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हम राम और हुसैन के प्रति बाध्य क्यों..?

Oct 26, 2011 | Panini Anand

राम वन को गए. वहाँ रहे वाटिका में पर सोने के मृग का मोह नहीं गया. एक द्रविड़ की बहन की नाक काटी. बदले में रावण ने सीता को अपने पलंग पर नहीं, हरम में नहीं, वाटिका में रखा. शोषण और प्रताड़ना संवाद तक सीमित रहा, दैहिक नहीं हुआ. राम ने फिर भी अवध की सेना का एक भी सैनिक न तो बुलाया और न मरने दिया. जो मरे, वो भीलों, आदिवासियों की सेना थी. यह सेना भी स्वेच्छा से नहीं जुटी थी, कबायली युद्ध में भाई ने भाई को मरवाने के सौदे में यह व्यवस्था की थी. भारत के मध्य-क्षेत्र से जुटाए गए… जुड़ूम-जुड़ूम की आवाज़ पैदा करते हुए वे राम के लिए लड़े. राम ने रावण के घर फूट डाली और छल करके जीत हासिल की. इसके बाद राम अयोध्या लौटे. रावण की नीयत और सीता के चरित्र पर शंका रखी और अग्निपरीक्षा ली… इस कथा के महानायक की वेलकम होम की कहानी दिवाली के मूल में बताई जाती है. 

 
राम का मकसद अगर केवल सीता तक सीमित रहता तो अयोध्या वापसी के बाद राम अश्वमेध यज्ञ न करवाते और न ही हिमालय से नीचे के कई प्रांतों को अपनी प्रभुसत्ता स्वीकारने के लिए विवश करते. ऐसा लगता है जैसे राम का वनगमन किसी लार्जर स्ट्रैटजी का हिस्सा है, पिता को दिए वचन का पालन नहीं. वरना वचन निभाने वाला मर्यादा पुरुषोत्तम शादी के वचनों के हाशिए पर रख सीता की अग्निपरीक्षा न लेता. 
 
पूरा ज़ोर लगाकर भी इस पूरी कथा में रावण का कोई दोष साबित कर पाने में रचनाकार-कथावाचक असमर्थ ही रहे हैं पर राम की जीत का जश्न अबतक मनाया जा रहा है. जैसे राम कोई अमरीकी सैन्य अधिकारी हों जिन्होंने इराक़ में या अफ़ग़ानिस्तान में पहले ज़हर बोया और फिर जब प्रतिकार शुरू हुआ तो पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक पीढ़ी को खत्म कर दिया. बिना अपराध साबित कर पाए वो विजय जश्न मनाते हुए लौटते हैं. मज़ेदार बात है न कि ओबामा दिवाली मनाते हैं, होली नहीं.
 
इतने भर से काम न चले तो रही-सही कसर पूरी करती है लक्ष्मी. जिनकी बुद्धि पर उल्लू बैठा है, वो उल्लू पर बैठी इस देवी के लिए पूजा करते हैं. ताकि लक्ष्मी आए. फिर उसक टांग तोड़ दो. किश्तों में काट-काटकर डिपॉजिट कर दो. कुछ भी करो पर घर की दहलीज से वापस बाहर न जाने दो. खुद विष्णु हो जाओ और लक्ष्मी को विलास की वासना में चरण सेवा के लिए रख छोड़ो. ये सारा मज़ा चाहिए तो लक्ष्मी को तो पूजिए ही. सबसे सीधा और शॉर्टकट रास्ता… जीवन का सुख चाहिए तो मूल्यों की नहीं, नैतिकता की नहीं, इंसानियत की नहीं, प्रकृति की नहीं, सह-अस्तित्व की नहीं, पारितंत्र की नहीं… केवल लक्ष्मी की पूजा कीजिए एंड यू आर रिच. दैट्स इट.
 
