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खलः सर्सप मात्राणि, पर छिद्राणि पश्यन्ति

Apr 18, 2012 | अभिषेक श्रीवास्तव

(गुंटर ग्रास की एक कविता का अनुवाद पिछले दिनों अभिषेक श्रीवास्तव ने अपने ब्लॉग पर लगाया. उसे पढ़ते हुए एक पीड़ा थी कि 84 की उम्र में क्यों एक कवि इसलिए कान पकड़कर देश से बाहर फेंक दिया जाएगा क्योंकि उसकी कविता हुकूमत को नगवार गुज़री है. इस असहिष्णु बर्ताव पर हम ग्रास के साथ खड़े थे. उसके 84 वर्षों के बोझ और उद्भव, पहचान से इतर… इसलिए क्योंकि ऐसी मुर्खतापूर्ण कार्रवाइयों के बाद एक कवि के साथ खड़ा होना कविता और उसके अस्तित्व के साथ खड़ा होना है. किसी भी कवि या कविता सुनने कहने वाले से यह एक स्वाभाविक सी उम्मीद की जानी चाहिए. पर गुंटर ग्रास की इस कविता पर अभी दिल्ली के कई लोगों से अपनी चर्चा चल ही रही थी. इस घटना के मायने निकाले जा रहे थे कि अभिषेक को एक दण्डपाणि साहित्यकार का पत्र मिला और उसने बहस को यज्ञशाला में तब्दील कर दिया. होम में पहले उनका पत्र गिरा और फिर अभिषेक का जवाब. दोनों यहाँ प्रस्तुत हैं.- प्रतिरोध ब्यूरो)

इससे पहले गुंटर ग्रास की कविता (जिसपर यह सारा विवाद खड़ा हो रहा है) पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
जाहिल इज़रायल विरोधियों को नहीं दिखता ईरान का फासीवाद : विष्णु खरे
रविवार की सुबह एक अप्रत्या शित चिट्ठी मेलबॉक्स  में आई. भेजने वाले का नाम विष्णु् खरे और संदर्भ गुंटर ग्रास की मेरी अनूदित कविता को देख कर पहले तो लगा कि शायद प्रोत्सा्हन टाइप कोई बात या अनुवाद पर टिप्पमणी होगी. चिट्ठी पढ़ने के बाद पता चला कि माजरा कुछ और है, तो हंसी आई. काफी सोचने विचारने के बाद सोमवार की सुबह मैंने इस चिट्ठी का जवाब भेजा और चिट्ठी को सार्वजनिक करने की उनसे अनुमति मांगी (उन्होंहने इसे ब्लॉ ग पर न डालने का आग्रह किया था). सोमवार शाम चार बजे उन्होंदने इसकी अनुमति दे दी. उसके बाद से दो बार और मेरे और विष्णुव जी के बीच मेला-मेली हो चुकी है. पहले वे नहीं चाहते थे कि संवाद सार्वजनिक हो, अब वे चाह रहे हैं कि अब तक आए-गए हर ई-मेल को मैं सार्वजनिक कर दूं. फिलहाल, नीचे प्रस्तुहत है विष्णुस खरे का अविकल पत्र और उसके बाद उनको भेजा मेरा जवाब.
श्री अभिषेक श्रीवास्तवजी,
हिंदी के अधिकांश ब्लॉग मैं इसीलिए पढ़ता हूँ कि देख पाऊँ उनमें जहालत की कौन सी नई ऊंचाइयां-नीचाइयां छुई जा रही हैं. लेकिन यह पत्र आपको निजी है, किसी ब्लॉग के वास्ते नहीं.
ग्रास की इस्राईल-विरोधी कविता के सन्दर्भ में आप शुरुआत में ही कहते हैं :
“एक ऐसे वक़्त में जब साहित्य और राजनीति की दूरी बढ़ती जा रही हो, जब कवि-लेखक लगातार सुविधापसंद खोल में सिमटता जा रहा हो…”
क्या आप अपना वह स्केल या टेप बताना चाहेंगे जिससे आप जिन्हें  भी “साहित्य” और “राजनीति” समझते और मानते हों उनके बीच की नजदीकी-दूरी नापते हैं? पिछले बार आपने ऐसी पैमाइश कब की थी? किस सुविधापसन्द खोल में सिमटता जा रहा है लेखक? असुविधा वरण करने वाले लेखकों के लिए आपने अब तक कितने टसुए बहाए हैं?
