Skip to content
Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Primary Menu Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us
  • Featured

रीटेल में एफ़डीआईः दावे और सच्चाई

Sep 16, 2012 | Abhishek Srivastava

कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने खुदरा कारोबार में 51 फीसदी एफडीआई को कैबिनेट के एक फैसले में मंजूरी दे दी है. भारत में बहुराष्ट्रीय रीटेलरों के प्रवेश की यह राह बनाएगा जिससे करोड़ों भारतीयों का रोजगार और आजीविका छिन जएगी. 

 
भारतीय समाज और राजनीति का एक बड़ा तबका रीटेल में एफडीआई का विरोधी रहा है. कैबिनेट में इस बाबत फैसला संसद सत्र के दौरान लिया गया जिसके चलते संसद के भीतर भी विरोध की आवाजें उठीं. तकरीबन सभी दलों ने इस फैसले को पलटने की मांग की. सरकार ने हालांकि जोर देकर कहा कि इस कार्यकारी फैसले के लिए संसद की मंजूरी जरूरी नहीं है. सरकार के इस अडि़यल रवैये ने ही गतिरोध पैदा कर दिया और संसद की कार्यवाही पर असर पड़ा. 
 
सरकार का रवैया इस मामले में अलोकतांत्रिक और अस्वीकार्य है. यह सरकार भारत की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को सुनने के बजाय बहुराष्ट्रीय रीटेलरों के लिए लॉबिंग करने वाली पश्चिमी सरकारों को उपकृत करने में लगी है. 
 
संसद की वाणिज्य पर स्थायी समिति ने मई 2009 में रीटेल में एफडीआई पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी. सभी पहलुओं को पढ़ कर और सभी पक्षकारों से परामर्श कर के समिति ने सिफारिश की थी कि रीटेल में एफडीआई को मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए. इस समिति के सदस्यों में अन्य संसदीय दलों के अलावा कांग्रेस के भी सदस्य थे. समिति की सिफारिश के खिलाफ एक भी असहमति की आवाज उसके भीतर मौजूद नहीं थी, बावजूद इसके सरकार अपने फैसले पर आगे बढ़ती रही और इस तरह उसने संसदीय समिति की एक राय से की गई सिफारिश की उपेक्षा कर डाली. 
 
बहुत दिन नहीं हुए जब सरकार खुद लोकपाल विधेयक पर राष्ट्रीय सहमति बनाने हेतु उसे संसदीय समिति के पास भेजने के पक्ष में थी. अन्ना हजारे और उनकी टीम पर आरोप लगाया गया कि वे संसदीय समिति का अतिक्रमण कर के संसदीय प्रक्रिया का उल्लंघन कर रहे हैं. आज वही सरकार खुद अपनी ही बनाई संसदीय समिति की एफडीआई पर रिपोर्ट को ठुकरा कर उसकी अवमानना करने पर तुली है. 
 
पहले भी केंद्र में बैठी सरकारों ने रीटेल मेंएफडीआई पर काफी जोर लगाया है. भाजपानीत एनडीए सरकार ने 2002 में इस पहल की शुरुआत की लेकिन विपक्ष के दबाव में इसे छोड़ दिया. उस दौरान न सिर्फ वाम दलों ने इसका विरोध किया था बल्कि खुद लोकसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक ने इसे ‘‘राष्ट्रविरोधी’’ करार दिया था. बाद में 2004 के चुनावों के दौरान एनडीए के दृष्टिपत्र में रीटेल में एफडीआई की पैरवी की गई. 
 
यूपीए-1 के कार्यकाल के दौरान एक बार फिर रीटेल में एफडीआई को लाने की कोशिश शुरू हुई. वाम दलों ने इस कदम का तगड़ा विरोध किया और अक्टूबर 2005 में उन्होंने यूपीए सरकार को एक नोट भेजा जिसके बाद इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. उस वक्त भाजपा ने कांग्रेस का मखौल उड़ाया कि वह वाम दलों के कारण ‘‘आर्थिक सुधारों’’ को आगे नहीं बढ़ा पा रही है. आज, जब यूपीए-2 ने एक बार फिर इस जनविरोधी कदम को उठा लिया है, तो इसका विरोध करने के लिए न सिर्फ समूचा विपक्ष खड़ा हो गया है बल्कि खुद कांग्रेस के गठबंधन सहयोगी भी सक्रिय हो गए हैं. 
 
