सरकार पर ऑक्टोपस की तरह काबिज है कॉर्पोरेट
Feb 13, 2012 | गोपाल कृष्णसरकार सियासी दलों और संस्थाओं की आका तो हो सकती है मगर नागरिकों की नहीं, सरकार ऐसा नहीं मानती है. गत 24 दिसम्बर को संसद के शीतसत्र में लोकसभा में जो विरोधाभाषी घटनाएं हुई उससे पता चलता है कि कंपनियों की सरकार और सियासी दलों पर पकड़ ऑक्टोपस जैसी होती जा रही है. कंपनियों का दायरा बढ़ता जा रहा है. कंपनी मामलों के केंद्रीय मंत्री डॉ मुद्बिद्री वीरप्पा मोइली ने कंपनी कानून विधेयक 2011 पेश किया जिसमें चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त सियासी दलों के लिए भरपूर धन की व्यवस्था की गयी है. ऐसी ही व्यवस्था सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पालतू संस्थाओ के लिए भी की गयी है.
विधेयक पेश होने के आधे घंटे के अंदर सत्तारूढ़ दल के मनीष तिवारी ने लोकसभा में बहुत दुखी होकर काले धन के मसले पर संयुक्त प्रगतिशील गटबंधन की अल्पमत सरकार की गंभीरता को यह कहते हुए जाहिर किया, “मुझे यह कहते हुए शर्म महसूस होती है कि काले धन की समस्या जो हमारे सारे प्रचार की नीति है, जो इलेक्टोरल फिनांस (चुनाव में खर्चे) है, उससे जुडी हुई है इसलिए उसमे सुधार करने की जरुरत है.”
विधेयक और इस बयान पर गौर करें तो सरकार और सत्तारूढ़ दलों के दोमुहेपन का पता चलता है. सुधार की जरूरत तो कंपनी कानून में है जिसके तहत सियासी दल चुनाव लड़ने के लिए और अन्य सियासी काम के लिए कंपनियों से धन लेते है. इसी से काले धन का बीजारोपण होता है और इसी से दलों के सियासी विचारधारा का चुनाव में प्रचार या दुष्प्रचार होता है.
यह खुलासा हो चुका है कि कंपनियों द्वारा किये जा रहे अक्षम्य अपराध, औद्योगिक हादसे, प्रकृति का वहशियाना दोहन, भोजन चक्र का ज़हरीलापन और सुरक्षा बलों द्वारा हो रहे मानवाधिकारों के हनन सियासी दलों को मिल रहे कंपनियों के धन से जुड़े है. दुनिया भर में कंपनियों द्वारा हो रहे अकथनीय धोखाधड़ी, युद्ध अपराध, संसद पर अघोषित रूप से कब्जे आदि के मद्देनज़र प्रस्तावित कंपनी कानून विधेयक का संसद और नागरिक समाज द्वारा गहन पड़ताल की जरूरत है.
ऐसे समय में जब कंपनियों द्वारा पाली-पोसी जा रही संस्थाएं और उनसे जुड़े दल इस मामले में एक चीखती खामोशी का चादर ओढ़कर खुद को फुटकर भ्रष्टाचार के मामलों का विरोधी बताकर एक ऐसा तिलस्म बुन रहे है जिससे कंपनियों द्वारा जारी लोकतंत्र के अपहरण पर चिरस्थायी चुप्पी को हमेशा के लिए कायम कर दिया जाये. कंपनियां अलोक्तान्त्रिकता कि पराकाष्ठा की नुमाइंदगी करती हैं और इसमें मीडिया कंपनियां भी शामिल हैं. ये बड़े जोर-शोर से फुटकर भ्रष्टाचार और स्ट्रीट अपराधों की चर्चा करती है मगर कंपनियों के अपराधों पर अभियान करने से कतराती है. मुक्त व्यापार और कंपनी प्रेमी संस्थाएं और सियासी दलों के इस तिलस्म को भेदना प्रबुद्ध नागरिकों का अत्यंत जरूरी दायित्व बन गया है. इसकी शुरुआत कंपनी कानून के उन प्रावधानों को हटवा कर की जा सकती है जो नागरिकों द्वारा चुनी हुई सरकार की जगह कंपनियों द्वारा चुनी हुई सरकार की चिरस्थायी व्यवस्था कर रही है.