मेरे पास हिंदी की बीसियों पत्रिकाएँ और पुस्तकें हर महीने आती हैं. मुझे उनमें से 10 प्रतिशत में भी ऐसे अनेक सम्पादकीय, लेख, समीक्षाएं, कहानियाँ और कविताएँ खोजना मुश्किल होता है जिनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देश या वैश्विक राजनीति उपस्थित न हो. वामपंथी पत्रिकाएँ, जो कई  हैं, वे तो हर विभाग में शत-प्रतिशत राजनीतिक हैं. हिंदी में तीन ही लेखक संघ हैं- प्रगतिशील, जनवादी और जन-संस्कृति मंच – और तीनों के सैकड़ों सदस्य और सदस्याएं राजनीतिक हैं. कुछ प्रकाशन-गृह राजनीतिक हैं. कई साहित्यिक ब्लॉग राजनीतिक हैं.
वामपंथी साहित्यिक मुख्यधारा के साथ-साथ दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श की विस्तीर्ण  सशक्त धाराएं हैं और दोनों राजनीतिक हैं. उनमें सैकड़ों स्त्री-पुरुष लेखक सक्रिय हैं. सारे संसार के सर्जनात्मक साहित्य में आज भी राजनीति मौजूद है, अकेली हिंदी में सियासी सुरखाब के पर नहीं लगे हैं.
यदि मैं नाम गिनाने पर जाऊँगा तो कम-से-कम पचास श्रेष्ठ जीवित वरिष्ठ, अधेड़ और युवा कवियों और कथाकारों के नाम लेने पड़ेंगे जो राजनीति-चेतस  हैं. मुक्तिबोध, नागार्जुन,शमशेर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय आदि ने भी भाड़ नहीं झोंका है. कात्यायनी सरीखी निर्भीक राजनीतिक कवयित्री इस समय मुझे विश्व-कविता में दिखाई नहीं देती. आज हिंदी साहित्य दुनिया के जागरूकतम प्रतिबद्ध साहित्यों में उच्चस्थ है.
पिछले दिनों दूरदर्शन द्वारा आयोजित एक कवि-गोष्ठी में एक कवि ने कहा कि जो कविता मैं पढ़ने जा रहा हूँ उसे टेलीकास्ट नहीं किया जा सकेगा किन्तु मैं सामने बैठे श्रोताओं को उसे सुनाना चाहता हूँ. यही हुआ मध्य प्रदेश के एक कस्बे के आकाशवाणी एफ़.एम.स्टेशन द्वारा इसी तरह आयोजित एक कवि-सम्मेलन में, जब एक कवि ने आमंत्रित श्रोताओं को एक राजनीतिक कविता सुनाई तो केंद्र-प्रबंधक ने माइक पर आकर कहा कि हम राजनीति को प्रोत्साहित नहीं करते बल्कि उसकी निंदा करते हैं. यह गत तीन महीने की घटनाएँ हैं.
जब कोई जाहिल यह लिखता है कि काश हिंदी में कवि के पास प्रतिरोध की ग्रास-जैसी सटीक बेबाकी होती तो मैं मुक्तिबोध सहित उनके बाद हिंदी की सैकड़ों अंतर्राष्ट्रीय-राजनीतिक प्रतिवाद की कविताएँ दिखा सकता हूँ, आज के युवा कवियों की भी, जो ग्रास की इस कविता से कहीं बेहतर हैं. ग्रास की इस कविता का चर्चा इसलिए हुआ कि वह जर्मन है, नात्सी-विरोधी है और अब नोबेल-पुरस्कार विजेता भी. यदि वह अपनी किशोरावस्था में हिटलर की युवा-टुकड़ी में शामिल भी हुआ था तो यह उसी ने उद्घाटित किया था,किसी का स्कूप नहीं था और ज़ाहिर है उस भयानक ज़माने और माहौल में, जब नात्सी सैल्यूट न करने पर भी आपको न जाने कहाँ भेजा जा सकता था, 16-17 वर्ष के छोकरे से बहुत-ज्यादा राजनीतिक जागरूकता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी. स्वयं ग्रास की मां को अपने परिवार की रक्षा के लिए अपना शरीर बेचना पड़ा था, हिंदी के मतिमंदो.
