Skip to content
Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Primary Menu Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us
  • World View

आखिर क्यों है ईरान पर इतना बवाल?

Feb 28, 2012 | कुमार सुन्दरम

ईरान का भारतीय मीडिया में लगातार सुर्खियों में बने रहना कई मायनों में दिलचस्प है. जब अमेरिकी चौधराहट वाली दुनिया के तिलिस्म ने इतनी ताकत हासिल कर ली है कि अब हमारी भू-सांस्कृतिक कल्पना में अमेरिका हमारा पड़ोसी जान पड़ता था. बॉलीवुड ने भरोसा दिला दिया था कि स्विट्ज़र्लैड भी यहीं कहीं आस-पास ही है. ईरान, अफ़गानिस्तान और मध्य एशिया से लेकर अफ़्रीका के सारे मुल्क हमें इन सबके पार कहीं सुदूर खड़े अनजान-से प्रतीत होते थे. समय और भूगोल की हमारी कल्पना राजनीतिक वर्चस्व से यूँ ही तय होती है. कोई हमें बताए कि शिवाजी और रानी लक्ष्मीबाई के दरबार की भाषा संस्कृत नहीं फ़ारसी थी जिसका इस पूरे भूगोल से गहरा नाता था, तो हमारी चेतना को झटका-सा लगता है. पिछले कुछ महीनों में ईरान पर चल रही सरगर्मी ने ’मुख्यधारा’ के भारतीय मानस को ऐसा ही झटका दिया है. खरबों डॉलर पर पली मीडिया और पश्चिमी उत्पादों से पटे हमारे रोज़मर्रा की सच्चाई के तिलिस्म को तोड़कर ईरान हमारे करीब आ पहुँचा है. 

 
इससे न सिर्फ़ अमेरिकी प्रतिष्ठान और उसका चीयर-लीडर रहा हमारा प्राइम-टाइम बुद्धिजीवी सकते में हैं, बल्कि देश के वामपंथी भी हैरान हैं जिन्होंने परमाणु-डील पर कांग्रेस से नाता तोड़ने के बाद अंतिम घोषणा कर दी थी कि अब हमारी विदेश नीति अमेरिका की गुलाम हो गई है. जब मनमोहन सिंह से लेकर चिदम्बरम तक असल में अमेरिका के पैरोकार ही हैं तब फ़िर यह सरकार ईरान के मसले पर सर उठाकर कैसे खड़ी हो गई है? क्या यह केवल प्रणव मुखर्जी का व्यक्तिगत फ़ैसला है जो वे इंदिरा गांधी के ज़माने की विदेश-नीति में ट्रेनिंग लिए होने के कारण कर रहे हैं? दरअसल, जब ज़मीनी हकीकत हमारे बने-बनाए फ़्रेम के अन्दर दाखिल होती है तब ज़्यादातर ऐसा ही होता है और पता चलता है कि विरोधी भी उस समय के वर्चस्वशाली खाँचे के अंदर ही मुब्तिला थे. 
 
दुनिया का अमेरिकी अध्याय और भारत की विदेश-नीति
 
हमें लगातार बदलती दुनिया का ओर-छोर हासिल करने के लिए शुरुआत यहाँ से करनी चाहिए कि किसी भी मुल्क की विदेश-नीति और उसके अंदर के समाज में गहरा रिश्ता होता है. भारतीय लोकतंत्र और इसकी विदेश-नीति अपने बारे में किसी भी सरलीकरण को जल्दी ही ध्वस्त कर देते हैं. भारतीय वामपंथ को गांधी अंग्रेज़ों का पिट्ठू लगे थे और खुद चे ग्वेरा ने उन्हें साम्राज्यवाद के खिलाफ़ एक ज़रूरी आवाज़ बताया था. आज़ादी के बाद के लोकतंत्र और इसकी विदेश-नीति को लेकर भी ऐसे ही विरोधाभाषी दृष्टिकोण सामने आए- ये आज़ादी झूठी है से लेकर गुटनिरपेक्षता वस्तुतः अमेरिकी गुलामी है तक. इस देश की हकीकत को नज़रअंदाज़ कर सिर्फ़ विचारधारा और सिद्धांत से हर चीज़ को व्याखायित करने का दम्भ वे कर रहे थे जिनकी मूल मान्यता यह थी कि भौतिक यथार्थ पहले आता है और विचार बाद में. 
 
