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शिकायत निवारण का सवाल और लोकपाल

Dec 23, 2011 | Panini Anand

टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल क़ानून के प्रारूप को लेकर जो चिंताएं सबसे ज़्यादा गंभीर हैं उनमें से एक है शिकायत निवारण की व्यवस्था को इसी एक क़ानून में अंतर्निहित करना. इंडिया अगेस्ट करप्शन की ओर से शिकायत निवारण की व्यवस्था को लेकर एकबार फिर नया सुर सुनने को मिल रहा है कि इसे सिटिज़न चार्टर यानी नागरिक संहिता के ज़रिए देखा जाए और इसे लोकपाल के अधीन रखा जाए. आईएसी की इस राय से इतर कई अगल समूहों ने लगातार इसके खतरों और नुकसानों को इंगित करते हुए इसे एक अलग क़ानून के तौर पर लाने की वकालत की है. अब, केंद्रीय कैबिनेट ने स्पष्ट कर दिया है कि शिकायत निवारण अधिकार क़ानून के रूप में एक अलग व्यवस्था देश में लागू की जाएगी जिससे कि सरकारी दफ्तरों में रोज़मर्रा की शिकायतों, समस्याओं से जूझ रहे लोगों को राहत मिले. अगर ऐसा होता है तो इससे पहला सीधा लाभ यह होगा कि शिकायत निवारण क़ानून के रूप में लोगों के पास एक क़ानून होगा जो हर योजना, परिजोयना, सुविधा, सहायता या विभागों द्वारा प्रदत्त होने वाली सेवाओं को एक क़ानूनी हक़ के रूप में स्थापित करेगा. यानी लोगों से जुड़ी सहूलियतों को और उनके अधिकारों को, चाहे वो किसी भी विभाग से संबंधित हों, इस क़ानून के माध्यम से एक वैधानिक अधिकार बनाया जा सकेगा. 

 
दूसरा बड़ा लाभ यह होगा कि लोकपाल के ऊपर शिकायत निवारण के सबसे बड़े संभावित कार्यभार से भी लोकपाल को मुक्त किया जा सकेगा और इससे लोकपाल भ्रष्टाचार के मामलों पर एकाग्र होकर काम कर सकेंगे. इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश में बहुमत जनता भ्रष्टाचार से कहीं ज़्यादा प्रशासनिक और विभागों की लापरवाही और उपेक्षा की शिकार है. काम न करना या लोगों को उनके अधिकार, सेवाएं, सुविधाएं या सहायताएं निर्धारित समय में न देना सरकारी विभागों के लिए सामान्य हो चली बात है. ऐसे में अगर शिकायत निवारण के लिए अलग क़ानून न बनाकर इसे लोकपाल के दायरे में ही रखा जाएगा तो लोकपाल भ्रष्टाचार से कई गुना ज़्यादा शिकायत निवारण के मुद्दों से जूझ रहा होगा और इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी लोकपाल की जनभावना धरी की धरी रह जाएगी. लोकपाल भ्रष्टाचार के मामलों से तो निपटने का समय ही नहीं निकाल सकेगा, उल्टा जन लोकपाल का आईएसी द्वारा सुझाया गया ढांचा शिकायतों के बोझ तले दम तोड़ देगा और जन लोकपाल एक अव्यवहारिक और अप्रभावी क़ानून बनकर रह जाएगा. लोकपाल की संस्था को और उसके महत्व को अगर हम गंभीरता से लेना चाहते हैं तो उसको ऐसी आशंकाओं से बाहर रखना होगा. उसके दायित्वों को स्पष्ट और एक व्यवहारिक दायरे में रखना होगा. इसलिए ज़रूरी है कि जन शिकायत निवारण क़ानून को लोकपाल के दायरे में लाने के एक हठी पूर्वाग्रह से बाहर निकला जाए.
 