मैं ग्रास के साथ वर्षों पहले दिल्ली में कविता पढ़ चुका हूँ. भारत-केन्द्रित उनके अत्यंत विवादास्पद यात्रा-वृत्तान्त Zunge Zeigen का मेरा हिंदी अनुवाद 1984 में राधाकृष्ण प्रकाशन से छप चुका है और शायद अभी-भी उपलब्ध होगा. आप जैसे लोग यदि उसे पढ़ेंगे तो आपको उन्हें और मुझे गालियाँ देते देर नहीं लगेगी. मैं तब उन्हें निजी तौर पर भी जानता था. निस्संदेह वे संसार के एक महानतम उपन्यासकार हैं. कवि भी वे महत्वपूर्ण हैं. बेहतरीन चित्रकार हैं और विश्व-स्तर की एचिंग करते हैं.
लेकिन वे और इस मामले में उनके आप सरीखे समर्थक इस्राईल की भर्त्सना करते समय यह क्यों भूल जाते हैं कि स्वयं ईरान में इस्लाम के नाम पर फाशिज्म है, वामपंथी विचारों और पार्टियों पर जानलेवा प्रतिबन्ध है, औरतों पर अकथनीय ज़ुल्म हो रहे हैं, लोगों को दरख्तों और खम्भों से लटका कर पाशविक मृत्युदंड दिया जाता है, सैकड़ों बुद्धिजीवी और कलाकार अपनी राजनीतिक आस्था के कारण जेल में बंद हैं और उनके साथ कभी-भी कुछ-भी हो सकता है?
मुझे मालूम है ग्रास ने कभी ईरान के इस नृशंस पक्ष पर कुछ नहीं लिखा है. आपने स्वयं जाना-लिखा हो तो बताइए.
संस्कृत के एक सुभाषित का अनुवाद कुछ इस तरह है: “उपदेशों से मूर्खों का प्रकोप शांत नहीं होता”. न हो. मूर्ख अपनी मूर्खता से बाज़ नहीं आते, हम अपनी मूर्खता से.
कृपया जो लिखें, यथासंभव एक पूरी जानकारी से लिखें. ब्लॉग पर दिमाग खराब कर देने वाले अहोरूपं-अहोध्वनिः उष्ट्र-गर्दभों की कमी नहीं. उनकी जमात हालाँकि अपनी भारी संख्या से सुरक्षा और भ्रातृत्व की एक भावना देती अवश्य है,पर संस्कृत की उस कथा में अंततः दोनों की पर्याप्त पिटाई हुई थी. यूं आप खुदमुख्तार हैं ही.
विष्णु खरे
———————————
नीचे प्रस्तुत है विष्णु खरे को भेजा मेरा जवाब.
विष्णु जी,
नमस्कार.
कल सुबह आपका पत्र पढ़ा. पहले तो समझ ही नहीं पाया कि आपको मुझे पत्र लिखने की ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी. कहां आप और कहां मैं, बोले तो क्याऐ पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा. फिर ये लगा कि यह पत्र \\\’निजी\\\’ क्यों है, चूंकि मैंने तो आज तक आपसे कभी कोई निजी संवाद नहीं किया, न ही मेरा आपसे कोई निजी पूर्व परिचय है. लिहाज़ा एक ही गुंजाइश बनती थी- वो यह, कि आपने हिंदी लेखकों-कवियों के एक प्रतिनिधि के तौर पर यह पत्र लिखा है. यही मान कर मैंने पूरा पत्र पढ़ डाला.
