क्या नपुंसक हैं राजस्थान के सारे दलित..?

राजस्थान की नपुंसक दलित कौमें मुझे कभी माफ न करें, क्योंकि यह अनिवार्य गाली मैं पूरे होशो-हवास में दे रहा हूं.

जब से मैंने यह खबर पढ़ी कि दलित समाज की बेटी भंवरी देवी के हत्यारों के पक्ष में राजस्थान के जाट एवं विश्नोर्इ समाज के 20 हजार लोगों ने जोधपुर में विशाल रैली निकाली है और संसद भवन तथा प्रधानमंत्री निवास का घेराव करने की चेतावनी दी है, मुझे रह-रहकर एक समाजवादी जुमला सता रहा है -जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती है. शायद इसीलिए इन जिंदा कौमों को अपने कुकर्मी, बलात्कारी और हत्यारे सपूतों का जेल में कुछ महीने भी रहना गवारा नहीं है, वे उनके तथा परिजनों के पक्ष में सड़कों पर उतर आए है तथा सीबीआर्इ के अन्याय के विरुद्ध खुली जंग का ऐलान कर चुके है.
हालांकि इस बात पर विद्वानों में मतभेद हो सकता है कि इन्हें जिंदा कौमें कहा जाए अथवा दरिंदा कौमें, मगर उनकी जागरूकता और बेहयार्इ तो देखिए! दलित समाज की एक बेटी को फांस कर बरसों तक पहले तो मलखान सिंह विश्नोर्इ भोगते रहे, बाद में उसे किसी खाद्य वस्तु की भांति महिपाल मदेरणा को परोस डाला, दोनों महापुरुषों ने जब तक जी चाहा एक दलित स्त्री भंवरी देवी को जी-भर कर भोगा और अंतत: मन भर गया तो रास्ते से हटा दिया, मरवा दिया, जलवा दिया और लाश के नामोनिशान तक मिटाने के लिए जली हुर्इ राख व हडिडयों को नहर में फिंकवा दिया, ऊपर से जयपुर में बैठकर राज करते रहे, मामला दर्ज हुआ, मीडिया ने पीछा किया तो खुद के शामिल होने से इंकार करते रहे.
राजस्थान की पुलिस के तो कहने ही क्या, उसने यथासंभव आरोपियों की पूरी मदद की और सबूत ठिकाने लगवाए. अंतत: ज्यादा हल्ला मचा तो मंत्रीमंडल ने सीबीआर्इ जांच का फैसला किया, सीबीआर्इ ने कड़ी मेहनत की और साजिश के सूत्रों का खुलासा किया तो पता चला कि पश्चिम राजस्थान के लगभग सारे धुरंधर राजनेता भंवरी देवी के आगोश में रातें बिताने का सुख प्राप्त कर चुके है, बातें कही जाने लगी. \\\’\\\’अरे ये तो नट (दलित) है, इनका क्या मोरल? भंवरी तो वैश्या थी, बेचारे महिपाल को ब्लैकमेल कर रही थी. माना कि भंवरी वैश्या थी (जो कि नहीं थी) तब भी मदेरणाओं और मलखानों को यह विशेषाधिकार कौन-सा कानून देता है कि वे एक नौजवान दलित औरत के जिस्म को जब तक चाहें नौचें और जी भरने पर उसे राह से हटा दें?
हिरणों की रक्षा में जान देने वाली और पेड़ों के चिपक कर पर्यावरण की रक्षा करने वाली एक कौम और खुद को ही किसानों की स्वयंभू जाति स्थापित करके राजस्थान के मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देख रही दूसरी एक और कौम से ला-ताल्लुक ये जन प्रतिनिधि कितने अत्याचारी हो सकते है इसका उदाहरण भंवरी देवी हत्याकांड के रूप में सामने है.
मगर इन लोगों और इनकी कौमों में कोर्इ शर्म नहीं है, तभी तो पूरी बेशर्मी से महिपाल साहब की बीवी फरमाती है कि- \\\’\\\’भंवरी के साथ ऐसा क्या हो गया, राजाओं के राज में भी ऐसा ही होता था. कुकर्मियों के इन हिमायतियों को प्रजातंत्र में भी राजतंत्र का मुगालता है और हर दलित स्त्री भोग्या लगती है.
गैर दलित कौमों को यह गलतफहमी है कि किसी भी दलित औरत की कोर्इ इज्जत, आबरू होती ही नहीं है, वह तो बनी ही इसलिए कि उससे संभोग किया जाए, मर्जी न हो तो बलात्कार कर लिया जाए और चूं-चूं करें तो गला घोंट दिया जाए, जिंदा जला दिया जाए, नहर के पानी में उसकी हडिडयां व राख भी बहा दी जाए.
सवाल उठता है कि क्या आजाद भारत में दलित स्त्री की यही नियति है, क्या वे गैर दलित अय्याश मर्दों की हवस की शिकार होने के लिए ही पैदा होती है? भंवरी देवी का पूरा प्रकरण तो यही प्रतिध्वनित करता है कि दलितों की तमाम भंवरियां इनके मलखानों और महिपालों के बिस्तरों की जीनतें बनने के लिए ही पैदा होती है.