कैबिनेट द्वारा जन-शिकायत निवारण अधिकार क़ानून के जिस प्रारूप को तैयार किया है और मंजूरी दी गई है, वो अभी तक जनता के सामने आना बाकी है. यहाँ तक कि कैबिनेट के बाहर भी इस बाबत किसी के पास जानकारी नहीं है कि इस मसौदे में सरकार ने किन बातों को शामिल किया है. फिर भी, अन्ना हजारे ने बिना मसौदा देखे ही एक अलग जन शिकायत निवारण कानून बनाने की आवश्यकता पर अपना विरोध दर्ज करा दिया है. उन्होंने स्पष्ट कह दिया गया है कि शिकायत निवारण और उसके लिए इंडिया अगेंस्ट करप्शन की ओर से सुझाई गई सिटिज़न चार्टर वाली व्यवस्था को लोकपाल के अधीन ही रखा जाए. इससे अलग वो किसी भी तरह की व्यवस्था के पक्षधऱ नहीं हैं. अन्ना हजारे का यह तर्क फिलहाल समझ से परे है क्योंकि टीम अन्ना में खुद इस बात को लेकर कई राय हैं. टीम अन्ना के कुछ विशेषज्ञ श्रेणी के सदस्य इस बात से सहमति जताते रहे हैं कि एक पृथक शिकायत निवारण व्यवस्था भी बनाई जा सकती है. अन्ना हजारे का बिना मसौदा देखे इस क़ानून को बनाने की कोशिशों का विरोध इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि टीम अन्ना के दो सदस्य, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण कई बार बहसों, चर्चाओं और मंचों पर यह कह चुके हैं कि अगर सरकार शिकायत निवारण क़ानून को लोकपाल के साथ ही लाती है तो इसे लोकपाल के बाहर रखते हुए भी लागू किया जा सकता है और वे इससे सहमत होंगे. ऐसा लग रहा है कि सरकार मौजूदा सत्र में ही शिकायत निवारण अधिकार क़ानून लाने की तैयारी कर चुकी है. सत्र के इस सप्ताह में कभी भी यह मसौदा सदन के पटल पर लाया जा सकता है. लेकिन, अब टीम अन्ना शिकायत निवारण के मामले पर अपनी ही बातों से पीछे हट रही है. इन ताज़ा बयानों से साफ दिख रहा है कि शिकायत निवारण का मसला कोई व्यवहारिक सवाल या सैद्धांतिक मुद्दा न होकर अब टीम अन्ना के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है और इस मामले में अब वे व्यवहारिक होने के बजाय पूर्वाग्रही बनते नज़र आ रहे हैं. शिकायत निवारण क़ानून को लेकर टीम अन्ना के भीतर बार बार बयानों का बदल जाना या अलग-अलग रायों का सामने आना उनकी इस बाबत कमज़ोरी और अस्पष्टता को रेखांकित करता है.
 
ऐसा नहीं है कि सरकार मसौदा जो पेश करने वाली है, उसमें कोई कमी नहीं हो सकती है या उनकी ओर से जो मसौदा जनता के समक्ष चर्चा के लिए रखा गया था, उसमें कुछ कमज़ोरियां नहीं थीं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन कमियों और चिंताओं को लेकर सरकार के पास लोगों के सुझाव नहीं पहुंचे हैं और सरकार इनसे अवगत नहीं है. पिछले दिनों शिकायत निवारण के मुद्दे पर ही सूचना के अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) द्वारा दिल्ली में आयोजित हुए एक राष्ट्रीय सम्मेलन में लोगों ने अपनी चिंताएं और इस क़ानून के संभावित स्वरूप को सरकार के सामने रखा था. इस सुझावों के बारे में विभिन्न राजनीतिक दलों और स्टेंडिंग कमेटी के सदस्यों के समक्ष भी इन बातों को रखा गया है और सरकार इन बातों को दरकिनार कर क़ानून नहीं बना सकती है. अगर सरकार ऐसी कोई कोशिश करती भी है तो ऐसी स्थिति में जन शिकायत निवारण क़ानून के लिए एक मज़बूत आंदोलन खड़ा करके सरकार को बाध्य किया जाना चाहिए कि वो एक ऐसे क़ानून को लागू करे जो व्यवहारिक हो और प्रभावी भी. जिसमें लोगों की ज़रूरतों को समझते हुए नियम कायदे बनाए गए हो. ज़रूरत इस बात की है कि हम एक मज़बूत शिकायत निवारण अधिकार क़ानून के लिए संघर्ष करें न कि उसे लोकपाल के गले का फंदा बनाए जिसके कारण न तो शिकायत निवारण की व्यवस्था सुचारू रूप से लागू हो सके और न ही लोकपाल भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर पूरी तरह से ध्यान लगा सके.
 