किसी एक कथा के इर्द-गिर्द खींच दी गई परंपरा की पटरियों वाला यही संकट ताजियों के जुलूसों के लिए भी दिखता है. बचपन से शियाओं और सुन्नियों के यहाँ अलग-अलग किस्म से मोहर्रम देखने को मिलता रहा. तांगे पर रखे मीठे चावल के देग, ठंडा शर्बत और या फिर रात को हुड़दंग, फ्री का सिनेमा… कितनी ही स्मृतियां हैं मोहर्रम की पर याददाश्त की मिट्टी में सबसे ज़्यादा गहरी हैं खून से सनी पीठें. ये सैकड़ों साल का मातम… छोटे-छोटे बच्चों के माथे से रिसता हुआ खून. बदन पर बर्छे मारते युवा. लथपथ, लहूलुहान. मोटे-थुलथुल हो चले जिस्मों और दिल, बीपी की बीमारियों के बावजूद बेतहाशा रोती औरतें, अपनी छातियां पीटती हुईं. काले कपड़ों में लिपटी, मातमी मजलिसें. नारे के वो शब्द…. हाय हुसैन, हम न रहे. हाय हुसैन, हम न हुए. मुझे हुसैन के न रहने के मातम का इतना लंबा खिचना, इतना लंबा सिलसिला समझ नहीं आता. मूर्ति और प्रकट अस्तित्व को खारिज कर अमूर्त सत्ता में विश्वास रखने वाला संप्रदाय हुसैन के लिए इतना क्यों खून बहाता है, समझ से परे है. या समझ तो आता है पर सहज नहीं हो पाता हूं और न ही इसे तार्किक पाता हूं.
 
ऐसी कथाओं के तार खोलना शुरू करूंगा तो आचार्य रामचंद्र शर्मा (शांतिकुंज वाले- जिन्होंने इस देश का शायद आधा कागज अपने विचार छापने में इस्तेमाल कर डाला) बन जाउंगा या उनसे भी कहीं ज़्यादा लिख बैठूंगा. दिवाली आप मना रहे हैं इसलिए इसके बहाने ही….
 
दरअसल, पर्वों, त्योहारों के प्राकृतिक पहलुओं को दरकिनार कर, नई फसल और सुधार-स्वास्थ्य-स्वच्छता के महत्व को भूलकर हम केवल आडंबरों के दीप जला रहे हैं. दीप जो वैभव लाए, लक्ष्मी को घर बुलाए, हमारी तिजोरियां भर दे, हमें रातोंरात मालामाल कर दे. आप लक्ष्मी पूजा करें और लाखों कुम्हारों से काम छीन लें. उनके दीपों की जगह मल्टीनेशनल ब्रांड की मोमबत्तियां जलाएं. आप लक्ष्मी पूजा करें और अन्न व उपज की पारंपरिक शैलियों को लात मारकर कैडबरीज़ से दोस्ती कर लें. चॉकलेट लें और दें. आप लक्ष्मी पूजा करें और अपने अपार्टमेंट में लाखों के पटाखे फूंक डालें, सामने की झुग्गियों को एक चोर नज़र भी न देखें और जो दिख जाएं तो दरिद्र अभागे मानकर तिरस्कृत कर दें… ऐसे न तो आपका वैभव आने वाला है, न समाज का और न देश का. आपका ऐसा पर्व पूजा नहीं, हिंसा है. और हिंसा विकास नहीं, अवनति की ओर ले जाती है.
 
दिवाली इनसे अलग नए चावल का, बारिश और मौसम के बदलाव के बाद सर्दियों के लिए तैयार होने का, अपने घरों को, आसपास को साफ करने का पर्व है. लक्ष्मी को मैं नहीं जानता पर इतना जानता हूं कि नई फसल, स्वच्छता और सहअस्तित्व का बोध, नैतिक और सामाजिक दायित्वबोध, मानवीय दृष्टि समृद्धि की ओर ले जाती है.
 
दिवाली मनाइए, पर दिवाली को समझिए भी.

 

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