सच बताऊं तो पत्र पढ़कर मुझे सिर्फ हंसी आई. मैंने तीन बार पढ़ा और तीन बार हंसा. पिछली बार इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में देखा आपका घबराया हुआ चेहरा अचानक मेरी आंखों में घूम गया. मैंने सोचा कि एक कविता, जो अब वैश्विक हो चुकी है, उसके अनुवाद से जुड़ी मेरी एक सहज सार्वजनिक टिप्पएणी पर आप मुझे कोने में ले जाकर क्योंी गरिया रहे हैं. जाहिल, मतिमंद, ऊंट, गदहा जैसे विशेषणों में बात करने की मेरी आदत नहीं, जो आपने मेरे लिए लिखे हैं. मैं अपने छोटों से भी ऐसे बात नहीं करता, जबकि आप मुझे दोगुने से ज्या दा बड़े हैं और आपकी कविताएं पढ़ते हुए हमारी पीढ़ी बड़ी हुई है. ये सवाल अब भी बना हुआ है कि एक सार्वजनिक टिप्पाणी पर लिखे गए निजी पत्र को किस रूप में लिया जाए.
बहरहाल, आपने पत्र में मुझसे कुछ सवाल किए हैं. अव्वपल तो मैं आपके प्रति जवाबदेह हूं नहीं, दूजे हिंदी लेखकों के \\\’राजनीति-चेतस\\\’ होने के बारे में आपकी टिप्पीणी इतनी बचकानी है कि मैं आपको अपने पैमाने बता भी दूं तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. आपकी ही दलील को \\\’एक्सआट्रापोलेट\\\’ करूं तो इस देश की 121 करोड़ जनता राजनीति-चेतस दिखने लगेगी क्योंमकि 55-60 फीसदी जनता मतदान करते ही राजनीतिक हो जाती है और जो मतदान नहीं करते, वे भी किसी राजनीतिक सोच के चलते ही मतदान नहीं करते. अगर राजनीतिक होने का अर्थ इतना ही है तो मुझे सबसे पहले आपसे पूछना होगा कि आप राजनीति-चेतस होने से क्याा समझते हैं. मैं लेकिन यह सवाल नहीं करूंगा क्योंिकि मैंने आपकी तरह खुद को सवाल पूछने वाली कोई \\\’निजी अथॉरिटी\\\’ नहीं दे रखी है.
क्या  आपको याद है अपनी टिप्पंणी जो आपने विभूति नारायण राय वाले विवाद के संदर्भ में की थी, \\\’\\\’… दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिन्दी भाषी समाज यानी तथाकथित हिन्दी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है….\\\’\\\’ फिर आप किस \\\’राजनीति-चेतस\\\’ सैकड़ों कवियों की अब बात कर रहे हैं जो ग्रास से बेहतर कविताएं हिंदी में लिख रहे हैं? ये कौन सा प्रलेस, जलेस और जसम है जिनके सैकड़ों सदस्य  राजनीतिक हैं? भारतभूषण अग्रवाल पुरस्काीर के संदर्भ में अपनी कही बात आप भूल गए क्याव? बस एक \\\’निजी\\\’ सवाल का जवाब दे दीजिए… आप मुंह के अलावा कहीं और से भी बोलते हैं क्यार?
आवेश के लिए खेद, लेकिन क्याा आप मुझे बता सकते हैं कि पिछले दिनों के दौरान कुडनकुलम संघर्ष, जैतापुर संघर्ष, बहुराष्ट्री य कंपनियों के पैसों से बने अय्याशी के ठौर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, पत्रकार अहमद काज़मी और सुधीर धावले जैसों की गिरफ्तारी, पत्रकार हेम पांडे की फ़र्जी मुठभेड़ में हत्या, आफ्सपा और यूएपीए या फिर ऑक्युतपाई वॉल स्ट्रीट और अन्ना हज़ारे मार्का वीकेंड दक्षिणपंथी उभार जैसे किसी भी विषय पर हिंदी के किस कवि-लेखक ने कितना और क्या -क्या लिखा है? आप तो बीसियों \\\’राजनीति-चेतस\\\’ पत्रिकाएं पढ़ते हैं? \\\’समयांतर\\\’  \\\’फिलहाल\\\’ और \\\’समकालीन तीसरी दुनिया\\\’ जैसी लिटिल मैगज़ीन के अलावा कोई साहित्यिक पत्रिका इन ज्वलंत विषयों पर विमर्श करती है क्या?