गौरतलब है कि 397 पन्ने कि कंपनी कानून विधेयक. 2011 शेयरधारकों के प्रजातंत्र को प्रोत्साहन दे रही है. अभी तक 9 लाख कंपनियां पंजीकृत हैं. इनमें से करीब 3 लाख कंपनियों को सक्रिय माना जाता है. नया कानून पुराने कंपनी कानून, 1956 के स्थान पर लाया जा रहा है. यह कानून टाटा कंपनी के डॉ जे.जे. ईरानी की अध्यक्षता वाली एक सरकारी समिति कि अनुशंसा पर बनाया गया है. इस समिति ने अपनी रिपोर्ट को मई, 2005 में कंपनी मामलों के मंत्रालय को सौंपा था. यह एक तरह से नया बॉम्बे प्लान है. पुराना प्लान जनवरी 1944 में तैयार किया गया था जिसकी छाप भारत सरकार के शुरुआती 3 पंचवर्षीय योजनाओं में साफ़ दिख रहा था. उसे बनाने में भी टाटा साम्राज्य का महत्वपूर्ण योगदान था. कंपनी कानून बनाने का एक इतिहास है जो भारत की गुलामी के दिनों से जुडी है. कंपनियों के भारत में पैर ज़माने से पहले सन 1715 तक अविभाजित भारत का विश्व व्यापार में 25 प्रतिशत का हिस्सा था. कंपनियों के साम्राज्य के फैलाव के लगभग 300 साल बाद विभाजित भारत का हिस्सा लगभग 1 प्रतिशत हो गया है. क्या आजाद भारत कि संसद ने इस पतन में कंपनियों के योगदान कि जांच पड़ताल की है?
कंपनी कानून विधेयक 2011 की धारा 182 में यह प्रावधान की कंपनियां अपने सालाना मुनाफ़ा का साढ़े सात प्रतिशत तक सियासी दलों और पालतू संस्थाओं को दे सकती हैं, भविष्य में संसद द्वारा ऐसी किसी जांच-पड़ताल को रोकने का प्रयास जैसा प्रतीत होता है. फुटकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान में शामिल कुछ पालतू संस्थाओं की कंपनियों के धन में दिलचस्पी को ध्यान में रख कर उनके लिए भी विधेयक में व्यवस्था कर दी गयी है. ये संस्थाएं अपने पंजीकरण के शुरुआती दिन 1869 से ही पालतू रही हैं. इनके 1857 की करतूत पर अभी भी पर्दा पड़ा हुआ है. इस तरह से कंपनी कानून ने संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह पर कंपनियों द्वारा धन प्रयोग से जुबान पर तालेबंदी कि जुगत लगाई जा रही है.
बिना इन प्रयासों के यह कैसे छुपाया जायेगा कि किसानों की आत्महत्या जारी है और कृषि योग्य ज़मीन के गैर कृषि क्षेत्र में प्रयोग से पिछले पांच साल में 8 लाख हेक्टयर खेत घट जाने के क्या दुष्परिणाम होंगे. साल 2003-04 में कुल 1,86,186 हज़ार हेक्टयर के करीब कृषि योग्य ज़मीन थी. 2008-09 में घट कर वह 1,82,385 हज़ार हेक्टयर हो गयी है.
यह तथ्य भी उजागर हो चुका है कि प्रमुख संसदीय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी इस कुकृत्य में शामिल है. पार्टी के पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा कि अध्यक्षता वाली वित्त मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने कंपनी कानून विधेयक, 2009 पर दिए गए अपने रिपोर्ट में इस बात की अनुशंसा की है कि कंपनियों द्वारा जो धन सियासी दलों को दिया जाता है उसे साढ़े सात प्रतिशत कर दिया जाये. कंपनी कानून विधेयक 2011 में इस अनुशंसा को धारा 182 में शामिल कर लिया गया है.