भारत और दुनिया के रिश्ते भी इस देश की तरह ही हैं – विशालकाय और जटिल, नाज़ुक भी और मजबूत भी, रंगीन भी और सरल भी, ऐतिहासिक भी और ऐड-हॉक भी. बल्कि कहें को यहाँ ऐतिहासिकता इन्हीं ऐड-हॉक  कार्रवाईयों के समुच्चय से निर्मित होती है. यहाँ की ज़मीन कठोर और दलदली दोनों एक ही साथ है. बिनायक सेन जेल से उठते हैं और योजना-आयोग में दाखिल हो जाते हैं, कल फ़िर जेल में नहीं होंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है. तो फ़िर यह लोकतंत्र है या तानाशाही? हम अमेरिकी पिट्ठू हैं या ईरान के साथ खड़ा रहने वाली एशियाई कौम? इसका जवाब विदेश-नीति के वृहत-आख्यानों और तात्कालिक अनिश्चितताओं के बीच से होकर ही हम तक आता है. और जवाब भी क्या, कुछ मोटा-मोटी सूत्र हैं जो कब दगा दे जाएँ कुछ कहा नहीं जा सकता. 
 
भारत और अमेरिका के रिश्ते बहुत जटिल हैं. जब भारत अमेरिका के साथ परमाणु-डील कर रहा था और संयुक्त राष्ट्र में ईरान के खिलाफ़ वोट कर रहा था, ठीक उसी वक्त प्रणव मुखर्जी ईरान के दौरे कर रहे थे. क्योंकि भारत को यह भी मालूम था कि जब अमेरिका भारत को डील के माध्यम से चीन के खिलाफ़ अपना रणनीतिक साथी बना रहा था, ठीक उसी वक्त अमेरिका और चीन के बीच व्यापार आसमान छू रहा था. यह शीतयुद्ध के बाद की दुनिया का सच है जिसमें अमेरिका का वर्चस्व लगातार छीज रहा है लेकिन पूंजीवाद एक वैश्विक संरचना के बतौर मजबूत हुआ है जिसके केंद्र में अमेरिका ही है. इसीलिए आर्थिक मंदी से अमेरिका को उबारने के लिए चीन की पूंजी आगे आती है. पिछले दो दशकों में, जब खुद अमेरिकी सरकार ईरान पर प्रतिबंध लगाए जा रही थी, अमेरिकी कम्पनियाँ सीधे और परोक्ष तौर पर ईरान को परमाणु-आत्मनिर्भरता के लिए साजोसामान पहुंचा रही थीं. दुनिया में सरकारों, अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी और व्यावसायिक हितों के बीच रिश्ते कुछ ढीले पड़े हैं और सत्ता के लगातार संकेंद्रण के बीच भी स्वायत्तता के कुछ ठीहे मिलने लगे हैं जिनपर कबक और कहाँ तक जैसे सवाल हमेशा बने रहते हैं. यह भी सच है कि ज़्यादातर ये ठीहे अन्ततः सत्ता के पक्ष में ही लुढ़क जाते हैं. लेकिन अगर हम इनकी हकीकत ना समझें और इनके रचनात्मक उपयोग न सीखें तो हम दुनिया को अमेरिकी षड्यंत्र से चलता देखने वाले अपने विश्लेषण में सुरक्षित सदियों तक बैठे रह सकते हैं और कहीं कुछ नहीं बदलेगा.  
 
