(परश राम बंजारा लंबे समय से राजस्थान में बंजारा समाज के लोगों के बीच उनके अधिकारों और समस्याओं को लेकर काम कर रहे हैं.
राजस्थान की इस घुमंतु जाति पर उनका काफी अच्छा अध्ययन है और उन्होंने इसपर काफी सामग्री भी जुटाई है. बंजारा समाज को समझाने के लिए एक लेख, जो कि इस समाज के कई पहलुओं पर प्रकाश डालता है, यहां प्रेषित किया जा रहा है.- प्रतिरोध)
‘टुकसिर्यो हवा को छोड़ मिया, मत देस-विदेश फिरे मारा.
का जाक अजल का लूटे है, दिन-रात बजाकर नक्कारा.
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग धुआं और अंगारा.
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बनजारा.’
सफर अथवा यात्रा प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग है. पर कोई जाति यदि सफर की पर्याय ही बन जाए तो यह अनूठी मिसाल है. यह कौम है बंजारा. बंजारा जिनका न कोई ठौर-ठिकाना, न घर-द्वार और न किसी स्थान विशेष से लगाव, यायावरों सी जिंदगी जीते हुए आज यहां ठहर गए और कल का पता नहीं कि पूरा कुनबा कहां पड़ाव डाले? वे सदियों से देश के दूर-दराज इलाकों में निर्भयतापूर्वक यात्राएं करते रहे हैं. एक समय था जब बंजारे देश के अधिकांश भागों में परिवहन, वितरण, वाणिज्य, पशुपालन और दस्तकारी से अपना जीवनयापन करते थे. अकाल के बुरे दिनों में इनके मार्ग में पड़ने वाले गांव के लोग बड़ी उत्सुकता से इनकी प्रतीक्षा करते थे.
हिंदी की बोलियों में न जाने कब बंजारा शब्द सफर का प्रतीक बन गया. यह शब्द व्यक्ति वाचक संज्ञा तो है ही इसके अतिरिक्त निःस्पृह, निरपेक्ष और परिवाज्रक मन का भी परिचायक है. बंजारा पथ पर अंकित अपने पदचिन्हों को मिटाता चलता है. उसे न तो भविष्य गुदगुदाता है, न ही आतंकित करता है. ऐसा मन जो आसक्ति से रिक्त किंतु साहसिक-स्पंदनों से परिपूर्ण रहता है. जो व्यक्ति किसी बंधन में जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मरण का वरण करता है, जिसे विश्राम और आश्रम दोनों से अरुचि है, जो यात्रा को ही मंजिल मानता है. दीयाबाती के समय कहीं रूकना भी पड़े तो पांवों में घुंघरू बंध जाते है. वह रात-रात भर ढप्प पर थिरकता रहता है. जब घना जंगल दर्द से पुकारता है तो बंजारे के गले से निकला गीत वातावरण को मिठास से सरोबार कर देता है.
ग्रियसन ने बंजारा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के वाणिज्यकार अर्थात् व्यापार करने वाला तथा प्राकृत के वाणिज्य आरो से सिद्ध करने का प्रयास किया है. राजस्थानी में वाणिज्य का तद्भव रूप बिणज प्रचलित है. वणिजना, बणिजना और बिणजना का तात्पर्य है- व्यापार करना. मराठी में भी बंजारा शब्द चलते-फिरते व्यापारी के लिए प्रयुक्त हुआ है.