इस धारा में जन प्रतिनिधि कानून, 1951 की धारा 29 अ का भी जिक्र है जो चुनाव आयोग के ध्यान योग्य है. साल 2003 में कंपनी कानून 1956, इनकम टैक्स एक्ट, 1951 और जन प्रतिनिधि कानून में संशोधन कर कंपनियों द्वारा अपने सालाना मुनाफे का 5 प्रतिशत तक धन सियासी दलों और पालतू संस्थाओं को देने का प्रावधान किया गया था वावजूद इसके कि यह कंपनी कानून, 1956 की धारा 581 के विपरीत थी जिसके तहत सियासी दलों और सियासी मकसद के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कंपनियों से दान या मदद पर पाबंदी थी. कंपनी कानून किश्तों में ऐसे कदम उठाता प्रतीत होता है जिससे कि सरकार और नागरिक समाज का कंपनीकरन का लक्ष्य पूरा हो सके.
ध्यान देने योग्य बात है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सांसद और पूर्व गृह मंत्री इन्द्रजीत गुप्त कि अध्यक्षता वाली एक बहुदलीय संसदीय समिति ने चुनाव लड़ने के लिए सरकारी धन मुहैया कराने की सिफारीश 1999 में की थी. इस पर अमल करने के लिए भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर तत्कालीन गृह मंत्री की अध्यक्षता में 2001 में एक मंत्रीसमूह बनाया गया था जिसके सदस्य यशवंत सिन्हा भी थे. प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी के जन्मदिन के अवसर पर 15 जुलाई, 2011 को इंदौर में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और केंद्रीय मंत्रियों की उपस्थिति में भाजपा शासित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी चुनाव लड़ने के लिए सरकारी धन की व्यवस्था पर जोर दिया. ऐसे में यशवंत सिन्हा वाली संसदीय समिति की सिफारिश किसी गहरे रोग की तरफ इशारा करती है. समिति में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सदस्य थे, उनकी चुप्पी भी हैरतअंगेज है.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का रवैया भी ऐसा ही है. ऐसे में लगता है कि सारे सियासी दलों ने कंपनियों की सरपरस्ती कबूल कर ली है और घुटने टेक दिए हैं. 29 नवम्बर, 2011 को कांग्रेस अध्यक्षा और गठबंधन की मुखिया सोनिया गांधी ने भारतीय युवक कांग्रेस के सम्मेलन में एक बार फिर घोषणा किया कि सरकारी धन की व्यवस्था कर चुनाव प्रक्रिया में भ्रष्टाचार से मुक्ति का कदम उठाया जायेगा. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए जो मंत्रीसमूह बनाया गया उसके संधाव बिन्दुओं में भी चुनाव के लिए सरकारी धन की व्यवस्था शामिल है. इस मंत्रीसमूह ने अपनी पहली रिपोर्ट सरकार को 6 सितम्बर, 2011 को सौंप दी. सरकार की ही प्रेस विज्ञप्ति से पता चलता है कि मंत्रीसमूह ने 15 अक्टूबर, 2011 को कानून मंत्रालय को चुनाव में सरकारी धन उपलब्ध कराने के लिए जरूरी संवैधानिक संशोधन करने के लिए ठोस प्रस्ताव तैयार करने कहा है. 28 नवम्बर, 2011 को केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने लोकसभा को बताया कि मंत्रीसमूह द्वारा चुनाव में सरकारी धन के प्रावधान के संबंध में अंतिम निर्णय लिया जाना बाकी है.