भारत और ईरान 
 
दिल्ली में इज़राइली राजनयिक की गाड़ी पर हुए विस्फ़ोट के कुछ ही हफ़्तों पहले, इस जनवरी में भारत ईरान से होने वाले कच्चे तेल के आयात को ३७.५% बढ़ाकर ईरानी तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है. जहाँ कारपोरेट मीडिया, अमेरिकी थिंक टैंक और इज़रायल ने एक घंटे के भीतर ही ईरान का हाथ बता दिया था, इस विस्फ़ोट को लेकर भारत ने आधिकारिक तौर पर ईरान पर कोई उंगली नहीं उठाई है, बल्कि विस्तृत जाँच रिपोर्ट आने तक रुकने को कहा है. प्रिंट मीडिया में टेलीग्राफ़ और डी.एन.ए. जैसे बड़े अखबारों ने स्वतंत्र पत्रकारों को हमले के घटनाक्रम से जुड़े तथ्यों के साथ यह कहने की जगह दी कि इस मामले से ईरान के पास ऐसी कोई वजह नहीं थी कि वो नई दिल्ली की सड़कों पर विस्फ़ोट करे, उल्टे इज़रायल को ही फ़ायदा मिलना था. गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने भी सिर्फ़ यही कहा है कि विस्फ़ोट की तकनीक बहुत परिष्कृत थी. पिछले वर्षों में भारत ने ईरान से दीर्घकालीन दोस्ती के संकेत दिए हैं और उसको अपनी सीमाएँ भी बताई हैं. हमारा देश इज़राएल से हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है तो ईरान से तेल का. ईरान से तेल खरीदने पर प्रतिबंध की पश्चिमी घोषणा के बावजूद भारत अब ईरान से 550000 बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन आयात करता है. इस तेल के एवज में भारत ने ईरान को रुपए में भुगतान करने की पेशकश की है जो ईरान ने स्वीकार कर ली है. ईरान के पास भी इस रास्ते कई विकल्प हैं: इस राशि को भारत के यूको बैंक में रखकर ४% ब्याज कमाना, भारत से इस राशि के बदले वस्तुओं का व्यापार या फ़िर भारत में पड़ी इस लेनदारी को किसी और देश से व्यापार में उपयोग करना. ऐसे में, भारत की प्राथमिकता अन्तर्राष्ट्रीय दबावों के बीच भी ईरान से जुड़े अपने हितों की बलि रोकना है. आज के परिदृश्य में यह सिर्फ़ ज़रूरी ही नहीं बल्कि सम्भव भी दिख रहा है. एक तो तमाम युद्ध-दुदुम्भियों के बावजूद ईरान पर हमला अमेरिका के लिए इतना आसान फ़ैसला नहीं होगा जब उसकी फ़ौजें ईराक और अफ़गानिस्तान में लगी हैं और उसकी साख कम हुई है. न सिर्फ़ रूस और चीन बल्कि घोर अमेरिकापरस्त फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी ने भी कहा है ईरान पर युद्ध से कुछ भी हल नहीं होगा. इस बार ओबामा के लिए ब्रिटेन में भी कोई ब्लेयर नहीं है. पिछले हफ़्ते खुद अमेरिकी सीनेट की आर्म्ड सर्विसेज़ कमिटी के समक्ष अपना आकलन प्रस्तुत करते हुए डेफ़ेन्स इंटेलीजेंस एजेंसी के लेफ़्टीनेंट जनरल रोनाल्ड बर्गेस ने कहा कि ईरान से अमेरिका को कोई वास्तविक खतरा नहीं है और बहुत उकसाने पर ही ईरान नाटो ताकतों पर छिटपुट हमले करने की सोचेगा. ऐसे में, जब खुद पश्चिमी जगत में और अमेरिका के अंदर ही ईरान पर हमले पर सहमति नहीं है और अमेरिका के मुख्यधारा के अखबार भी यह लिख रहे हैं कि इज़रायल अपनी क्षेत्रीय रणनीति में अमेरिका को बहुत दूर तक खींच ले गया है, भारत ईरान से रिश्ते तोड़ने से पहले सौ बार सोचेगा. हाल के वर्षों में अमेरिका द्वारा अफ़गान-रणनीति में भारत को पहले घसीटना और फ़िर अकेला छोड़कर अपनी फ़ौजें वापस ले लेना भी भारत की स्मृति में है, जिससे भारत अपने पड़ोस में ही अलग-थलग पड़ गया है और उसने बेवजह रिश्ते खराब कर लिए हैं.
 