हर तरफ से आ रहे विरोध के चलते सरकार अब कने लगी है कि राज्य सरकारें रीटेल में एफडीआई को स्वीकारने या खारिज करने को आजाद हैं और जो राज्य इस कदम के विरोधी हैं वहां बहुराष्ट्रीय रीटेलर अपनी दुकान नहीं खोलेंगे. यह दलील फर्जी है क्योंकि किसी भी राज्य में खुलने वाली रीटेल श्रृंखला के असर दूसरे राज्यों में भी महसूस किए जाएंगे. बाजार के किसी भी सेगमेंट में विशाल बहुराष्ट्रीय रीटेलरों का प्रवेश माॅल के खुदरा विक्रेताओं, किसानों और देश भर के लघु उत्पादकों पर असर डालेगा. इसके अलावा एक बार यदि एफडीआई को केंद्र में मंजूरी दे दी गई तो राज्य सरकारों द्वारा इसके रोके जाने को आलत में चुनौती दी जा सकती है. इसीलिए रीटेल में एफडीआई एक राष्ट्रीय मुद्दा है जिस पर संसद को अपनी राय देनी ही चाहिए. 
 
सवाल और जवाब 
 
घरेलू खुदरा क्षेत्र पर रीटेल में एफडीआई का क्या असर होगा?
 
भारत का खुदरा क्षेत्र कृषि के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देता है. हालिया राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2009-10 के मुताबिक 4 करोड़ लोग इस क्षेत्र में कार्यरत हैं. इनमें से अधिकतर छोटे असंगठित और स्वरोजगाररत खुदरा कारोबारी हैं जिन्हें अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में लाभकर रोजगार मिलना मुश्किल या असंभव है. 
 
भारत के उच्च जीडीपी वृद्धि दर के हो-हल्ले के बावजूद एनएसएस 2009-10 ने इस बात की पुष्टि की है कि यह वृद्धि रोजगारों को नहीं बढ़ा रही. कुल रोजगार वृद्धि दर 2000-2005 के दौरान 2.7 फीसदी से घट कर 2005-2010 के दौरान सिर्फ 0.8 फीसदी रह गई है. गैर-कृषि रोजगार में वृद्धि दर 4.65 फीसदी से गिर कर 2.53 फीसदी रह गई है. राष्ट्रीय स्तर पर सभी कामगारों के बीच करीब 51 फीसदी स्वरोजगाररत थे, 33.5 फीसदी अनियमित मजदूर थे और सिर्फ 15.6 फीसदी नियमित वेतन/दिहाड़ी पाने वाले कर्मचारी थे. 
 
ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट और हाइपरमार्केट श्रृंखलाओं का प्रवेश छोटे और असंगठित खुदरा विक्रेताओं को बड़े पैमाने पर विस्थापित करेगा. आईसीआरआईईआर द्वारा असंगठित रीटेलरों का 2008 में किया गया नमूना सर्वेक्षण बताता है कि एक असगठित खुदरा व्यापारी की दुकान का औसत आकार करीब 217 वर्ग फुट है जिसमें हॉकरों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले ठेले और कियोस्क नहीं शामिल हैं (इम्पैक्ट ऑफ ऑर्गनाइज्ड रीटेलिंग ऑन द अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर, आईसीआरआईईआर, मई 2008). रिपोर्ट के मुताबिक असंगठित रीटेल का कुल सालाना कारोबार 2006-07 में 408.8 अरब डॉलर था और कुल पारंपरिक दुकानों की संख्या 1.3 करोड़ थी. लिहाजा एक दुकान का सालाना औसत कारोबार 15 लाख रुपए के आसपास आता है. सर्वे के मुताबिक एक औसत दुकान में दो से तीन लोग काम करते हैं. 
 
अमेरिका में वाल मार्ट सुपरमार्केट का औसत आकार 108000 वर्ग फट होता है जिसमें 225 लोग काम करते हैं. वाल मार्ट ने 2010 में 28 देशों के अपने 9800 आउटलेट से अरबों डॉलर के सामानों की बिक्री की जिनमें कुल 21 लाख लोग रोजगाररत थे. 
 
इसका अर्थ यह हुआ कि वाल मार्ट की एक दुकान भारत की 1300 छोटी दुकानों को निगल जाएगी और 3900 लोग एक झटके में बेरोजगार हो जाएंगे. इसके बदले उस स्टोर में कुल 214 नौकरयां सृजित होंगी (या फिर अमेरिकी औसत अधिकतम 225). ज़ाहिर है, यदि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारत में प्रवेश दिया गया तो रोजगारों में भारी कटौती होगी. 
 
क्या रीटेल में एफडीआई देने से तीन साल में एक करोड़ नौकरियां सृजित होंगी?
 