ऐसी स्थिति में 14 दिसम्बर, 2011 को कंपनी कानून विधेयक, 2011 को पेश करना चुनाव के लिए सियासी दलों को कंपनियों पर निर्भर रखे रहने की घोषणा है. खुर्शीद संसद को गुमराह करते प्रतीत होते हैं क्योंकि चुनाव में धन के संबंध में अंतिम निर्णय कंपनी कानून विधेयक में साफ़ दिख रहा है. मंत्रीसमूह ने खुर्शीद के मंत्रालय को सियासी दलों को सरकारी धन मुहैया कराने के लिए संवैधानिक संशोधन करने के लिए ठोस प्रस्ताव तैयार करने को कहा था. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि केंद्रीय कैबिनेट ने कानून मंत्रालय को परस्पर विरोधी कानून बनाने का जिम्मा सौंपा था. कंपनी कानून विधेयक को भी इसी मंत्रालय ने हरी झंडी दी है और मंत्रीसमूह की सिफारिश को नज़रअंदाज कर दिया. यह कृत्य कांग्रेस, भाजपा और उनके सहयोगी दलों के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश करता है. कथनी और करनी में इससे ज्यादा फर्क और क्या होगा.
यह इत्तेफाक नहीं है कि भाजपा के अरुण जेटली ने 15 पेज और कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी ने 10 पेज में भोपाल औद्योगिक हादसे की जिम्मेवार संयुक्त राज्य अमेरिका की डाऊ केमिकल्स कंपनी को यह लिखित कानूनी सलाह दी है कि कानूनी तौर पर भोपाल हादसे में उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं है. सियासी दलों और नेताओं को कंपनियां अनेको रूप में धन मुहैया कराती हैं और उसके बदले अपना काम करवाती हैं. पालतू संस्थाओं की मानसिकता इसे ही व्यावहारिकता मानती है. प्रबुद्ध नागरिक इसके दुष्परिणाम से समाज को सचेत करने में चूक रहे हैं.
कंपनी कानून विधेयक में कंपनियों द्वारा सियासी दलों को धन मुहैया कराने की व्यवस्था को संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के 21 जनवरी, 2010 के फैसले के संदर्भ में देखना होगा. इस मुकदमे में वहां का चुनाव आयोग भी शामिल था. भारत के चुनाव आयोग को इस पर तत्काल गौर करना होगा. फैसले में 9 जज की पीठ में से 5 जज का यह निर्णय है कि कंपनियां अपनी अभिव्यक्ति कि आज़ादी के अधिकार का प्रयोग करते हुए लोकतांत्रिक चुनाव प्रचार में बेरोक-टोक खर्च कर सकती हैं. उनके खर्च की कोई सीमा नहीं तय की जा सकती है. भारत के कंपनी कानून विधेयक और संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में फर्क सिर्फ इतना है कि भारत में सरकार का कंपनीकरण किश्तों में हो रहा है और वहां वह अपने अंतिम चरण में है. संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रबुद्ध नागरिकों ने कहा है कि इस फैसले से वहां का सियासी वर्ग 10 साल में वेश्या बन जायेगा. कंपनी कानून विधेयक उसी राह पर यहां के सियासी दलों को कोठे में तब्दील कर देगा. ऐसे में क्या फर्क पड़ता है कि इन दलों में या कानून के कारखानों में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश है, अप्रत्यक्ष पूंजी निवेश है, देशी पूंजी निवेश है या विदेशी पूंजी निवेश है. मुक्त व्यापारकर्मियों का मुक्ति मार्ग शायद इन्हीं कोठों से होकर गुजरता है.
कंपनी कानून विधेयक कि धारा 135 को भी जरा देख लें. यह धारा कंपनियों की सामाजिक जिम्मेवारी (कॉरपोरेट सोसल रेस्पोंसिबिलिटी) तय करता है. इसके अनुसार कंपनियों को अपने सालाना मुनाफा का 2 प्रतिशत भीषण भुखमरी, भीषण गरीबी, बच्चों कि अल्पायु में मृत्यु, मां का स्वस्थ्य, मलेरिया, एड्स, पर्यावरण, रोजगारमुखी शिक्षा, सामाजिक धंधे, औरतों के ससक्तीकरण और प्रधानमंत्री रहत कोष में खर्च करना होगा. ऐसी सदाशयता और उदारता कि कंपनियां अपने सालाना मुनाफे का साढ़े सात प्रतिशत सियासी दलों और पालतू संस्थाओं को और 2 प्रतिशत सामाजिक जिम्मेवारी के लिए निवेश करेंगी और सिर्फ साढ़े नवासी प्रतिशत अपने साम्राज्य को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए प्रयोग करेंगी. सियासी दलों में निवेश के फलस्वरूप कंपनियों को कानूनी व्यक्ति मान लिया गया है और उन्हें कृत्रिम नागरिकता भी प्राप्त है. आने वाले दिनों में अगर उन्हें कृत्रिम लोकतान्त्रिक सत्ता भी मान लिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिये.
