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आखिर कहां गर्इ मध्य-पूर्व की वसंत क्रांति

Feb 18, 2012 | डा. सुशील उपाध्याय

अमेरिका और पश्चिमी देशों ने साल भर पहले मध्य-पूर्व के देशों में लोकतंत्र की बयार के सपने दिखाए थे, लेकिन वंसत की खुशनुमा हवाओं की बजाय तूफान के बवंडर दिखाए दे रहे हैं, नर्क की आंधियां चल रही हैं, जिनमें आधा दर्जन देशों में एक लाख लोग या तो मारे जा चुके हैं या गंभीर रूप से घायल हुए हैं. इन देशों में लोकतंत्र का खुशनुमा सपना आम लोगों की जिंदगी पर भारी पड़ रहा है.

 
एक साल पहले की बात है जब अमेरिका और पश्चिमी मीडिया ने दुनिया भर को बताया कि मध्य-पूर्व में क्रांति का वसंत आ गया है, लोग उठ खड़े हुए हैं और अब पूरे जहान में लोकतंत्र आ विराजेगा. लेकिन, यह दुस्वप्न था. वैसा ही दुस्वप्न जैसा कि इराक और अफगानिस्तान के मामले में दिखाया गया था.  
 
मध्य-पूर्व के छह देशों में अब भी हालात चिंताजनक हैं. यहां सबसे पहले ट्यूनीशिया में लोग सड़कों पर उतरे. वहां तानाशाह जैनुल आबदीन को सत्ता से हटा दिया गया और नर्इ सरकार ने सत्ता संभाल ली. टयूनीशिया के लोगों को अब जो सरकार मिली है, वह अमेरिका और पश्चिमी के संकेतों के अनुरूप फैसले कर रही है. इसके एवज में उसने पश्चिम से लोकतांत्रिक और जनप्रतिनिधि सरकार होने का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया है.
 
दूसरा देश मिस्र था, जहां पश्चिमी की गिद्धदृष्टि पड़ी. वहां हुस्नी मुबारक को हटा दिया गया और उनके स्थान पर पुराने तंत्र में मौजूद रहे सैनिक अधिकारियों ने सत्ता को अपने हाथ में ले लिया. अभी तक न संविधान का पता है और न लोकतंत्र का. इस बदलाव में इतना जरूर हुआ कि कट्टर मुस्लिम ताकतें संसद में आ बैठी. 
 
ये वैसा ही बदलाव जैसा कि अफगानिस्तान में डा. नजीबुल्लाह की सरकार को हटाकर उनके स्थान पर तालिबान को बैठा दिया गया था और लोगों को यकीन दिलाया गया था कि ये लोकतंत्र के पुरोधा हैं. बाद में जो हुआ सबके सामने है. जब तालिबान ने अमेरिकी इशारों पर नाचने से इनकार किया तो उसे भी दुश्मन की श्रेणी में रख दिया गया. ऐसा ही अगर मिस्र के मामले में भी हो तो कोर्इ हैरत की बात नहीं होगी. क्योंकि, मूल बात मध्य-पूर्व के लोगों के हित नहीं बलिक पशिचम के हित हैं. 
 
जो सरकार अमेरिका और पश्चिमी दुनिया के अनुरूप चलेगी, वह जनप्रतिनिधि सरकार का तमगा हासिल किए रहेगी. इसका उदाहरण लीबिया में भी देखने को मिला. कुछ साल पहले गद्दाफी का पश्चिम की तरफ रुख नरम हो गया था तो पश्चिम ने उनके गुनाह माफ कर दिए थे, लेकिन जैसे ही वे फिर आंख दिखाने लगे तो उनका सफाया करा दिया गया. अब, लीबिया में जो लोग सत्ता संभाल रहे हैं वे किसी भी रूप में गद्दाफी से कम खतरनाक नहीं हैं, लेकिन उनकी सत्ता तब तक चलती रहेगी, जब तक वे अमेरिका की हां में हां मिलाते रहेंगे. जैसे ही, उनके सुर बदलेंगे, फिर बदलाव की कथित क्रांतियां आरंभ हो जाएंगी. आखिर, लीबिया ने कितना कुछ गंवाकर पश्चिम-प्रायोजित लोकतंत्र हासिल किया है. साल भर पहले का व्यवस्थित त्रिपोली आज कमोबेश खंडहरनुमा शहर में तब्दील हो गया है. त्रिपोली की हालत पश्चिम-प्रायोजित लोकतंत्र का सबसे बड़ा नमूना है.
 