वाणिज्य मंत्री ने दावा किया था कि रीटेल में एफडीआई के आने से तीन साल में एक करोड़ रोजगार पैदा होंगे और प्रत्यक्षतः 40 लाख रोजगार पैदा होंगे, बाकी बैक एंड के कामों में पैदा होंगे. नीचे हम दुनिया भर में शीर्ष चार रीटेलरों के स्टोर और उनमें काम करने वाले लोगों के आंकड़े दे रहे हैः 
 
कंपनी     दुनिया में कुल स्टोर  कुल कर्मचारी          प्रति स्टोर औसत कर्मचारी
वाल मार्ट     9826                           21,00,000          214
कारेफूर     15937                           4,71,755           30
मेट्रो               2131                           2, 83,280           133
टेस्को       5380                          4,92,714            92
 
इसका मतलब यह हुआ कि यदि तीन साल में 40 लाख नौकरियां भी पैछा करनी हैं, तो अकेले वाल मार्ट को भारत में 18600 सुपरमार्केट यहां खेलने होंगे. यदि इन चार शीर्ष रीटेलरों का औसत निकाला जाए, यानी 117 कर्मचारी प्रति स्टोर, तो तीन साल में 40 लाख लोगों को नौकरी देने के लिए 34180 से ज्यादा सुपरमार्केट खोलने होंगे यानी प्रत्येक 53 शहरों में 64 सुपरमार्केट. क्या वाणिज्य मंत्री के ऐसे अटपटे दावे को गंभीरता से लिया जा सकता है? 
 
इसके अलावा, हमारा पहले का अनुमान बताता है कि सुपरमार्केट में पैदा हुई हर एक नौकरी के लिए भारतीय असंगठित खुदरा क्षेत्र में 17 लोगों की नौकरी चली जाएगी. यानी यदि तीन साल में सुपरमार्केटों में 40 लाख लोगों को नौकरी मिलेगी, तो भारत में समूचा असंगठित खुदरा क्षेत्र (4 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला) पूरी तरह साफ हो जाएगा. 
 
क्या सरकार द्वारा लागू की गई बंदिशें भारतीय रीटेलरों की रक्षा कर पाएंगी?
 
शुरुआत में 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 53 शहरों में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट खोले जाने की बंदिश निरर्थक है क्योंकि असंगठित क्षेत्र के अधिकतम छोटे खुदरा विक्रेता इन्हीं शहरों में हैं. इन 53 शहरों में 17 करोड़ लोग हैं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या दो करोड़ से ज्यादा है. यहीं सबसे ज्यादा विस्थापन होगा. बहुराष्ट्रीय रीटेलरों की दिलचस्पी सबसे ज्यादा बाजार के महानगरीय और शहरी सेगमेंट को कब्जाने की है जहां लोगों की क्रय शक्ति ज्यादा है. अर्धशहरी या ग्रामीण इलाकों में काम करने में उनकी दिलचस्पी नहीं है. 
 
रीटेल में 500 करोड़ के न्यूनतम निवेश की शर्त भी बेकार है क्योंकि जो कंपनियां भारतीय बाजार में प्रवेश करने की इच्छुक हैं, वे विश्वव्यापी हैं. सबसे बड़ी कंपनी वाल मार्ट का सालाना राजस्व 400 अरब डॉलर है और कारेफूर, मेट्रो या टेस्को का भी सालाना कारोबार 100 अरब डॉलर से ज्यादा है. अपने देशों यानी अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इंगलैंड इत्यादि में इन्हें मंदी का सामना करना पड़ रहा है, इसीलिए ये उभरते हुए बाजारों जैसे भारत में आना चाहती हैं. इनके पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं और इन्हें पता है कि घरेलू रीटेलरों को बाजार से बाहर करने के लिए विभिन्न आकार और प्रकार के आउटलेट कैसे खोले जा सकते हैं. 
 
हो सकता है कि भारत में मौजूदा बड़े रीटेलरों को ये कंपनियां खरीद लें. इसी तरीके से लातिन अमेरिका और एशिया के अन्य देशों में इन्होंने अपना कारोबार फैलाया है. मसलन, 1991-92 में वाल मार्ट ने मेक्सिको में प्रवेश के दौरान स्थानीय रीटेलर सिफ्रा के साथ 50-50 फीसदी की हिस्सेदारी कर ली. 1997 तक इसने अधिकांश हिस्सेदारी ले ली और 2000 तक इस संयुक्त उद्यम में साठ फीसदी हिस्सा ले लिया. वाल मार्ट अकेले समूचे मेक्सिको में कुल खुदरा बिक्री का 25 फीसदी हिस्सेदार है और विशानल रीटेलरों के कुल विक्रय में इसकी हिस्सेदारी 43 फीसदी है.
 
क्या भारत के छोटे और मझोले उद्यमों को वैश्विक रीटेलरों के आने से लाभ होगा?
 