सवाल यह है कि क्या कंपनियां साढ़े नौ प्रतिशत निवेश करके सरकार और संसद को चुनौती नहीं देंगी? पिछले 300 सालों की विश्व अर्थव्यवस्था और इतिहास, कंपनियों के इतिहास को और पृथ्वी पर उनके प्रभाव को जाने बिना नहीं समझा जा सकता है. क्या वजह थी कि ब्रिटिश संसद ने कंपनी नामक कानूनी संरचना पर 120 सालों तक पाबंदी लगाए रखा था? इन सवालों को भारत के 300 साल के आर्थिक इतिहास के संदर्भ में खंगालना होगा, इससे पहले कि कंपनी कानून विधेयक एक बार फिर पारित हो जाए.
गौरतलब है कि जिस कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेवारी का जिक्र विधेयक में है वे संविधान के तहत मूलतः सरकार की नागरिको के प्रति जिम्मेवारी है. सरकार और संसद दोनों इस संबंध में संविधान के प्रति जवाबदेह है. भोपाल औद्योगिक त्रासदी के बाद संसद ने 1985 में एक कानून पारित किया था कि सरकार त्रासदी पीडितों की अभिभावक है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने 22 दिसम्बर 1989 के फैसले में इसे सही ठहराया था और सरकार से औद्योगिक त्रासदी कोष बनाने को कहा था जो आज तक नहीं बना है. कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेवारी का विधेयक में होना सरकार की नागरिकों और पर्यावरण के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी को कंपनियों पर डालने जैसा है. सरकार की कंपनियों में ऐसी द्रवित कर देने वाली आस्था कहीं सियासी दलों को 2003 से मिल रहे कंपनियों के मुनाफे से हो रहे धन लाभ से तो नहीं जुडी है.
सियासी दल, सरकार और संसद कंपनियों की गिरफ्त में आती दिख रही है. ऐसे में नागरिको को अपनी संवैधानिक सत्ता का प्रयोग करना होगा और यह बयान करना होगा कि कंपनियां सियासी दल, सरकार और संसद की अभिवावक भले हो जाए, नागरिक समाज उसे अपना अभिभावक किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा. लोकशाही नागरिकों की सल्तनत है, कंपनी कानून द्वारा बने संरचनाओं की नहीं.
कंपनी कानून विधेयक में वन परसन कंपनी लिमिटेड की भी व्यवथा की गयी है. इस प्रावधान के मुताबिक कोई एक व्यक्ति भी कंपनी बना सकता है. इसके परिणामस्वरूप कृषि के अलावा असंगठित क्षेत्र के उद्योग-धंधे पर एक ऐतिहासिक हमला होने की प्रबल संभावना बन गयी है. ऐसा संभव है कि अघोषित सियासी दल, फेडरेशन ऑफ़ चैम्बर्स एंड कॉमर्स, कॉन्फेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री, एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स आदि इसी रास्ते खुदरा व्यापार पर कब्ज़ा जमाने की जुगत लगा रहे हों. टाटा साम्राज्य के नुमाइंदे डॉ जे.जे. ईरानी की सदारत में बनी कंपनी कानून विधेयक में वन परसन कंपनी लिमिटेड की और क्या मंशा हो सकती है. कॉरपोरेट खेती के साथ इसका मेल एक खतरनाक राह तैयार कर सकती है.