अगर रूस और चीन ने अमेरिका के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत न दिखार्इ होती तो अब तक सीरिया का हाल भी लीबिया जैसा हो चुका होता. सीरिया में एक साल से तनातनी चल रही है. पश्चिमी मीडिया बता रहा है कि छह हजार लोगों का कत्ल हो चुका है इसलिए सीरियार्इ प्रेजीडेंट असद को भी अब लोकतंत्र की सलीब पर लटका देना चाहिए. लेकिन, अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और पश्चिमी मीडिया से यह सवाल पूछना गुस्ताखी होगी कि र्इराक और अफगानिस्तान में एक दशक में मारे गए दस लाख लोगों के लिए किस अमेरिकी या यूरोपीय देश के नेतृत्व को दंडित किया जाए ? 
 
यह भी तय है कि सीरिया के मामले में रूस और चीन कमजोर पड़े तो इस देश की तबाही के बाद अगला नंबर र्इरान का होगा. फिलहाल, सीरिया इसलिए बचा हुआ है कि इस देश और मौजूदा व्यवस्था के साथ रूस और चीन के गहरे हित जुड़े हैं.
 
वसंत-क्रांति की सूची वाले देशों में यमन और बहरीन का नाम भी शामिल रहा है. यमन में सत्ता परिवर्तन के नाम पर व्यक्ति बदल दिया गया है, लेकिन सिस्टम आज भी ज्यों का त्यों है. साल पहले दिखाए गए सपने बदरंग हो चुके हैं. यही हाल कमोबेश बहरीन का भी है. इस सारी चर्चा का सार ये है कि अमेरिका को मनमानी करने की आजादी चाहिए. वह खुद को उस हर जगह घुसने का हकदार मान रहा है जहां उसके हित जुड़े हैं. यदि, उसके हित साधती सरकारें हों तो उसे किसी तंत्र से कोर्इ लेना देना नहीं है. इसके दो बड़े उदाहरण सउदी अरब और कुवैत के रूप में देखे जा सकते हैं. अगर लोकतंत्र के पैमाने पर देखें तो दोनों देशों के लोगों को सबसे कम अधिकार हासिल हैं. लेकिन, वहां की सरकारें पश्चिम की पिछलग्गू है, इसलिए यहां वसंत क्रांति जैसा कोर्इ सपना नहीं दिखाया जा रहा है. इसके उलट र्इरान से दिक्कत है जबकि वहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुर्इ सरकार काम कर रही है. वजह यह है कि र्इरान के प्रेजीडेंट अहमदीनेजाद हर स्तर पर अमेरिका को चुनौती देते हैं.
 
मौजूदा वासंती-बयार में किसी नए तंत्र को लागू करने की बात ही नहीं है, यह पूरी तरह से उन लोगों को सत्ता से हटाने का खेल है जो अमेरिका और पश्चिम का कहा नहीं मान रहे हैं या जिनके साथ यह डर जुड़ा है कि वे चीन या रूस के साथ मिलकर दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने में भूमिका निभा सकते हैं. बीते एक साल के घटनाक्रम से एक सवाल यह भी उभर रहा है कि पश्चिम अचानक मध्य-पूर्व का इतना बड़ा शुभचिंतक कैसे हो गया है. 
 
यदि, वह आम लोगों के अधिकारों का यथार्थ रक्षक है तो उसे लेबनान और फलस्तीन के आम लोग क्यों नजर नहीं आते. आखिर, पश्चिम के चश्मे से दिखार्इ देने वाले आम लोग तेल संपन्न देशों में ही क्यों बसते हैं? 
 
वर्तमान हालात से यही लग रहा है कि मध्य-पूर्व के देशों में एक तानाशाह को पदच्युत करके दूसरी तानाशाही लाने का खेल खेला जा रहा है. इसमें न अमेरिका का कुछ बिगड़ना है और न ही पश्चिम का, असली खामियाजा तो इन देशों के आम लोगों को भुगतना होगा. आखिर, इन छह देशों में जो एक लाख लोग मरे या घायल हुए, उन्हें मारने वालों के हाथों में मौजूद हथियार पश्चिम से ही आए थे. हालात बता रहे हैं कि इस खेल के जल्द खत्म होने के आसार नहीं हैं. 
 
(लेखक उत्तराखंड संस्कृत विश्वविधालय, हरिद्वार में सहायक प्रोफेसर हैं.)

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