उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम आपके सामने है. जो हार गए, खाल खुजा रहे हैं कि ये होता तो ऐसा होता… जो जीत गए हैं, नई खाल में नज़र आ रहे हैं. जीते हुए. ताज़े. नए-नए. सबकुछ नया. सपने, वादे, अंदाज़, तेवर. गरम मसाले की महक की तरह फैले जा रहे हैं. टीवी से लेकर बाकी भी संचार माध्यमों तक तस्वीर वैसी ही है. वैसे ही लड्डू के डिब्बे, गुलाल लगे चेहरे, जीत की भाप में भीगकर चमक उठी देहें या फिर वीरान पड़े दफ्तर, कुड़े के ढेर में पड़ा कोई झँडा, उदास बैठा कार्यकर्ता, फटकर लटकता बैनर… ऐसी बेशुमार, बेमज़ा हो चले दोहराव वाले रचनात्मक बोध से रंगा हुआ है चुनाव. परिणाम होली के हुड़दंग में भांग की तरह चढ़ा हुआ नज़र आ रहा है. उतरेगा, हैंगओवर हटेगा तो सच सामने आ जाएगा.
नया जनादेश लेकर सत्ता की कुर्सी पर नई सरकार बैठेगी. अखिलेश एक बड़ी जीत हैं और उनकी एक लंबी पारी का यह महानाद है. मायावती के लिए अपने बाकी बचे वर्षों की राजनीति को संभालने के लिए खुद से बाहर निकलने का संकेत है यह चुनाव क्योंकि जिस तरह की राजनीति वो कर रही हैं उसे बहुजन-दलित की राजनीति को मज़बूत करने वाली राजनीति कतई नहीं कहा जा सकता. मायावती ने जिस तरह से अपनी पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेताओं को साफ किया है, जिस तरह से संसाधनों की लूट में बाकियों की तरह ही शामिल रही हैं, जिस तरह से पैसा उनको सत्ता का सबसे प्रमुख और अहम मकसद दिखा है, उससे किसी स्थायी राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक बदलाव की ओर कतई नहीं बढ़ा जा सकता. पर सवाल यह है कि जो चुने गए हैं उनमें खास क्या है. बेहतर क्या मिलने वाला है. जनता का वोट इसबार लोकोपयोगी और जनपक्षीय कैसे साबित होगा. क्या बदलने जा रहा है और क्या उखड़ने जा रहा है. समाजवाद की साइकिल किस सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन की ओर सूबे को लेकर आगे बढ़ेगी और किन धूर्तों, घाघों, पूंजीवादियों को रोकेगी.
जीते चाहे जो भी, हर चुनाव जनता की हार का ही परिचायक है. पांचों राज्यों की कहानी इससे इतर नहीं. उत्तर प्रदेश का समाजवाद क्या संसाधनों की लूट को रोक देगा. हाउसिंग सोसाइटी और रियल स्टेट कंपनियां क्या समाजवादी पार्टी की सत्ता में घुसपैठ नहीं कर जाएंगी और क्या किसानों, मजदूरों से उनकी ज़मीन जबरन छीनने हथियाने का काम रुक जाएगा. समाजवाद के जिस नारे ने इस पार्टी को पैदा किया, क्या उसका पसंगा भर भी सरकार के कामकाज और तरीके में परिलक्षित होगा. संसाधनों से लेकर अवसरों तक, सरकारी कामकाज से लेकर ठेकेदारी और अनाज, रोटी, पानी, फसल तक एक वर्ग का वर्चस्व है. क्या उस वर्चस्व से सरकार लोगों को निजात दिला पाएगी. हम कैसे मान लें कि परमाणु करार पर मनमोहन सिंह के भगीरथ रहे लोग जनपक्षों की अवहेलना नहीं करेंगे.
राज्य में बिजली का संकट सबसे गहरा है. सड़कों की दुर्दशा एक सवाल है. भूख और सूखा बुंदेलों को आत्महत्याओं तक ले जा रहा है. बाढ़ और महामारियां पूर्वांचल को छोड़कर राजी नहीं हैं. बेरोज़गार युवा, समर्थन मूल्य के लिए रोता किसान, भ्रष्ट पुलिस, लुटेरे नौकरशाह और अभावों में दम तोड़ते मरीज़ क्या सत्ता की कुर्सी को अपनी प्राथमिकता दिखेंगे.
मैं चुनाव परिणामों की ओर देखता हूं. पिछले सरकारों के कामकाज को याद करता हूं और पाता हूं कि कुछ भी तो नहीं बदला. झंडे और रंगों के सिवाय. सत्ता के गलियारों से अंतिम व्यक्ति तक तस्वीर जस की तस. हालात जस के तस. उम्मीद करने को जी करता है पर ठगे जाने और धोखा खाने की और हिम्मत नहीं जुटा पाता. पैर पीछे हट जाते हैं. बेचैनी वैसी ही बनी रहती है. दया आती है मतदाता पर जो अगले चुनाव में फिर किसी को चुनेगा.
एक किस्सा याद आता है. एक राजा ने एक व्यक्ति को सौ जूते मारे जाने की सज़ा सुनाई. उस आदमी ने फरियाद की कि सज़ा में कुछ तो रियायत हो. विकल्प दिया गया कि या तो सौ जूते खाओ और या फिर सौ प्याज. उस व्यक्ति ने प्याज खाना ज़्यादा आसान समझा. 15-20 प्याज़ खाकर ही उसकी हालत खराब हो गई. कहा, जूते ही मार लो. 15-20 जूतों में ही सिर घूमने लगा. तारे नज़र आने लगे. उसने फिर कहा, इससे तो प्याज़ ही ठीक थे. प्याज़ और जूते की इस पीड़ा में एक से छुटकारा पाने और दूसरे को सुग्राह्य समझने में उलझे इस व्यक्ति ने सज़ा के अंत तक 100 जूते भी खा लिए थे और 100 प्याज भी.
उत्तर प्रदेश के और देश के मतदाता की स्थिति इससे कतई भिन्न नहीं है. मुख्यधारा की राजनीति में जब केवल नाम और प्रतीकों का फर्क हो, तरीके, मकसद और निहितार्थ एक जैस हों तो इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि कौन जीता है और कौन हारा है. हताशा सौ जूते भी खिलाती है और सौ प्याज़ भी.