-विरोधी देशों के नजरिये से देखें तो मानवाधिकार हनन की बात भारत भी समान रूप से लागू होती है. जबकि, मानवाधिकार के पैमाने पर अमेरिका और समृद्ध पश्चिमी देशों के बारे में तो सवाल खड़ा करना ही गुनाह पर है.
पर, यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि ईराक और अफगानिस्तान में जोर कुछ हो रहा है, वहां मानवाधिकार हनन का जिम्मेदार कौन है? लीबिया, लेबनान के लिए क्या अमेरिका-पश्चिमी देश जिम्मेदार नहीं हैं ? लेकिन, यह सवाल इसलिए निरर्थक है कि दुनिया में इस वक्त एक ही धुरी है और वो है-अमेरिका. इस धुरी ने भारत को अपना इलाकाई क्षत्रप नियुक्त किया है तो स्वाभाविक रूप से भारत को वही करना होगा जो अमेरिका चाहे. अमेरिका की इस चाहत के साथ भारत की आंतरिक राजनीति भी जुड़ जाए तो यह बात सोने पर सुहागा हो जाएगी.
यह मांग जायज है कि श्रीलंका को तमिलों को समान नागरिक अधिकार और अवसर देने चाहिए, लेकिन इस मांग को लिट्टे के हकों और अधिकार तक विस्तार देने का एक अर्थ यह भी होगा कि भारत में सक्रिय तमाम अतिवादी समूह जो कुछ कर रहे हैं, वह पूरी तरह ठीक है और अगर भारत अपनी सुरक्षा, अखडंता के लिए कदम उठाए तो उसे मानवाधिकारों के चाबुक से काबू किया जाए. ठीक यही बात श्रीलंका के खिलाफ हुई. श्रीलंका के खिलाफ वोट के बाद अब भारत को अपने पड़ोसी देश से मधुर रिश्ते बनाए रखने के लिए हजारों साल पुराने संबंधों और सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्तों की दुहाई देनी पड़ेगी. पर, भारत को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जल्द कोई उम्मीद नहीं दिखती.
(लेखक उत्तराखंड संस्कृत विवि, हरिद्वार में सहायक प्रोफेसर हैं. यहां प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं.)