बेनकाब हुआ गुजरात शाइनिंग का झूठा प्रचार

इस विकास की कथा को लेकर कहां जाएं और किसे बताएं कि हम मानव संसाधनों के प्रति मानवीय हैं. कैसे इस कहानी को झूठा साबित करें कि सीमित की जेब का वज़न बहुमत के खून को बेंचकर बढ़ाया गया है. भारत के योजना आयोग की मानव विकास रिपोर्ट का पन्ना पन्ना इसी कहानी को कहता नज़र आता है.

तेज़ी से विकसित हो रहा देश, विकास के तरणताल में 9 प्रतिशत की विकास दर लेकर कलाबाज़ियां खाता देश और दूसरी ओर कुपोषण और भुखमरी हमारी नंगी हक़ीकत पर हंस रहे हैं.
आठ बरस में 21 फ़ीसदी की प्रगति मानव विकास सूचकांक ने दर्ज की है पर कुपोषण की काली कथा सारे विकास के सच को कठघरे में ला खड़ा करती है.
और एक रक्तरंजित चेहरे वाले हिंदू दृदय सम्राट में जो लोग भविष्य का प्रधानमंत्री देखने के दिवास्वप्न के आदी हो चले हैं, उनको बता दें कि कुपोषण की यह काली छाया सबसे ज़्यादा गुजरात से सिर उठाती नज़र आ रही है.
रिपोर्ट में उल्लिखित है कि गुजरात की प्रति व्यक्ति आय ज़्यादा होने के बावजूद भूख और कुपोषण यहां सबसे अधिक है. उसमें भी अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाएं सबसे ज़्यादा कुपोषण की शिकार हैं.
अब इसे किस समेकित विकास की बानगी मानें. अफसोस होता है उन लोगों की दैनिक बयानबाज़ियों पर जो गुजरात के विकास का उदाहरण देश और दुनिया में गाते नहीं अघाते. राज्य का औद्योगिक विकास तो हुआ है पर कुपोषण और भूख यहाँ सबसे ज़्यादा है… पूर्वोत्तर के राज्य असम से भी ज़्यादा.
इतना ही नहीं, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और असम जैसे राज्यों को उस श्रेणी में रखा गया है जिनमें विकास की स्थिति खराब है. ये राज्य मानव विकास सूचकांक में राष्ट्रीय विकास औसत से भी नीचे हैं.
ग़ौरतलब है कि इनमें से कुछ राज्यों के विकास की पालकी को मीडिया के पन्नों पर परोसकर कुछ लोग दोबारा से इंडिया साइनिंग की कहानी कहने की कोशिश पिछले कुछ अरसे से लगातार करते आ रहे हैं.
मानव विकास रिपोर्टः अहम बातें
योजना आयोग से जुड़े संस्थान, इंस्टीट्यूट फॉर अप्लाइड मैनपावर रिसर्च द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में वर्ष 1999-2000 से 2007-2008 के दौरान उपभोग व्यय, शिक्षा और स्वास्थ्य संकेतकों का अध्ययन करने और मूल्यांकन करने का काम किया गया है.
मानव विकास रिपोर्ट 2011 में केरल को पहले स्थान पर रखा गया है जबकि दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, गोवा और पंजाब उसके बाद आने वाले राज्य हैं. रिपोर्ट के मुताबिक इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय के साथ साथ स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रगति हुई है.
सबसे ज़्यादा चिंता बच्चों के कुपोषण की स्थिति को लेकर व्यक्त की गई है. बच्चों में पोषण के स्तर की स्थिति दयनीय और गंभीर है. उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य और उससे जुड़े शारीरिक-मानसिक विकास की चुनौती सबसे ज़्यादा चिंताजनक है.
सरकार की ओर से बच्चों के लिए खासतौर पर चलाए जा रहे कार्यक्रमों की भी कहानी सुधार के सुर निकालती नज़र नहीं आतीं. रिपोर्ट इसीलिए आईसीडीएस जैसी योजनाओं में सुधार और सुदृढ़ किए जाने की सिफारिश भी करती है.
इस रिपोर्ट में मानव विकास सूचकांक में दर्ज हुई बढ़ोतरी की सबसे बड़ी वजह शिक्षा सूचकांक में हुई 28.5 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी बताई जा रही है. लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जिस सुधार की उम्मीद थी, वो अभी भी कोसों दूर है और इसीलिए विकास सूचकांक घिसट घिसटकर आगे बढ़ रहा है.
विकास की कहानी को ज़बरदस्ती ज़िंदा रखने में लगी केंद्र सरकार और कुछ कथित, स्वनामधन्य राज्य सरकारें इस सच के आगे निहायत बौनी, नंगी और बेशर्म साबित हो रही हैं कि कुपोषण और भूख के मामले में हमने अफ्रीका के दयनीय देशों को भी पीछे छोड़ रखा है और दशकों से हम इस रिकॉर्ड पर कायम हैं. लगता ही नहीं कि सरकारें कुपोषण के अपने रिकॉर्ड को तोड़कर समेकित विकास की ओर बढ़ना चाहती हैं.