सरकार द्वारा छोटे और मझोले उद्यमों से 30 फीसदी सामान खरीदने की बहुराष्ट्रीय रीटेलरों पर लादी गई अनिवार्यता ने भ्रम पैदा करने का काम किया है. वाणिज्य मंत्री कहते हैं कि यह प्रावधान भारत के छोटे और मझोले उद्यमों के लिए किया गया है, लेकिन उन्हीं के मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस नोट साफ तौर पर कहता है, ‘‘तीस फीसदी खरीदारी छोटे और मझोले उद्यमों से की जानी है जो दुनिया के किसी भी हिस्से से की जा सकती है और यह भारत के लिए बाध्य नहीं है. हालांकि इस मामले में यह प्रावधान है कि 30 फीसदी खरीदारी उन छोटे और मझोले उद्यमों से की जाएगी जिनके पास 10 लाख डाॅलर के बराबर संयंत्र और मशीनरी होगी.’’ 
 
इसके अलावा गैट समझौते का अनुच्छेद 3 किसी भी पक्ष के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे पक्ष के साथ अनुबंध के तहत उसके उत्पादों को ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ प्रदान करे. इसमें साफ तौर पर घरेलू उद्योगों से संसाधन लेने की जरूरत संबंधी नियमन को बाहर रखा गया है. चूंकि भारत ने इन्हीं शर्तों पर विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ली थी, लिहाजा सिर्फ भारतीय उद्यमों से 30 फीसदी संसाधन लेने की बाध्यता वह लागू नहीं कर सकता क्योंकि इसे दूसरे देश चुनौती दे देंगे. इसके अतिरिक्त भारत ने 71 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संवर्द्धन और संरक्षण संधियां की हुई हैं जिसके तहत इन देशों के निवेशकों के साथ ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ किया जाना होगा. ज़ाहिर है ये देश अपने यहां के छोटे और मझोले उद्यमों से सामग्री आयात की बात कहेंगे. इसका मतलब यह हुआ कि 30 फीसदी की अनिवार्यता का व्यावहारिक अर्थ दुनिया भर के छोटे व मझोले उद्यमों से सस्ते उत्पाद मंगवा कर शुल्क संरक्षण का उल्लंघन करते हुए इन्हें भारत में डम्प करना हुआ जो सीधे तौर पर भारतीय किसानों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा. सरकार के पास इसे रोकने का कोई तरीका नहीं है. 
 
क्या बहुराष्ट्रीय रीटेलर हमारी खाद्य आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण कर देंगे?
 
वाणिज्य मंत्रालय का दावा है कि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों द्वारा किए गए निवेश का आधा हिस्सा हमारे बुनियादी ढांचे के विकास में खर्च होगा जिससे आपूर्ति श्रृंखला आधुनिक बनेगी, सक्षमता बढ़ेगी और संसाधनों की बरबादी कम होगी. यदि इन कंपनियों को ताजा फल, सब्ज़ी, दुग्ध उत्पाद और मीट भारी मात्रा में बेचना है, तो उन्हें अपने हित में बुनियादी ढांचे को विकसित करना मजबूरी होगी. लेकिन शीतगृह, प्रशीतन वाले परिवहन और अन्य व्यवस्थाएं जो वे लागू करेंगे, वे पूरी तरह उनके अपने कारोबार को समर्पित होंगे, किसानों और उपभोक्ताओं के व्यापक हितों के लिए नहीं. इसलिए यह दावा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां आपूर्ति श्रृंखला को आधुनिक बना देंगी, सिर्फ एक दुष्प्रचार है. 
 
अमेरिका में 1578 कोल्ड स्टोरेज में से 839 सरकारी हैं और 739 निजी या अर्ध-सरकारी. सरकारी गोदाम कहीं ज्यादा बड़े हैं जिनमें कुल भंडारण क्षमता का 76 फीसदी आता है जबकि निजी खेत्र के गोदामों की हिस्सेदारी महज 24 फीसदी है. भारत में 5381 कोल्ड स्टोरेज हैं जो अपेक्षया छोटे आकार के हैं, जिपमें से 4885 निजी क्षेत्र के हैं, 356 सहकारी हैं और सिर्फ 140 सरकारी हैं. भरत की कुल भंडारण क्षमता में निजी क्षेत्र का हिस्सा 95 फीसदी से ज्यादा का है जबकि सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी सिर्फ 0.44 फीसदी है. इसके अलावा 75 फीसदी से ज्यादा क्षमता का उपयोग सिर्फ आलू रखने के लिए होता है. नतीजतन कोल्ड स्टोरेज का औसत उपयोग सिर्फ 48 फीसदी के आसपास हो पाता है. 
 