आप रेडियो स्टेशन पर किसी कवि द्वारा श्रोताओं को राजनीतिक कविता सुनाने की बात बताते हैं और केंद्र प्रबंधक के दुराग्रह का जि़क्र करते हैं. यदि मैं आपको बताऊं कि आप ही के राजनीतिक बिरादर मंगलेश जी ने बतौर संपादक आज से छह साल पहले सहारा समय पत्रिका में कुछ ब्राज़ीली कविताओं का अनुवाद छापने से इनकार कर दिया था, तो क्या कहेंगे आप? रेडियो केंद्र प्रबंधक तो बेचारा सरकारी कर्मचारी है जो अपनी नौकरी बजा रहा है. यदि मैं आपको बताऊं कि दंतेवाड़ा और आदिवासियों पर कुछ कविताएं लिख चुके इकलौते मदन कश्यप मेरी और मेरे जैसों की कविताएं बरसों से दबा कर बैठे हैं, तो आप क्या कहेंगे?सरजी, दिक्कत सरकारी कर्मचारियों से उतनी नहीं जितनी खुद को मार्क्सेवादी, वामपंथी आदि कहने वाले लेखकों की हिपोक्रिसी से है.
अब आइए कुछ राजनीतिक बातों पर. आपको शिकायत है कि इज़रायल की भर्त्सना करते वक्त मैं ईरान का फाशिज़्म भूल जाता हूं. ये आपसे किसने कहा? आप अगर वामपंथी हैं, मार्क्सवादी हैं, तो गांधीजी की लाठी से सबको नहीं हांकेंगे, इतनी उम्मीद की जानी चाहिए. हमारे यहां एक कहावत है, \\\’\\\’हंसुआ के बियाह में खुरपी के गीत\\\’\\\’. यहां अमेरिका और इज़रायल मिल कर ईरान को खत्म करने की योजना बनाए बैठे हैं, उधर आपको ईरान के फाशिज़्रम की पड़ी है. ईरान को अलग से, वो भी इस वक्ता चिह्नित कर आप ऐतिहासिक भूल कर रहे होंगे. आपको समझना होगा कि आपकी गांधीवादी लाठी इज़रायल समर्थित अमेरिकी साम्राज्यवाद को ईरान पर हमले की लेजिटिमेसी से नवाज़ रही है. कहां नहीं सैकड़ों बुद्धिजीवी और कलाकार अपनी राजनीतिक आस्था के कारण जेल में बंद हैं? आपने कभी जानने की कोशिश की भारत में ऐसे कितने लोग जेलों में बंद हैं? स्टेट हमेशा फाशिस्ट होता है, लेकिन आप यदि राजनीति-चेतस हैं तो यह समझ सकेंगे कि कब, किसका फाशिज़्म प्राथमिक है. ये राजनीति है, कविता नहीं.
पढ़ी होगी आपने गुंटर ग्रास के साथ कविता, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है. फर्क इससे पड़ता है कि आप किस वक्त कौन सी बात कह रहे हैं. और फिलहाल यदि गुंटर ग्रास इजरायल को दुनिया के अमन-चैन का दुश्मन बता रहे हैं तो वे वही कर रहे हैं जो ऐतिहासिक रूप से ज़रूरी और सही है. आप सोचिए, मार्क्स वाद का सबसे \\\’रेनेगेड\\\’ तत्व भी आज की तारीख में इज़रायल का डिफेंस नहीं करेगा. आप किस वामपंथी धारा से आते हैं, बाई द वे? फिर से पूछ रहा हूं… मुंह के अलावा कहीं और से भी बोलते हैं क्या आप? पहली बार पर्सनली पूछा था, लेकिन इस बार ये सवाल पर्सनल नहीं है, क्योंकि ये आपकी राजनीति से जुड़ा है.