कुछ सकारात्मक भी
पर रिपोर्ट में कुछ बातें राहत देती हैं. हालांकि राहत के आंकड़े शुरुआती हैं और इनको और सुदृढ़ करने के लिए ईमानदार प्रयासों की ज़रूरत है.
ये राहत इस बात को लेकर है कि देश में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों की और उनके अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग अब धीरे-धीरे मानव विकास के राष्ट्रीय औसत के क़रीब पहुंच रहे हैं.
कुछ आर्थिक जानकार इस सुधार को अपनी ग़लत नीतियों के सत्यापन के तौर पर इस्तेमाल करने से नहीं चूकेंगे. मसलन, यह वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की देन बताया जा रहा है. यह आर्थिक नीतियों के कारण सुधर रहा है, ऐसा स्थापित करने के प्रयास किए जा रहे हैं.
पर सच ऐसा नहीं है. आर्थिक उदारीकरण से इन समुदायों का भला होता दिखता तो ऐसा न होता कि भूख और कुपोषण के सबसे ज़्यादा मामले भी इन समुदायों के लोगों के बीच होते या आर्थिक नीतियों के ज़मीनी सच को ही देखिए, सबसे ज़्यादा मार इन्हीं समुदायों को झेलनी पड़ी है.
इनकी स्थिति में सुधार की वजह इनकी राजनीतिक जागरूकता और लोकतांत्रिक ढांचे में अपने अधिकारों की जद्दोजहद के प्रति चेतना है. सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे ये वर्ग अपने जीवन स्तर में सुधार के लिए प्रयासरत हैं और संघर्षरत भी. यह सुधार इसी का संकेत हैं.
रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की ऊंची जाति के लोगों की भी जो स्वास्थ्यगत स्थितियां हैं, उनकी तुलना में दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु और केरल के अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग अधिक बेहतर स्थिति में हैं.
मानव विकास रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रति व्यक्ति आय में सुधार के कारण पिछले दशक में लोगों की क्रय क्षमता बढ़ी है. रिपोर्ट कहती है कि इसकी वजह से ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों के औसत में कमी आई है. पर जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के हिसाब से देखें तो गरीबी रेखा से नीचे जी रहे लोगों की तादाद बढ़ी ही है.
हालांकि गरीबी रेखा के मूल्यांकन का जो पैमाना और तरीका देश में इस्तेमाल होता है, उसकी स्थिति खुद इतनी अफसोसजनक और हास्यास्पद है कि गरीबी रेखा से संबंधित आंकड़ों को योजना आयोग की या सरकारी पैमानों की नज़र से देख पाना अव्यवहारिक और अतार्किक है.
रिपोर्ट यह भी बताती है कि बेरोज़गारी की दर में कमी आई है पर दुनिया के सबसे सख्त बाल मजदूरी निरोधक क़ानूनों के बावजूद यह अभी भी चुनौती की तरह सिर उठाए खड़ी है. बाल मजदूरी घटी तो है पर इसकी वजह बालिकाओं के शिक्षा स्तर में सुधार है, न कि क़ानून का कठोरता से और ईमानदारी से अनुपालन.
सरकारें जवाब दें
देश में अभी भी जन्म के दौरान मौत के सबसे ज़्यादा मामले देखने को मिल रहे हैं. स्वास्थ्य की स्थिति दयनीय है. देश में स्वास्थ्य व्यवस्था पर खर्च इतना कम है कि उसके दम पर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की गुंजाइश खोजना बेमानी है. इससे उलट सरकारें मैडिकल टूरिज़्म पर अपना ध्यान केंद्रित करने में लगी हैं.
सर्व शिक्षा अभियान चलाकर सरकार सबको साक्षर बनाने का सपना देख रही है पर यह भी सच है कि दुनिया की सर्वाधिक निरक्षर आबादी इसी देश में है. शिक्षा का अधिकार क़ानून होने के बावजूद आज भी 6 से 17 साल की आयु के बीच के 19 फ़ीसदी बच्चे स्कूलों से बाहर हैं.
महिलाओं और बच्चों में कुपोषण और खून की कमी जैसी बातों को सुनने का और आंखें मूंद लेने का आदी हो चला देश अभी भी इनकी सबसे बड़ी तादाद लेकर चल रहा है. भूख से मौतों का सिलसिला रुक नहीं रहा और बच्चे जन्म से लेकर पूर्ण विकसित होने तक की सभी आवश्यक आर्हताओं को अनजान सपनों में ही समझते चल रहे हैं.
पता नहीं, विकास का यह पहिया किस ओर और कितनी दूर जाएगा जिसमें लोग कहीं दूर ओझल हो चुके होंगे और सारथी धोड़ों को बेंचकर भाग खड़ा होगा.

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