17वीं लोकसभा के लिए 2019 का आम चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव साबित होने की संभावना है। इस बात पर जानकार लोगों के बीच लगभग आम सहमति है. पर राजकीय और अराजकीय, कुल मिलाकर कितना खर्च होगा इसका कोई निश्चित आकलन नहीं है। चुनाव पर जो खर्च होते हैं उनमे सिर्फ प्रत्याशियों और उनके दलों तथा समर्थकों के ही नहीं बल्कि तरह-तरह के राजकीय और विभिन्न पक्षों के ‘गैर-हिसाबी’ खर्च भी शामिल हैं , जिनका आम तौर पर कोई पारदर्शी लेखा-जोखा नहीं रखा जाता है। लोकसभा पर होने वाले खर्चों को केंद्र सरकार वहन करती है। अगर लोकसभा के साथ ही राज्यों के विधानसभा चुनाव होते हैं, तो केंद्र और राज्य दोनों बराबर रूप से चुनाव पर हुए खर्चों का वहन करते हैं। राजकीय चुनावी खर्चों में उंगुली पर लगने वाली स्याही से लेकर वोटिंग मशीन और हर बूथ पर तैनात कर्मचारियों का दैनिक भत्ता तक शामिल है। अराजकीय खर्च का विश्वसनीय आकलन नहीं है।
आधिकारिक तौर पर भारत में कोई प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में 50 से 70 लाख रूपये और विधानसभा चुनाव में 20 से 28 लाख रूपये तक खर्च कर सकता है। प्रत्याशी के खर्च में यह अंतर इस पर निर्भर है कि वह किस राज्य का है लेकिन यह वास्तविक खर्च से बहुत ही कम है। पिछले चुनाव में कुल राजकीय खर्च करीब पांच अरब डॉलर आंका गया जबकि 2009 में यह दो अरब डॉलर था।
वित्तीय खबरों के डिजिटल पोर्टल मनीकंट्रोलडॉटकॉम के हरीश पुप्पाला एवं राकेश शर्मा के एक अध्ययन के अनुसार केंद्र सरकार के बजट में इस वित्तीय वर्ष में निर्वाचन आयोग के लिए 2.62 अरब रूपये आवन्टित किये गए हैं। नई दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने मोटा अनुमान लगाया है कि इस बार के आम चुनाव पर अनुमानित करीब 60 हजार करोड़ रूपये खर्च होंगे। गौरतलब है कि 2015-16 में अमेरिकी राष्ट्रपति और वहां की संसद (कांग्रेस) के चुनाव पर अमेरिकी संघीय नियामकों के अनुसार 11.1 अरब डॉलर खर्च हुए थे।
इकोनॉमिक टाइम्स की 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2020 में भारतीय फिल्मों का घरेलू, समुद्रपारीय, प्रसारण राइट्स आदि का कुल कारोबार 3.7 अरब डॉलर रूपये होने का अनुमान है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस कारोबार का करीब आधा से ज्यादा खर्च 2019 के आम चुनाव पर हो रहा है। यह भी विश्लेषण सामने आया है कि जहां 2014 के चुनाव में सोशल मीडिया पर सिर्फ 250 करोड़ रूपये खर्च हुए थे 2019 में यह खर्च करीब 5 हजार करोड़ रूपये होने का अनुमान है। निर्वाचन आयोग के अनुमानों के मुताबिक़ 2014 के चुनाव में दो प्रमुख पार्टियों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने टीवी और अखबारों में विज्ञापन पर 1200 करोड़ रूपये खर्च किये थे। इन विज्ञापनों के स्लॉट का प्रबंध करने वाली कम्पनी जेनिथ इण्डिया के अनुसार 2019 में इस मद में 2600 करोड़ रूपये खर्च होने का आकलन है। फेसबुक कम्पनी की रिपोर्ट के अनुसार उसे फरवरी 2019 में भारत में चार करोड़ रूपये के चुनावी विज्ञापन मिले।
हिंदी दैनिक ‘अमर उजाला’ ने 7 मई को खबर दी कि 2019 के चुनाव पर जितना पैसा खर्च हुआ, उससे ज्यादा तो इस चुनाव में खड़े 60 सबसे ज्यादा रईस प्रत्याशियों की संपत्ति है जो 10 हजार 75 करोड़ रुपए है. अखबार के मुताबिक़ इस बार के लोकसभा चुनाव का खर्च 2014 के लोकसभा चुनाव से 40 फीसदी बढ़ गया है। पिछले चुनाव में 3 हजार 870 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इस बार के चुनाव का खर्च करीब 5 हजार 418 करोड़ रुपए है। अखबार ने 2019 के आम चुनाव पर होने वाले खर्च के अपने अनुमान का आधार नहीं बताया है। यह जरूर कहा है कि ‘देश में जैसे ही चुनावी बिगुल बजता है अवैध शराब और काले पैसों का कारोबार बढ़ जाता है।