चीन, जो कि हर साल 50 करोड़ टन खाद्यान्न पैदा करता है, वहां कोल्ड स्टोरेज की क्षमता महज 39 करोड़ टन की है जो मोटे तौर पर सरकारी कंपनी साइनोग्रेन से संचालित होते हैं. इस सरकारी निगम ने न सिर्फ यहां के खाद्यान्न प्रबंधन को आधुनिक बनाया है बल्कि यह खाद्यान्न और तेल प्रसंस्करण के क्षेत्र में भी अपना विस्तार कर चुका है. इसके बरक्स भारत में कुल खाद्यान्न उत्पादन 23 करोड़ टन है जबकि कुल भंडारण और कोल्ड स्टोरेज क्षमता पांच करोड़ टन की है. एफसीआई और केंद्रीय भंडार की क्षमता 4 करोड़ टन की है, बाकी राज्यों के केंद्रीय भंडार निगम जरूरत को पूरा करते हैं. पर्याप्त भंडारण की इस कमी के चलते अधिकतर अनाज बरबाद हो जाता है और सरकारी खरीद पर भी बंदिशें लग जाती हैं. 
 
भारत जैसे बड़े देश में आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रास्ते नहीं हो सकता जो कि सिर्फ अपने कारोबारी लाभ के बारे में सोचती हैं. भंडारण क्षमता को सरकारी और सहकारी क्षेत्र में बढ़ाने की बहुत जरूरत है और इनका प्रबंधन दुरुस्त करने की दरकार है. रीटेल में एफडीआई सक्रिय जनभागीदारी और इस निर्णायक क्षेत्र में सरकारी निवेश का विकल्प नहंी बन सकता.
 
क्या भारतीय किसानों को रीटेल में एफडीआई से लाभ होगा?
 
रीटेल में एफडीआई के पैरोकार दावा कर रहे हैं कि बिचैलियों के सफाए और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा सीधी खरीद से किसानों को बेहतर दाम मिलेंगे. सच्चाई यह है कि मौजूदा बिचैलिओं के मुकाबले बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसानों से मोलभाव करने की ज्यादा मजबूत स्थिति में होंगी. 
 
मौजूदा मंडियों को आधुनिक बनाने और उनके प्रभवी नियमन की यहां बहुत जरूरत है क्योंकि इनमें व्यापारिकयों के बीच गोलबंदी देखी जाती है जिसके चलते छोटे किसानों को नुकसान होता है और उनसे अपना मुनाफा कमा कर व्यापारी अनाज की तहबाजारी और कालाबाजारी कर लेते हैं. हालांकि, कृषि खरीद में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश इस समस्या को और बदतर बना कर छोड़ेगा. आज मंडियां जिस तरीके से काम करती हैं, जहां किसानों से उनके उत्पाद खरीदने के लिए व्यापारियों को प्रतिस्पर्धा करनी होती है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने के बाद खरीदार सिर्फ एक होगा. इसके चलते किसान उन पर पूरी तरह निर्भर हो जाएंगे और उनके शोषण की गुंजाइश और ज्यादा बढ़ जाएगी. 
 
अंतरराष्ट्रीय तजुर्बा इस बात की तस्दीक करता है. यूरोपीय संघ की संसद के अधिकांश सदस्यों ने फरवरी 2008 में एक संकल्प पारित किया था जो कहता है, ‘‘यूरोपीय संघ में खुदरा बाजार पर अधिकतर सुपरमार्केट श्रृंखलाओं काकब्जा होता जा रहा है… यूरोपीय संघ से इकट्ठा किए गए साक्ष्य बताते हैं कि बड़े सुपरमार्केट खरीदने की अपनी क्षमता का दुरुपयोग कर के आपूर्तिकर्ताओं को मिलने वाले दाम को अनपेक्षित स्तरों तक गिरा रहे हैं (यूरोपीय संघ के भीतर और बाहर दोनों जगह) और उन पर पक्षपातपूर्ण शर्तें थोप रहे हैं.’’ फ्रांस, इटली, नीदरलैंड्स, बेल्जियम, आयरलैंड और हंगरी जैसे यूरोपीय देशों के किसानों द्वारा सुपारमार्केट के विरोध के बाद यह संकल्प पारित किया गया था. इन सभी की शिकायतें एक सी थींः दूध, मीट, कुक्कुट, वाइन आदि उत्पादों के मामले में सुपरमार्केट चलाने वाले रीटेलर किसानों को चूस रहे थे और कई मामलों में उन्हें लागत से नीचे के दाम पर उत्पादों की बिक्री करने के लिए मजबूर कर रहे थे. घरेलू खाद्य और कृषि बाजारों में निगमों के संकेेद्रण और प्रतिस्पर्धा पर 2010 में अमेरिकी जस्टिस और कृषि विभाग ने संयुक्त रूप से कार्यशालाएं और जन सुनवाइयां भी आयोजित की थीं. 
 