बंजारों का इतिहास देखा जाए तो यह कौम निडर, निर्भीक, साहसिक, लडाकू और जुझारू रही है. उसने अपने आप को अन्य समुदाय से अलग रखा है. बंजारा राजस्थान का ऐसा घुमंतु समुदाय है जो अन्य क्षेत्रों में भी पहुंचकर अपनी परंपरा को बहुत कुछ सुरक्षित रखे हुए हैं. भारत में बंजारा और यूरोप में ‘‘जिप्सी’’ अथवा ‘‘रोमा’’ नाम से प्रसिद्ध इस जन समुदाय की भाषा से पश्चिमी राजस्थान के उन क्षेत्रों को खोजा जा सकता है, जहां से ये लोग देश-विदेश में गए. देश की आदिम जनजातियों में बंजारा समुदाय तीन कारणों से उल्लेखनीय है-
1. उन्होंने किसी स्थान की सीमा को स्वीकार नहीं किया,
2. उसमें गैर बंजारा समुदाय भी शामिल होता रहा,
3. स्वयं सदैव सफर में रहकर देश में स्थायी रूप से बसने वाले लोगों के विकास में योगदान दिया.
बंजारों ने प्राचीन भारत में यातायात, वस्तु-विनिमय, परिवहन और विपणन व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इन्होंने व्यापार के जरिए देश को विभिन्न भागों से जोड़ा है.
संपूर्ण भारत में बंजारा समाज की कई उपजातियां है, जिनमें राजस्थान में बामणिया, लबाना, मारू भाट और गवारियां उपजाति विद्यमान है. जनसंख्या के लिहाज से बहुलता में बामणिया बंजारा समुदाय है.
यह समुदाय सदैव उत्पीड़न का शिकार होता रहा है चाहे सामंतशाही व्यवस्था से या आजादी से पूर्व अंग्रेजों से या फिर वर्तमान में सरकारी नीति से या तथाकथित हिंदुत्ववादी संगठनों से. आजादी की लड़ाई में बंजारा समुदाय का विशेष योगदान रहा. कई लोग अनाम उत्सर्ग कर शहीद हो गए, लेकिन उन्हें गुमनामी में रखा गया. इस प्रकार बंजारा समुदाय के छद्म युद्ध से परेशान होकर प्रतिक्रिया स्वरूप अंग्रेजों ने इन्हें परेशान करने हेतु दमनात्मक कार्यवाही की युक्ति निकाली और सन् 1871 में अंग्रेजों ने ‘‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’’ पारित किया.
इस अधिनियम की आड़ में बंजारों को पकड़ा जाने लगा, इन पर विभिन्न धाराओं में आपराधिक मुकदमे दर्ज किए जाने लगे और सिर्फ इतना ही नहीं इनको जन्मजात अपराधी घोषित करने लगे. इतना होने पर भी बंजारा समुदाय की गतिविधियां पूर्ववत चलती रही, अंततः अंग्रेजों ने बंजारा समुदाय को आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए उनका व्यवसाय छीन कर बेरोजगार करने का षड्यंत्र रचा. इसके तहत अंग्रेजों ने 31 दिसंबर 1859 को नमक, जो कि इनका पैतृक व्यवसाय था, पर ‘नमक कर विधेयक’ लाकर प्रतिबंधित कर दिया. बंजारा समुदाय ने इसका विरोध प्रदर्शन किया. गांधी के साथ 1930 में दांडी मार्च भी किया. इस तरह देशभर में तो 1930-32 में नमक सत्याग्रह फैल गया मगर नमक के व्यापारी बंजारों की आर्थिक दृष्टि से कमर टूट गई. अंततः हार कर उन्हें अपना पैतृक व्यवसाय बदलना पड़ा.