क्या है ईरान की परमाणु-गुत्थी? 
 
ईरान से जुड़ा सबसे संजीदा मसला उसके परमाणु कार्यक्रम का है. क्या हमें भारतीय के बतौर परमाणु-कार्यक्रम पर ईरान की सार्वभौमिकता के तर्क का समर्थन करना चाहिए? इस मसले पर भारत में दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ तक लगभग आम-सहमति है. लेकिन क्या हमें "शांतिपूर्ण" परमाणु-कार्यक्रम की इस दिशा का विरोध नहीं करना चाहिए जिसका अंत बम बनाने में ही होता है? लेकिन हम ऐसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि भारत ने भी परमाणु बम बनाने के लिए उसी रास्ते का प्रयोग किया है. परमाणु बिजली न सिर्फ़ महंगी, असुरक्षित और प्रदूषक है, बल्कि यह परमाणु बम बनाने का रास्ता भी खोलती है. लेकिन विकास की केंद्रीकृत अवधारणा भी परमाणु-ऊर्जा के मिथक को बनाने में मदद करती है. साथ ही, अणुबिजली पर रोक इसलिए नहीं लग पा रही है कि इसमें करोड़ों डॉलरों का मुनाफ़ा लगा है. परमाणु-अप्रसार संधि (एन.पी.टी.) जहाँ एकतरफ़ परमाणु बम के प्रसार पर रोक और निरस्त्रीकरण की बात करती है वहीं इसके अनुच्छेद-4 में ’शांतिप्रिय’ परमाणु उपयोग को सार्वभौम अधिकार माना लिया गया है.  ईरान एन.पी.टी. आधारित वैश्विक परमाणु तंत्र के लिये गले की हड्डी साबित हो रहा है क्योंकि यह पूरी मौजूदा व्यवस्था को उसी के अन्दर से ध्वस्त करता दिख रहा है. ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के अधिकार का इस्तेमाल ईरान खुद को तकनीकी कुशलता के उस स्तर तक पहुँचाने में करता दिख रहा है जहाँ से बम बनाने की दूरी मात्र राजनीतिक निर्णय भर की रह जाती है. ईरान के परमाणु कार्यक्रम का चरित्र और मंशा मासूम नहीं है, यह पिछले दशक की कई बातों से जाहिर हुआ है. दुनिया भर के निष्पक्ष विशेषज्ञों और परमाणु-विरोधी आंदोलनों का मानना है कि तकनीकी रूप से ईरान का परमाणु कार्यक्रम सचेत सैन्य दिशा में बढ़ रहा है. 
 
ईरान की घरेलू राजनीति में राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने परमाणु हथियारों पर केन्द्रित युद्धप्रिय राष्ट्रवाद को अपना प्रमुख हथियार बना रखा है, ठीक वैसे ही जैसे भाजपा ने अपने शासनकाल में भारत में किया था. संवर्धित यूरेनियम की परखनली हाथ में लेकर मंच से लोगों को संबोधित करने जैसे हथकंडे असल में घिनौने दक्षिणपंथी शिगूफ़े हैं, जिन्होंने ऐसा माहौल तैयार किया है कि प्रमुख विपक्षी दल भी किसी तरह परमाणु-गौरव को लपकने की कोशिश में ही लगे हैं. अहमदीनेजाद की यह चाल सफल रही है. असल में, परमाणु शक्ति बनने की आकांक्षा ने अहमदीनेजाद की हुकूमत को लोकप्रियता दी है. जबकि वैसे यह सरकार दुनिया की सबसे भ्रष्ट, क्रूर, पोंगापंथी और जनविरोधी सरकारों में से है. 
 