विश्व आर्थिक संकट और पर्यावरण के संकट ये घोषणा कर रहे हैं कि कंपनियां धन पैदा करने वाले नहीं, धन का समूल नाश करने वाली संरचनाये हैं. कंपनियों के 300 साल में 10 हजार पक्षियों की प्रजातियों में से 130 के करीब लुप्त हो गए हैं. कितने ही अन्य जानवरों और पौधों कि प्रजातियां नष्ट हो गयी हैं और हो रही हैं.
कंपनी कानून के पारित होने से पहले एक श्वेत पत्र तो जरूर तैयार हो जिससे पता चले कि भारत की जो 2 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है उसमें कंपनियों का योगदान कितना है और उनकी विश्व व्यापार में कितने प्रतिशत की भागीदारी है. कंपनियों द्वारा अफीम के मुक्त व्यापार के भुक्तभोगी चीन में एक कहावत है- व्यापार ही युद्ध है. उन्होंने आधे-अधूरे सबक लिए अन्यथा उन्हीं कंपनियों की राह पर क्यों चल पड़ते. क्या भारत भी उसी राह जायेगा?
कंपनियों और सियासी दलों के फलने-फूलने में काले धन के योगदान को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. 14 दिसम्बर को संसद में आरोप-प्रत्यारोप के दौरान कुछ बातें खुल कर सामने आ गयीं जिससे एक बार फिर यह पुष्टि हुई कि सत्तारूढ़ दल और भाजपा नीत विपक्षी दल किस तरह से काले धन के मामले में लिप्त हैं. सदन में बताया गया कि किस तरह क्रमबद्ध तरीके से बारी-बारी संप्रग और राजग ने काले धन के आवागमन की राह को 1982 के बाद से ही सुगम किया. जब यह जग-जाहिर हो ही गया है तो अभी से उसमें सुधार करने से कौन रोक रहा है. दोनों ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे हाथी के दांत खाने के और, दिखाने को और हैं. इन सबके बीच कंपनी कानून विधेयक विश्व बैंक समूह की पहल पर कॉरपोरेट क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र और नागरिक क्षेत्र को एकीकृत करने का खाका तैयार कर चुका है. जब तीनों एकीकृत हो जायेंगे तो सिर्फ एक ही क्षेत्र सर्वत्र दिखेंगे. इसकी शुरुआत विशेष आर्थिक क्षेत्र की नींव रख कर हो चुकी है.
कंपनी कानून विधेयक संसद को और नागरिकों को एक और मौका दे रहा है कि हम कंपनियों के योगदान और कुकृत्यों को समझें, इसकी बारीकियों को जानें और रास्ता बदलें. कंपनी की संरचना से हटकर कोई और व्यवस्था बनाए जिसमे उद्योग-धंधे, पृथ्वी और पृथ्वीवासियों को संकट में डाल कर न फले-फूले.
एक बार फिर सियासी ताकत पर धन की ताकत हावी हो रही है और इस बार वह सियासी भूगोल को ही बदल कर रख देगी. वाम दलों ने तत्कालीन सियासी मजबूरियों के कारण पुराने बॉम्बे प्लान का नेहरू सरकार द्वारा अनुकरण करने पर चुप्पी साध ली थी. नया प्लान और कंपनी कानून विधेयक कमजोर सी दिखती वाम ताकतों को एक बार फिर चुनौती पेश करता है.
भारत और भारतवासी कंपनियों की काली करतूतों से ज्यादा परिचित हैं क्योकि पिछले 300 सालों का इतिहास गवाह है कि उनके घाटे चिरस्थायी से हो गए हैं. मगर संसद के शीत सत्र के दौरान काले धन का कुहासा इतना छा गया कि \’पेड न्यूज़\’ (धन आधारित खबर) से \’पेड लेजिस्लेशन\’ (धन आधारित कानून निर्माण) का रास्ता बनाता विधेयक देशवासियों को दिख नहीं रहा.
(गोपाल कृष्ण सिटिज़न फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज़ के सदस्य हैं. लंबे समय से पर्यावरण एवं रासायनिक प्रदूषण के मुद्दे पर काम कर रहे हैं)