नमक को ये बैलों पर लादकर परिवहन करते थे, अंग्रेजों के दुष्चक्र के चलते नमक के व्यापार से तो इनका संबंध छूट गया मगर बैलों से नाता जुड़ा रहा और इन्होंने कृषि योग्य बैलों के क्रय-विक्रय का व्यापार शुरू किया जो लगभग एक शताब्दी तक चला मगर मगर सन् 1990 में हुए धार्मिक कट्टरवाद के पुनर्जागरण के चलते कुछ हिंदुत्ववादी संगठनों ने इनके व्यवसाय को छीनने की रणनीति के तहत राजस्थान की भाजपा सरकार द्वारा 25 अगस्त 1995 में ‘राजस्थान गोवंशीय पशुवध का प्रतिषेध और अस्थायी प्रवृजन या निर्यात का विनिमय अधिनियम 1995’ पारित किया. इस अधिनियम की आड़ में पुलिस की मिलीभगत कर कथित हिंदुत्ववादी संगठन संघ, विहिप, बजरंग दल, शिवसेना, शिवदल मेवाड़ आदि मिलकर विभिन्न पशु मेलों से आ रही गाडि़यां की तलाशी करते वक्त पशु मालिक बंजारे स्त्री, पुरुष, बच्चे के साथ मारपीट करते है उनसे रुपए छीन लेते है तथा उक्त अधिनियम की विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज करवा, बैलों को इन्हीं कथित संगठनों द्वारा संचालित गौशालाओं को सुपुर्द कर दिया जाता है. कोर्ट-कचहरी के चक्कर, वकीलों की फीस आदि के उपरांत किसी तरह बैल सुपुर्दगी अगर हो भी जाती है तो भी गौशालाओं के मुखिया दान के नाम पर बाध्य कर बैलों की कीमत वसूल करने जितनी रकम की मांग करते है. इससे परेशान हो कई बैल मालिक बंजारे बैलों को छोड़ ही देते है तथा ये मुकदमे 7-8 वर्ष तक चलते रहते है, जिससे पीडि़त बंजारा समुदाय के लोगों को सामाजिक, शारीरिक, मानसिक व आर्थिक क्षति की पीड़ा को झेलना पड़ता है. इन्हीं सबके परिणामस्वरूप आज बंजारा समुदाय के महिला-पुरुषों को गली-गली में गोंद, कंबल और चारपाई बेचने व शहरों में पलायन होने को मजबूर होना पड़ रहा है. जहां इन्हें पूरी मजदूरी नहीं मिलती, महिलाओं का यौन शोषण, बाल श्रम व ठेकेदारों की यातनाओं का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में देश में बढ़ते औद्योगिकीकरण, नगरीकरण और वैश्वीकरण जैसी अवधारणाओं ने भी आग में घी का काम किया, इससे समुदाय के अस्तित्व को खतरा महसूस होने लगा है.
इस तरह सांभर झील से मालवा का सफर करने वाले और पशुओं से अनन्य प्रेम करने वाले मतवाले बंजारों के रीति-रिवाज भी कम आकर्षक नहीं हैं. पूरा बामणियां बंजारा समुदाय बारह गोत्रों में विभाजित है. इन गोत्रों में गरासिया और गौड़ गौत्र को समाज में ठकुराई का पद प्राप्त है. जाति पंचायत में इनकी अध्यक्षता में ही किसी विवाद का निपटारा होता है. प्रत्येक टांडे का एक नायक मुखिया होता है.
बंजारा पुरुष सिर पर पगड़ी बांधता है, तन पर कमीज या झब्बा पहनता है, धोती बांधता है, हाथ में नारमुखी कड़ा, कानों में मुरकिया व झेले पहनता है और हाथ में लाठी रखता हैं बंजारा नारी की वेशभूषा का आकर्षक बिंदु है उसकी केश सज्जा. ललाट पर बालों की फलियां गुंथ कर उन्हें धागों से चोटी से बांध दिया जाता है. इन फलियों पर चांदी के पान-तोडे और बोर ;शिरो-आभूषण बांधे जाते है. ठीक शिखा स्थल पर रखड़ी बांधी जाती है. गले में सुहाग का प्रतीक दोहड़ा पहना जाता है. हाथों में चूड़ा नाक में नथ, कान में चांदी के ओगन्या, गले में खंगाला, पैरों में कडि़या, नेबरियां, लंगड, अंगुलियों में बिछीया, अंगूठे में गुछला, कमर पर करधनी या कंदौरा, हाथों में बाजूबंद, ड़ोडि़या, हाथ-पान व अंगुठिया पहनती है. प्रौढ़ महिलाएं घाघरा तथा युवतियां लहंगा पहनती है व लुगड़ी ओढनी ओढती है. बुढ़ी महिलाएं कांचली तथा नवयुवतियां चैली-ब्लाउज पहनती है तथा कुंवारी लड़कियां बुशर्ट पहनती है.