दक्षिण दशियाई देशों के अनुभव भी बताते हैं कि सुपरमार्केट के विस्तार से छोटे किसानों को कोई लाभ नहीं होता. मलयेशिया और थाइलैंड में सुपरमार्केटों ने समय के साथ सब्जि़यों और फलों के आपूर्तिकताओं की संख्या घटाई और किसानों के बजाय थोक विक्रेताओं व दूसरे बिचैलियों से उत्पाद खरीदने में लग गए. इसके अलावा कई अध्ययनों में इन सुपरमार्केट द्वारा अनियमितताएं भी सामने आई हैं जैसे भुगतान में देरी, आपूर्तिकर्ता के निर्विकल्प होने की स्थिति में आखिरी वक्त पर दाम में कमी, बगैर नोटिस और समर्थन के मात्रा और गुणवत्ता में लाया गया बदलाव, बगैर उपयुक्त कारण से आपूर्तिकर्ता को सूची में से हटा देना और कर्ज पर भारी ब्याज वसूलना, इत्यादि. 
 
भारत में अधिकांश किसान छोटे और हाशिये के हैं जो दो हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती करते हैं. आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या लागत में इजाफा, कम दाम, संस्थागत कर्ज तक पहुंच का अभाव, प्रौद्योगिकी और बाजार से जुड़ी हंै. इन्हें सरकारी मदद और प्रोत्साहन की जरूरत है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खरीद इनकी समस्या को सुलझाने के बजाय इन्हें और बदहाल बनाएगी. 
 
क्या सुपरमार्केट के बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालन से मुद्रास्फीति को थामा जा सकता है?
 
सरकार द्वारा रीटेल में एफडीआई के समर्थन में किया गया सबसे बड़ा दुष्प्रचार यही है कि यह महंगाई को कम करेगा. विशाल रीटेल श्रृंखलाओं के आने से प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाती है और बाजार में एकाधिकार स्थापित हो जाता है. बाजार में संकेंद्रण लंबी दौड़ में महंगाई को बढ़ाता है. 
 
दुनिया भर में पिछले दो दशक के दौरान खाासकर विशाल संगठित रीटेलरों का हिस्सा बढ़ा है. हालांकि इससे महंगाई कम नहीं हुई है, बल्कि 2007 के बाद से वैश्विक खाद्यान्न कीमतों में तीव्र इजाफे का श्रेय खाद्य श्रृंखला और व्यापार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकारी नियंत्रण को ही जाता है. 2011 के मध्य में एफएओ की वैश्विक खाद्यान्न कीमतें एक बार फिर रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच गई थीं, बावजूद इसके कि दुनिया भर में उस वक्त मंदी थी. 
 
सबसे विशाल वैविक रीटेलरों की भूमिका साफ दिखाती है कि सुपरमार्केट महंगाई को थाम पाने में नाकाम हैं. वाल मार्ट ने अपना वैश्विक नारा ‘‘हमेशा कम कीमतें, हमेशा’’ को 2007 में छोड़ दिया और उसकी जगह नारा लाया गया ‘‘पैसा बचाओ, बेहतर जियो’’. वाल मार्ट ने 2011 में अपने अमेरिकी प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले सभी खाद्यान्न उत्पादों जैसे ब्रेड, दूध, कॉफी, पनीर इत्यादि के दाम बढ़ा दिए. कारेफूर ने भी इस साल फ्रांस में दाम बढ़ाए हैं. टेस्को ने आयरलैंड में 2011 में ही 8000 उत्पादों के दाम बढ़ा दिए थे ताकि फरवरी में वित्त वर्ष के अंत से पहले वह मुनाफा कमा सके और इसके बाद बड़ी चालाकी से उसने मार्च में बिक्री बढ़ाने के लिए दामों में कटौती कर दी. 
 
विशाल रीटेलर कम मार्जिन पर ज्यादा सामग्री बेचकर मुनाफा कमाते हैं. जब कभी उनकी बिक्री कम होती है, वे दाम बढ़ाने को मजबूर हो जाते हैं ताकि अपने मुनाफे को समान स्तर पर बनाए रख सकें. कारोबार चलाने के लिए मुनाफे का यह स्तर ही उनका पैमाना होता है, महंगाई थामने की कोई कटिबद्धता इनके साथ नहीं होती. जब 2009 में मंदी आई थी, उस साल 250 शीर्ष वैश्विक रीटेलरों की खुदरा बिक्री में सिर्फ 1.3 फीसदी का इजाफा हुआ था जबकि 90 रीटेलरों की बिक्री के आकार में गिरावट आई थी. हालांकि 250 शीर्ष रीटेलरों का शुद्ध मुनाफा 2008 के 2.4 फीसदी के मुकाबले 2009 में फिर भी 3.1 फीसदी रहा था. लागत कटौती के उपायों के साथ कीमतें बढ़ाने के चलते ही यह संभव हो सका था. 
 
यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां दूसरे देशों में सुपरमार्केट चला सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं?
 
विकसित देशों के अनुभव बताते हैं कि हाइपरमार्केट और सुपरमार्केट के आने से रीटेल बाजार में संकेंद्रण बड़े पैमाने पर पैदा हो जाता है. आॅस्ट्रेलिया में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 97 फीसदी पहुंच गया है जबकि इंगलैंड और अन्य यूरोपीय देशों में यह 50 फीसदी से ज्यादा पर बना हुआ है. विकासशील देशों के बीच भी दक्षिण अफ्रीका में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी 80 फीसदी से ज्यादा है, ब्राज़ील में 25 फीसदी से ज्यादा है और रूस में कीब 10 फीसदी है. ऐसे संकेेंद्रण से छोटी खुदरा दुकानें खत्म हो गईं, आपूर्तिकर्ता बरबाद हो गए और उपभोक्ताओं के सामने विकल्पों की कमी हो गई. दुनिया भर में हाल के दिनो में वैश्विक खुदरा श्रृंखलाओं की नकारात्मक भूमिका पर काफी बहस हुई है. 
 
दक्षिण पूर्वी एशिया में पिछले दशक के दौरान रीटेल का यह आधुनिक संस्करण काफी तेजी से बढ़ा है जिसके पीछे बहुराष्ट्रीय समेत घरेलू रीटेलरों का भी हाथ है. नील्सन कंपनी की रिपोर्ट ‘‘रीटेल एंड शॉपर्स ट्रेंडः एशिया पैसिफिक, दी लेटेस्ट इन रीटेलिंग एंड शॉपर्स ट्रेंड्स फॉर दी एफएमसीजी इंडस्ट्री, अगस्त 2010’’ के आंकड़े दिखाते हैं कि 2000 से 2009 के बीच जहां कहीं ऐसे आधुनिक स्टोरों का विस्तार हुआ है (जैसे कोरिया, सिंगापुर, ताइवान, चीन, मलयेशिया और हांगकांग), वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या काफी कम हुई है. जिन देशों में इनके वस्तार की गति धीमी रही है, वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या बढ़ी है. 
 
रीटेल में एफडीआई के पैराकार अकसर इस मामले में चीन को सफलता की दास्तान के रूप में बताते हैं. इस दौरान यह छुपा लिया जाता है कि चीन में सबसे बड़ी रीटेल श्रृंखला सरकार द्वारा चलाई जाती है जिसका नाम शंघाई बेलियन समूह है जिसके देश भर में 5500 से ज्यादा सुपरमार्केट हैं. अन्य छोटी सरकारी दुकानों का भी इसमें विलय हो चुका है. इस समूह की बाजार हिस्सेदारी वाल मार्ट और कारेफूर से ज्यादा रही है और चीन में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी भी 10 फीसदी से कम रही है. इसके बावजूद चीन अपने यहां पारंपरिक दुकानों को कम होने से रोक नहीं सका है. 
 
मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड जैसे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में आधुनिक रीटेल स्टोरों पर कई बंदिशें लागू हैं. एक नियम यह है कि हाइपरमार्केट शहरी बाजारों और पारंपरिक हाट से एक निश्चित दूरी पर ही खोले जा सकते हैं. इनके न्यूनतम आकार और काम करने के घंटों पर भी नियम हैं. एक दशक पहले इन देशों में छोटे दुकानदारों द्वारा किए गए विरोध के बाद ये नियम कानून लागू किए गए. मलयेशिया ने 2002 में नए हाइपरमार्केट खोलने पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसे 2007 में उठा लिया गया. नियमन के बावजूद मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 29, 24 और 36 फीसदी है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान थाइलैंड में टेस्को और इंडोनेशिया में कारफूर के आउटलेट खोले जाने के खिलाफा काफी विरोध प्रदर्शन हुए हैं. 
 
इन मामलों से उलट भारत में अब भी आधुनिक रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी पांच फीसदी के आसपास है और कुल खुदरा बिक्री में शीर्ष पांच रीटेलरों का हिस्सा एक फीसदी से भी कम है. यह दिखाता है कि घरेलू कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा आधुनिक रीटेल के विस्तार के बावजूद अब भी पारंपरिक दुकानदार उन्हें टक्कर देने की स्थिति में बना हुआ है. हालांकि आईसीआरआईईआर और अन्य अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि बड़े रीटेल आउटलेट के पड़ोस में स्थित छोटी खुदरा दुकानों की बिक्री में गिरावट आई है. छोटे दुकानदारों की रक्षा करने और रीटेल बाजार में संकेंद्रण को रोकने के लिए जरूरी है कि एक प्रभावी नियमन का ढांचा लागू किया जाए. दुकान के आकार और उसकी अवस्थिति के संदर्भ में लाइसेंसिंग प्रणली के माध्यम से विशाल रीटेल स्टोरों की संख्या पर रोक लगाई जानी होगी. खरीद के नियम भी तय किए जाने होंगे. अब तक सरकार ने ऐसे किसी नियमन के संदर्भ में कोई परिचर्चा या रायशुमारी नहीं की है, न ही असंगठित, सहकारी और सरकारी क्षेत्र की मौजूदा रीटेल दुकानों के आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कोई पहल की गई है. 
 