ईरान अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था के इस पेंच का फ़ायदा उठानेवाला इकलौता देश नहीं है. चीन, फ्रांस, भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया जैसे कई देशों ने अपने परमाणु प्रकल्प शांतिपूर्ण ढंग से बिजली बनाने के नाम पर शुरु किये थे और बाहरी देशों से इस नाम पर मिली मदद का इस्तेमाल भी अन्ततः बम बनाने के लिये किया. अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के अपने अनुमानों के मुताबिक परमाणु-बिजली प्रकल्पों के ’शांतिपूर्ण’ रास्ते से अगले कुछ सालों में बीस और देश परमाणु बम बनाने की क्षमता और कच्चा माल हासिल कर लेंगे। एन.पी.टी. आधारित परमाणु व्यवस्था में निहित इस विरोधाभास की अनदेखी से ही आज कई सारे देश बम-बनाने में समर्थ तकनीक से लैस हैं. और अब जब इस व्यवस्था के ध्वजाधारक इस विरोधाभास से आँख नहीं चुरा पा रहे, उन्होंने इसका हल एक बहुत खतरनाक शॉर्टकट के रूप में निकाला है. उनकी योजना यह है कि परमाणु तकनीक के प्रसार और इसके प्रोत्साहन को न रोका जाए, बस ’अच्छे’ देशों और ’बुरे’ देशों के साथ अलग-अलग बर्ताव किया जाय. लेकिन यह बहुत विनाशकारी रवैया है, क्योंकि जब हम परमाणु बमों की बात कर रहे हैं तो उनमें ना कोई बम अच्छा होता है ना बुरा- सारे बम मानवीव त्रासदी लेकर आते हैं.  
 
परमाणु-बम बनाने के इस ’शांतिपिय’ रास्ते को रोका जाना चाहिए. फ़ुकुशिमा के बाद दुनिया भर में अणुबिजली के खिलाफ़ मुहिम तेज़ हुई है और जर्मनी, स्वीडन, इटली जैसे देशों ने इससे तौबा कर अक्षय ऊर्जा-स्रोतों की तरफ़ रुख किया है. हमारे देश में भी जैतापुर (महाराष्ट्र), कूडनकुलम (तमिलनाडु), फ़तेहाबाद (हरियाणा), मीठीविर्डी (गुजरात), चुटका (मध्यप्रदेश), कैगा (कर्नाटक) में नए रिएक्टरों के खिलाफ़ आन्दोलन तेज़ हुए हैं. ये आन्दोलन पूरी तरह अहिंसक है और इन्होंने विकास की नई परिभाषा की ज़रूरत को रेखांकित किया है. 
 
हमें परमाणु-बिजली के खिलाफ़ खड़ा होना चाहिए और ईरान पर हो रहे हमलों का प्रतिकार करते हुए भी इसके परमाणु-कार्यक्रम को जायज़ नहीं ठहराना चाहिए. जब परमाणु बिजली का ही विरोध होगा तो अमेरिका को इस दादागिरी का मौका भी नहीं मिलेगा कि वह तय करे कि किसका परमाणु बम अच्छा है और किसका बुरा, जैसा वह ईरान और इज़रायल के परमाणुकार्यक्रमों के सिलसिले में कर रहा है. ज़ाहिर तौर पर, यह तेल के लिये ईरान का हाथ और हथियारों के लिए इज़राएल का हाथ थामने के शक्ति-सन्तुलन से ज़्यादा बड़ी चुनौती है. देश का सत्तावर्ग ऐसे आमूलचूल बदलाव की बजाय ऐसे ही उपायों का सहारा लेता है जिससे कभी-कभार कुछ टकराहटें दिखाई तो पड़ती हैं, लेकिन सिद्धांत के बतौर वही हिंसक, केंद्रीकृत विकास का मॉडल आगे बढ़ता है जिससे आमजन की हालत में कोई बदलाव नहीं आता. शांति सिर्फ़ राजनयिक स्थिरता अथवा गोलबंदी से नहीं आती. आज ज़रूरत है कि भारत के लोग ईरान के मसले को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखें.
 