विवाह पारंपरिक तरीके से पारंपरिक वेशभूषा में होता है. बामणिया बनजारा का सांस्कृतिक पक्ष उसके परंपरागत तीज-त्योहार से संबंध है. वे मुख्यतः गणगौर, राखी, दशहरा, दीपावली, गोवर्धन पूजा, होली आदि मनाते हैं.
लोकगीत व लोकनृत्य बंजारों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है. महिलाएं आणा गीत, विवाह गीत, फाल्गुन गीत गाती है और पाई नृत्य, खड़ी पाई नृत्य, गुजरड़ी नृत्य एवं हमचीड़ो खेलती है. पुरुष शादी, आणा व सगाई के अवसर पर नगाड़े की ताल पर पंवाड़ा नृत्य, पाई नृत्य, शशी मारना आखेटाभिनय आदि करते हैं तथा रात्रि में यदा-कदा किसी स्थान पर बैठकर समवेत स्वर में लोकगाथाएं गाते हैं. हूंजू, ढोलामारू, सालंगा, पांडू की पाखडी, पानू-ठाकर, रूपा नायक, रामापीर, अमरासती व सरवरसिंग आदि लोक गाथाएं गाते हैं.
बामणिया बनजारा हिंदू धर्मावलंबी है. श्री रूपा नायक इनके आराध्यदेव है जो कि मूलतः गरासिया गौत्र में जन्मे थे. इसके अतिरिक्त रामदेवजी को मानते है व अलग-अलग गौत्रों की सती माताएं होती है. बंजारों ने गोविंद गुरू जैसा व्यक्तित्व समाज को दिया जिन्होंने आदिवासियों को संगठित कर शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई और भगत-पंथ की स्थापना की, जिसके आज भी हजारों अनुयायी है.
जिस तरह बंजारा यात्रा का पर्याय और व्यवसाय का परिचायक बना और वाह्य जगत को सदैव प्रगतिशील सोच के साथ आगे बढ़ने का संकेत दिया, उसी तरह आंतरिक यात्रा कर आध्यात्मिक जगत में अलौकिक अनुभूतियां अनुभूत करने की ओर भी इशारा किया है. कबीर ने समग्र विश्व को सीमा रहित माना है और उसमें बनजारा निर्भय होकर ज्ञान रूपी बिणज करता है-
‘‘साधो भाई बिणज करे बिणजारा.
उत्तर दखन और पूरब पश्चिम, चारो खूंट विसतारा.’’
गुरू नानक ने बनजारा को साधक मानकर कहा कि –
‘‘वणजु करहु वणजारि हो, वर वरू लेहु सामिलि.
तेसी वसतु विसाहीये, जैसी निबिहै नालि.’’
कबीर ने बनजारा को गुरू की उपमा से अलंकृत करते हुए कहा है कि-
‘‘साधो भाई सतगुरू आया बिणजारा.
आयौ औसर भूल मत भौंदू, मिले न बारम्बारा..’’
आध्यात्मिकता, प्रगतिशीलता, निरंतरता जैसी आशावादी सोच को देने वाले बंजारों की आज भी खोज जारी है- अपनी अस्मिता की, अपने अस्तित्व की, अपनी पहचान की, न्याय की, सम्मान की, समानता की, आजीविका की तो कहीं ऊंचे आध्यात्मिक मूल्यों के जरिए अंर्तमन की अंतहीन यात्रा भी जारी है…..