विष्णु  जी, आप समकालीन हिंदी लेखकों की अराजनीतिकता और निष्क्रियता की आड़ मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय को नहीं बना सकते. और ये भी याद रखिए कि आप खुद अब समकालीनता की सूची में नहीं रहे. मुझे मत गिनवाइए कि कौन राजनीतिक था और कौन नहीं. जो मेरे होश में आने से पहले चले गए, उनका लिखा ही प्रमाण है मेरे लिए. कात्यायनी को आप विश्व कविता में देखना चाहते हैं, मैंने उनके साथ लखनऊ की सड़क पर नारे लगाए हैं चार साल. अब तक जिनसे भी नाटकीय साक्षात्कार हुआ है, सबकी पूंछ उठा कर देखी है मैंने. अफसोस कि अधिकतर मादा ही निकले. एक बार दिवंगत कुबेर दत्ता ने भी ऐसे ही निजी फोन कॉल कर के मुझे हड़काया था. \\\’निजी\\\’ चिट्ठी या फोन आदि बहुत पुरानी पॉलिटिक्स का हिस्सा है, जो अब \\\’ऑब्सॉलीट\\\’ हो चुका है.
आपको बुरी लगने वाली मेरी टिप्पणी सार्वजनिक विषय पर थी. उसके सही मानने के पर्याप्त सबूत भी मैंने आपको अब गिना दिए हैं. चूंकि आपने आग्रह किया था, इसलिए आपके पत्र का जवाब निजी तौर पर ही दे रहा हूं और अब तक मैंने आपका पत्र सार्वजनिक नहीं किया है, लेकिन आपकी पॉलिटिक्स को देखते हुए मुझे लगता है कि बात विषय पर हो और सबके सामने हो तो बेहतर है. जिस अथॉरिटी से आपने चिट्ठी लिखी है, उस लिहाज़ से अनुमति ही मांगूंगा कि अपनी चिट्ठी मुझे सार्वजनिक करने का सौभाग्य दें. ज़रा हिंदी के पाठक भी तो जान सकें कि हिंदी का समकालीन प्रतिनिधि लेखक अपनी दुनिया के बारे में क्या सोचता-समझता है.
बाकी हमारा क्या है सरजी, एक ही लाइन आज तक कायदे से समझ में आई है, \\\’\\\’तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब, पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार…\\\’\\\’. अगर आपको लगता है कि गुंटर ग्रास पर आपका कॉपीराइट है, तो मुबारक. हमको तो राइट से सख्त नफरत है. आपने एक बार लिखा था,\\\’\\\’दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुडकूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है.\\\’\\\’ (याद है न!) कहने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि हम लोग पूर्वांचल के हैं, टट्टी की ओट नहीं खेलते. अब तो दिक्कत ये है कि हमें कोई छाप भी नहीं रहा. एक इंटरनेट ही है जहां अपने आदर्शों के बनाए मठों और गढ़ों को चुनौती दे सकते हैं हम. हम वही कर भी रहे हैं. अपने आदर्श लेखक-कवियों से हमें असुरक्षा पैदा हो गई है अब, साहित्य के सारे विष्णु अब असहिष्णु होते जा रहे हैं. इसीलिए हम वर्चुअल स्पेस में \\\’सुरक्षा\\\’ ढूंढ रहे हैं (ठीक ही कहते हैं आप). अब आप किसी भी वजह से हिंदी के ब्लॉग पढ़ते हों, ये आपका अपना चुनाव है. डॉक्टर ने कभी नहीं कहा आपसे कि \\\’जाहिलों\\\’ के यहां जाइए.
और \\\’जाहिलों\\\’ को, खासकर \\\’पूर्वांचली हुडकूलल्लुओं\\\’ को न तो आप डिक्टेुट कर सकते हैं, न ही उनकी गारंटी ले सकते हैं, मिसगाइडेड मिसाइल की तरह. इसीलिए कह रहा हूं, अपनी चिट्ठी सार्वजनिक करने की अनुमति दें, प्रभो. चिंता मत कीजिए, मेरी चिट्ठी आपके इनबॉक्सक के अलावा कहीं नहीं जाएगी. मैं चाहता हूं कि आपकी चिट्ठी पर हिंदी के लोग बात कर सकें, सब बड़े व्यांकुल हैं कल से.
अभिषेक श्रीवास्तव

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