(इस मूल लेख का एक संपादित रूप आज यानी मंगलवार के जनसत्ता में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.)

Continue Reading

Previous Dow paid U.S. firms to spy on Bhopal activists
Next US special forces present in India

More Stories

  • Featured
  • Politics & Society
  • World View

U.S. Targets Hit: Iran May Have Deliberately Avoided Casualties

6 years ago Pratirodh Bureau
  • Featured
  • Politics & Society
  • World View

U.S., Iran Both Signal To Avoid Further Conflict

6 years ago Pratirodh Bureau
  • Featured
  • Politics & Society
  • World View

Avenging Gen’s Killing, Iran Strikes At U.S. Troops In Iraq

6 years ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • Oppn Has Faith In SC, United On Bihar Electoral Rolls Issue: Congress
  • How Social Media Design Can Either Support Or Undermine Democracy
  • The Rise Of India’s Moringa Economy
  • Covid ‘Sudden Deaths’ Have Not Increased Due To Vaccines: ICMR Study
  • Gas Leak In Assam Oil Rig Under Control But Has Affected Hundreds
  • Burned Out: Privatised Risk Is Failing Victims Of Climate Disasters
  • Maharashtra: Rahul Gandhi Attacks Modi Govt Over Farmer Suicides
  • From Bonn To Belém, Global Climate Talks Inch Forward Amid Deep Divides
  • Here’s Why Energy Markets Fluctuate During An International Crisis
  • ‘Enactment Of New Criminal Laws Is A Waste’
  • Nine Projects Produced ‘Problematic’ Carbon Credits In ’24, Says Report
  • How The ‘Publish Or Perish’ Culture Is Fuelling Research Misconduct In India
  • ‘Govt Not Helping Farmers Facing Shortage Of Essential Fertilisers’
  • How Lions In Gujarat’s Gir Forest Are Using Scent To Communicate
  • Climate Misinformation Leads People To Lose Faith In Science: Report
  • Unkept Promises, Marginalised Excluded: Cong On 10 Yrs Of ‘Digital India’
  • SC Pauses NGT Order Amid Industry Push For Coal Flexibility
  • How Zohran Mamdani’s Win In New York Could Ripple Across The US
  • Will Fight Tooth & Nail If Any Word Is Touched In Constitution: Kharge
  • Fighting Meat With Emotions, Not Facts

Search

Main Links

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us

Related Stroy

  • Featured

Oppn Has Faith In SC, United On Bihar Electoral Rolls Issue: Congress

4 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

How Social Media Design Can Either Support Or Undermine Democracy

10 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

The Rise Of India’s Moringa Economy

10 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Covid ‘Sudden Deaths’ Have Not Increased Due To Vaccines: ICMR Study

1 day ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Gas Leak In Assam Oil Rig Under Control But Has Affected Hundreds

1 day ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • Oppn Has Faith In SC, United On Bihar Electoral Rolls Issue: Congress
  • How Social Media Design Can Either Support Or Undermine Democracy
  • The Rise Of India’s Moringa Economy
  • Covid ‘Sudden Deaths’ Have Not Increased Due To Vaccines: ICMR Study
  • Gas Leak In Assam Oil Rig Under Control But Has Affected Hundreds
Copyright © All rights reserved. | CoverNews by AF themes.