शायद, यह सवाल भी केवल सवाल भर ही है क्योंकि जोधपुर की सड़कों पर भंवरी देवी के पक्ष में चंद दलित चंद दिनों के लिए ही उतर पाए थे, हम जैसे कलम घिस्सू भी एक बार उसके घर तक जाकर परिजनों को सांत्वना देकर लौट आए और अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली.
सोचता हूं कि हम चीखें क्यों नहीं, हमने मांग क्यों नहीं की कि इन कुकर्मियों, बलात्कारियों व हत्यारों को ऐसी सजा दो कि इसके बाद किसी की हिम्मत ना पड़े कि किसी भी दलित स्त्री का शोषण करने की.
हम (मतलब दलित समाज के लोग) सड़कों पर क्यों नहीं उतरे कि भंवरी देवी की हत्या किसी भी दलित स्त्री या पुरुष की आखरी हत्या होनी चाहिए.
हमने राज्य स्तर पर इकटठा होकर यह निर्णय भी क्यों नहीं लिया कि भले ही भंवरी देवी चरित्र के कथित मानकों पर खरी नहीं उतरती रहीं हो मगर थी तो दलित समाज की बेटी ही, उसके बलात्कारियों व इन पापियों के रहनुमाओं की कौमों को हम पूरे राज्य में कहीं वोट नहीं देंगे और चुनाव में धूल चटा देंगे.
हम कुछ भी नहीं कर पाए क्योंकि हम जिंदा कौम नहीं है, हम राजस्थान में सवा करोड़ मुर्दा दलित बसते है, सिर्फ अंबेडकर जयंती और पुण्यतिथि पर जय भीम बोलते है, बाकी के वक्त में इन्हीं आततायी कौमों के पांवों में सिर रखकर सो जाते है, किसी ने सही कहा होगा कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती, मगर मेरे भार्इ जुमला बदलो -राजस्थान की दरिंदा कौमें तो पांच महीने भी इंतजार नहीं करती है, वह सड़कों पर रैलियां करती है, सीबीआर्इ को धमकाती है, जांच को दबाव में लाने की कोशिश करती है और पार्लियामेंट तथा पीएमओ का घेराव करने की खुली धमकी देती है.
ऐसा लगता है कि हमारा महान भारतीय लोकतंत्र इन लठैतों के गिरवी रखा हुआ है, क्या हममें यह कहने का साहस है कि ये वे ही लोग है जो खाप पंचायतों के नाम पर प्रेम करने वाली मासूम लड़कियों को पूरी दरिंदगी से कत्ल कर देते है, इन्हीं में सर्वाधिक भ्रूण हत्याएं पार्इ जाती है, इनमें गरीब, पीडि़त, दलित औरतों से बलात्कार को मर्दानगी की निशानी माना जाता है.
वे हमारी नौजवान भंवरी का अपहरण कर सकते है और उसका बेरहमी से कत्ल कर सकते है मगर उनकी बूढ़ी अमरी को सीबीआर्इ पूछताछ करने के लिए बुला ले तो वे भड़क जाते है और संसद घेरने की धमकियां देने लगते है.
मुझे अफसोस सिर्फ यह है कि फिर भी हम नहीं जगते, सिर्फ मन मसोस कर रह जाते हैं, हाथ मलने लगते है, अंदर ही अंदर कुढ़ते है, हमारी हजारों नाम व अनाम भंवरियां इन दरिंदों द्वारा भोगी गर्इ और कत्ल कर दी गर्इ, पानी में बहा दी गर्इ, इज्जतें लूट ली गर्इ, तिल-तिल कर जीने व मरने को मजबूर की गर्इ, मगर हम बाबा साहब अम्बेडकर के भीम पुत्र-पुत्रियां चुपचाप, खामोश बैठे रहे, फिर क्यों न कहें हम खुद को नपुंसक?
ऐसी नपुंसक कौम जो सालों तक सोती है, सदियों तक खोती है और सहस्त्राबिदयों तक रोती है. यक्ष प्रश्न यह है कि अब भी क्या हम रोते ही रहेंगे? या यह निर्णय लेंगे कि आने वाले दिनों में हम इन आततायी, अत्याचारी और बलात्कारी तथा हत्यारी कौमों को वार्ड पंच से लेकर संसद तक के चुनावों में कहीं भी वोट नहीं देंगे, हम यह हुंकार क्यों न भरे.
हम चेतावनी क्यों न दे कि सभी पार्टियां सुन लें और इन्हें टिकट देने से भी परहेज करें क्योंकि अब हम इन्हें जीतने नहीं देंगे.
हमारा ऐलान हो- \\\’\\\’भंवरी हम तुम्हारी आत्मा को मरने नहीं देंगे और मलखान व महिपाल हम तुम्हें चैन से जीने नहीं देंगे. यही भीम संकल्प एक दिन हमें हमारी कौमी नपुंसकता से अलग कर सामुदायिक पुरुषार्थ की ओर ले जाएगा.
(लेखक डायमंड इंडिया पत्रिका के संपादक हैं. राजस्थान में दलित अधिकारों और दलितों के शोषण, उत्पीड़न के मामलों में संघर्षरत रहे हैं.)

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