एसटीएफ़ के निशाने पर ग़रीब किसान, भूमिहीन, दलित

इलाहाबाद के महाकुम्भ में उत्तर प्रदेश पुलिस अपनी अकर्मण्यता (और संवेदनहीनता भी) सिद्ध कर चुकी है. लगता है, अब पूर्वी छोर पर बसे दबे-कुचले ग्रामीणों पर कहर बरपा कर वह विभत्स सामन्ती चेहरों वाले प्रदेश के अपने असली आकाओं को यह संकेत देना चाहती है कि भले ही हम आपके धार्मिक मेले में नाकाबिल सिद्ध हुए हों, वर्ग संघर्ष के मैदान में हम आपके पक्ष में अपनी काबीलियत सिद्ध करके ही दम लेंगे.

गत पखवाड़े से वहाँ 500 के करीब मेहनतकशों को, जिन्हें कुम्भ में नहाने की सूझी भी नहीं होगी और सूझी होगी तो अपने जीवन-संघर्ष से फ़ुर्सत नहीं मिली होगी, माओवादी बताकर जेलों में ठूँसा गया है.
बलिया बिहार से लगा हुआ उत्तर प्रदेश का वह ज़िला है जो 1942 में आज़ाद सरकार के पथ-प्रदर्शक जन प्रयोग से लेकर ’60-’70 के दशक में ज़मीन और इज़्ज़त की लड़ाई के नये दौर की शुरुआत के क्रम में हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहा है. आज भी इस ज़िले के ग़रीब किसान, भूमिहीन और दलित लोग वहाँ के आततायी सामन्ती तत्वों के खौफ़ का मुकाबला करने का माददा रखते हैं.
यही वजह है कि वहाँ के शक्तिशाली सामन्ती तत्व – गुण्डे-बदमाश, जमींदार, सूदखोर और चुनावी नेतागण इस अन्तराल में मेहनतकश वर्ग के लोगों और उनके स्थानीय नेताओं को कुचलने के लिए बेइन्तहाँ ज़ुल्म और हत्या तक का सहारा लेते रहे हैं.
लम्बी लड़ाई की मानसिक तैयारी के साथ कुछ स्थानीय साहसी युवाओं ने गत वर्ष इन्हीं जनविरोधी तत्वों के प्रतिकार का संकल्प लेकर नये सिरे से जन संघर्ष शुरू करने की पहल की थी. इस क्षेत्र में स्वाभविक तौर पर वर्ग संघर्ष का जैसा इतिहास रहा है, बहुत जल्द ही कुछ सशस्त्र मुकाबलों की खबरें अखबारी दुनिया की क्षेत्रवार सीमाओं को लांघते हुए अनौपचारिक माध्यमों से अपेक्षाकृत शान्त क्षेत्रों तक पहुँचने लगी थीं.
वर्ष 2012 का अन्त होते-होते अखिलेश सरकार की एसटीएफ़ ने बलिया जिले में एकाएक अपनी तैनाती बढ़ाते हुए मायावती सरकार के आपरेशन सोनभद्र जैसे किसी आपरेशन का आग़ाज़ देना शुरू कर दिया था.
फ़रवरी की शुरुआत में जब कानून व्यवस्था की स्थिति पर नज़र रखने वालों का ध्यान गंगा-यमुना के संगम तट के इर्द-गिर्द केन्द्रित था, तो बलिया स्थित दोआबे के आसपास कानून ने अपना तण्डव दिखाना शुरू कर दिया. यहाँ जब दर्ज़नों लोग भगदड़ में मारे जा रहे थे और लापता हो रहे थे, तो वहाँ आये दिन गाँव-गाँव में घुसती, बदतमीज़ी करती, सैकड़ों को उठाकर बन्द कर देती पुलिस की कार्रवाइयों के बाद बिलखते-भूखे बच्चों और बीमारों की चीखों और कराहों को भी सुनने वाला कोई नहीं था.
सूत्रों के मुताबिक सामन्ती तत्वों के इशारों पर ग़रीब किसान, भूमिहीन, दलित आबादी के बीच से गिरफ़्तार किये जाने वालों की तादाद 500 के आसपास पहुँच चुकी है. गिरफ़्तारी का यह सिलसिला धीरे-धीरे फ़रवरी के पहले ही शुरू हो चुका था. आज की तारीख में क्षेत्र में ऐसा कोई नागरिक अधिकार संगठन या जनवादी जन आन्दोलन भी दिखायी नहीं देता जो दुनिया को वहाँ के पीड़ित परिवारों की व्यथा से वाकिफ़ कर सके.
संचार क्रान्ति के इस युग में भी दुनिया को यह खबर तक करने का कोई तरीका नहीं है कि वहाँ किस तरह मासूमों के साथ पुलिसिया ज़ुल्म हो रहे हैं. गिरफ़्तार लोगों की खबर लेने और पैरवी व इन्सानी देखभाल की व्यवस्था करने वाला कोई भरोसेमन्द समूह भी अभी वहाँ नहीं पहुँचा है.
बलिया की मेहनती जनता हर कठिन परिस्थिति का सामना करने का तजुर्बा ज़रूर रखती होगी. लेकिन क्या यह देखना बलिया के बाहर वालों का फ़र्ज़ नहीं है कि संघर्ष की राह पर कोई पस्त न हो? बाहर से सहायता और एकजुटता के हाथ बढ़ते देख उनके हौसले बुलन्द हों यह कौन नहीं चाहता होगा?

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