एक और संकट यह भी है कि टीम अन्ना की ओर से शिकायत निवारण की जो व्यवस्था लोकपाल के तहत बनाने की बात कही जा रही है, वो किसी भी तरह की व्यापकता और दूरदर्शिता से परे है. शिकायत निवारण की आईएसी द्वारा प्रस्तावित व्यवस्था सिटिज़न चार्टर के आगे नहीं बढ़ती. अब यह समझना ज़रूरी है कि क्या केवल सिटिज़न चार्टर बनाकर ही शिकायत निवारण की पूरी समस्या को संभाला जा सकेगा. ऐसा इसलिए संभव नहीं है क्योंकि सिटिज़न चार्टर में नागरिकों के अधिकारों को दर्ज करने के बाद भी कई ऐसे मामले और शिकायतें बाकी रह जाएंगी जो इसका हिस्सा नहीं होंगी. ऐसे में सिटिज़न चार्टर नागरिक अधिकारों को सीमित करने का काम करेगा. फिर, सभी तरह की समस्याओं को कलमबद्ध कर पाना असंभव है. ऐसे में ज़रूरी है कि सिटिज़न चार्टर के सापेक्ष ही सरकारी विभागों और अधिकारियों के दायित्वों, कर्तव्यों (स्टेटमेंट ऑफ़ ऑब्लिगेशन) को भी रेखांकित किया जाए. इससे सीधा फायदा यह होगा कि दायित्वों के तहत सभी तरह की शिकायतों को सुनने की व्यवस्था बन सकेगी. सूचना का अधिकार क़ानून की धारा 4 में कहा गया है कि सभी विभागों को स्टेटमेंट ऑफ ऑब्लिगेशन यानी कर्तव्यों-दायित्वों की एक सूची तैयार करनी होगी और इसे सबसे आधारभूत दस्तावेज मानते हुए इसकी किसी भी अवहेलना को शिकायत माना जाएगा. अगर हम इसे प्रभावी ढंग से लागू करा सकें तो सिटिज़न चार्टर की कमियों को शिकायतों की एक व्यापक व्याख्या से जोड़ा जा सकेगा. साथ ही, शिकायतों निवारण के लिए ज़िला स्तर पर स्वतंत्र प्राधिकरणों का गठन करके और ब्लॉक या वार्ड स्तर पर स्वतंत्र नागरिक सहायता केंद्रों की स्थापना करके हम देश के अधिकतम लोगों के लिए एक सुलभ और व्यवहारिक क़ानून बना सकेंगे.
 
एक और अहम बात यह है कि जन लोकपाल का मसौदा निजी क्षेत्र या अर्धसरकारी क्षेत्र को, कॉर्पोरेट जगत को अपने दायरे से बाहर रखकर चल रहा है. सरकार की ओर से शिकायत निवारण क़ानून का जो मसौदा लोगों के बीच चर्चा के लिए रखा गया था, उसमें ऐसे निजी व कॉर्पोरेट क्षेत्र में भी इसे लागू करने की पैरवी की गई है जिसकी सेवाएं सरकारी महकमे के अधीन हैं या रही हैं. इस तरह से हम पाते हैं कि जन लोकपाल से बाहर निकलकर एक व्यापक और व्यवहारिक शिकायत निवारण क़ानून की गुंजाइश पैदा हुई है. ज़रूरत इस बात की है कि शिकायत निवारण की व्यवस्था को एक व्यापक, स्वतंत्र और व्यवहारिक क़ानून बनवाने की दिशा में एकजुट हुआ जाए न कि इसे निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किसी पूर्वाग्रह से बंधे रहा जाए क्योंकि अंत में ये चीज़ें लोगों के लिए ही लागू होनी है और उन्हें ही इस्तेमाल करनी है.
 
(यह लेख बीते सोमवार जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था)

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