चुनाव आयोग ने इस चुनाव में अब तक करीब 3,500 करोड़ रुपए से अधिक कीमत की अवैध शराब, नगदी और आभूषण आदि जब्त की है। ये राशि 2014 के लोकसभा चुनाव के कुल खर्च 3 हजार 870 करोड़ से कुछ ही कम है। साल 1951-52 के चुनाव का खर्च 10.45 करोड़ रुपए था जो अब 518 गुना बढ़कर 5418 करोड़ हो गया है। आजादी के बाद के पहले आम चुनाव 1951-52 में हुए थे। उस समय कुल 17 करोड़ 32 लाख मतदाता थे। तब देश के हर वोटर पर चुनाव के खर्च का बोझ 60 पैसे पड़ता था। इस बार के आम चुनाव में 90 करोड़ वोटर हैं और चुनाव के खर्च का बोझ भी बढ़कर 60 रु. हो गया है। यह राशि 2014 के खर्च से 13.86 रु. अधिक है। इस अखबार के मुताबिक़ 1952 के पहले चुनाव में 10.45 करोड़ का बजट रखा गया था। 1957 के दूसरे आम चुनाव का बजट घटकर तकरीबन आधा हो गया। 1971 में आम चुनाव का खर्च 11.61 करोड़ था जो आपातकाल के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में बढ़कर 23.03 करोड़ पर पहुंच गया।
भारत के 2019 के आम चुनाव के खर्च के बारे में अमर उजाला, सीएमएस, लाइवमिंट, ब्लूमबर्ग और इकोनॉमिक टाइम्स के अलग-अलग अनुमान हैं। यह भी गौरतलब है कि 17वीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले चुनावी बांड्स की बिक्री में भारी उछाल आ गया। पुणे के विहार दुर्वे को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत दाखिल उनकी अर्जी के जवाब में बताया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र के स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया ने 2019 के आम चुनावी वर्ष में पिछले वर्ष की तुलना में 62 प्रतिशत अधिक चुनावी बांड्स बेचे। इस बैंक ने पिछले वर्ष मार्च, अप्रैल, मई, जुलाई, अक्टूबर और नवम्बर में कुल मिलाकर 1056.73 करोड़ रूपये के ये बांड्स बेचे थे लेकिन इस वर्ष जनवरी और मार्च में ही इनकी बिक्री 1716.05 करोड़ रूपये तक पहुंच गयी। स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया इन बांड्स की बिक्री केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के बाद अपनी निर्दिष्ट शाखाओं में निर्धारित अवधि में करता है।
मध्य प्रदेश के नीमच के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ की आरटीआई अर्जी से यह जानकारी मिली कि मार्च 2018 से जनवरी 2019 के बीच राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये जो चंदा मिला उनमे 99.80 प्रतिशत चंदा 10 लाख और एक करोड़ रुपये मूल्य के थे. करीब दस महीनों में दाताओं ने राजनीतिक दलों के लिए कुल 1407.09 करोड़ के इलेक्टोरल बांड्स खरीदे, जिनमें से कुल 1403.90 करोड़ के बांड्स सिर्फ 10 लाख और एक करोड़ रुपये मूल्य के थे. ये जानकारी नहीं दी गयी है कि कितने राजनीतिक दलों ने इलेक्टोरल बांड्स को भुनाया है। चंद्रशेखर गौड़ को दी गई जानकारी के मुताबिक दाताओं ने 10 लाख के कुल 1,459 इलेक्टोरल बांड्स, एक करोड़ के 1,258 बांड्स, एक लाख के 318 बांड्स, दस हज़ार के 12 बांड्स और एक हज़ार के कुल 24 बांड्स खरीदे गए. इस वर्ष बॉन्ड के तीसरे दौर की बिक्री 1 मई से शुरू हुई। चुनावी वर्ष में इलेक्टोरल बांड्स की बिक्री में आये उछाल से राजनीतिक चंदों के लेन-देन के ‘गोरखधंधे’ के निहितार्थ को ही नहीं, चुनाव में अपार खर्च को समझने में भी आसानी हो सकती है. कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेत मनु सिंघवी के अनुसार चुनावी बॉन्ड भ्रष्टाचार का जरिया हो गया है और इसका 94.4 फीसदी हिस्सा भारतीय जनता पार्टी के पास गया है.
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस वाय कुरेशी के अनुसार चुनावी बांड्स ने लम्पट (क्रोनी) पूंजीवाद को वैधता प्रदान कर दी है. इसके कारण राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में पारदर्शिता ख़त्म हो गई है. इससे सरकार को तो यह पता चल जाता है कि किसने किस दल को कितने धन दिए, लेकिन नागरिकों को अंधेरे में रखा जाता है. उनका कहना है कि भाजपा के नेतृत्व वाले नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस की सरकार ने जनवरी 2018 में चुनावी बांड्स स्कीम शुरू करते समय वादा किया था कि इससे राजनीतिक दलों को धन देने में पारदर्शिता आएगी लेकिन जो हुआ वो ठीक उलटा है। इसकी अधिसूचना जारी होने के बाद फरवरी 2018 में असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर इसकी वैधता को चुनौती दी। याचिका में यह दलील देकर चुनावी बांड्स पर अंतरिम रोक लगाने की याचना की गई थी कि चुनाव से पहले आम तौर पर चुनावी फंडिंग में तेजी आ जाती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगाने से इंकार कर दिया।
सीपी झा वरिष्ठ पत्रकार हैं
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