रीटेल में एफडीआई को मंजूरी दिए जाने से ऐसा कोई भी नियमन असंभव हो जाएगा. उसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने धनबल का इस्तेमाल कर के अपना विस्तार करेंगी और देश भर से भारी मुनाफा काटेंगी क्योंकि भारत आज दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ एफएमसीजी बाजार है. भारतीय कॉरपोरेट अपने कारोबारों को उन्हें बेचकर उनकी मदद ही करेंगे, खासकर वे कारोबार जो काफी कर्ज लेकर अपना भारी विस्तार कर चुके हैं. इस तरह संगठित रीटेल का हिस्सा तेजी से बढ़ेगा और बदले में बड़ी संख्या में छोटे दुकानदार विस्थापित हो जाएंगे, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ जाएगी. पहले से ही बेरोजगारी की खराब तस्वीर के बाद ऐसा होने से देश में सामाजिक तनाव और असंतुलन बढ़ेगा. 
 
कुछ तबकों की ओर से दलील आ रही है कि भारतीय बाजार की वृद्धि पर्याप्त है कि वह बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केटों और असंगठित खुदरा क्षेत्र को समानांतर समाहित कर सके. हालांकि इसके पीछे यह धारणा है कि पिछले दिनों में भारत की क्रय शक्ति में वृद्धि हुई है और यह आगे भी जारी रहेगी, लेकिन यह गलत है. मंदी के संकेत अभी से ही मिलने लगे हैं. विकसित देशों में दोहरी मंदी और रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि निवेश और वृद्धि पर प्रतिकूल असर डाल रही है. ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारती बाजार में प्रवेश की अनुमति देना वृद्धि और रोजगार सृजन तो दूर, विनाश को आमंत्रित करने जैसा होगा. 
 
(साभारः सीपीएम का दस्तावेज ‘‘अपोज़ एफडीआई इन रीटेल 2011’)

Continue Reading

Previous Anti-KNPP protests get more support
Next Football: Indian eves retain SAFF title

More Stories

  • Featured

Kerala College Students Break Taboo Around Sex Education

35 mins ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Earth Likely To Cross 1.5-Degree Warming In Next Decade: AI Study

6 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Covid-19 Remains ‘Global Health Emergency’, Says WHO

7 hours ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • Kerala College Students Break Taboo Around Sex Education
  • Earth Likely To Cross 1.5-Degree Warming In Next Decade: AI Study
  • Covid-19 Remains ‘Global Health Emergency’, Says WHO
  • Working With Natural Materials To Add To The Sustainable Energy Mix
  • Gandhi’s Image Is Under Scrutiny 75 Years After His Assassination
  • Of India’s Online Schooling Emergency And The Lessons Unlearned
  • Opinion: India Raises The Heat On The Indus Waters Treaty
  • Hundreds Join Wangchuk On Final Day Of His Hunger Strike
  • ‘Fraud Cannot Be Obfuscated By Nationalism’
  • Doomsday Clock Is At 90 Secs To Midnight
  • Human Activity Degraded Over 3rd Of Amazon Forest: Study
  • Kashmir’s Nourishing Karewas Crumble Under Infrastructure Burden
  • Sprawling Kolkata Faced With A Tall Order For A Sustainable Future
  • Indian Economy Yet To Revive From Effects Of Pandemic: CPI (M)
  • New Pipelines Will Fragment Assam’s Protected Forests: Environmentalists
  • The Role Of Urban Foraging In Building Climate-Resilient Food Systems
  • Now, A ‘Private’ Sainik School Linked To RSS?
  • About 3,000 Tech Employees Being Fired A Day On Average In Jan
  • War Veteran Doctor, ‘Rasna’ Creator Are Among Padma Awardees
  • Black Days Ahead If Coal City Doesn’t Change

Search

Main Links

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us

Related Stroy

  • Featured

Kerala College Students Break Taboo Around Sex Education

35 mins ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Earth Likely To Cross 1.5-Degree Warming In Next Decade: AI Study

6 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Covid-19 Remains ‘Global Health Emergency’, Says WHO

7 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Working With Natural Materials To Add To The Sustainable Energy Mix

20 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Gandhi’s Image Is Under Scrutiny 75 Years After His Assassination

23 hours ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • Kerala College Students Break Taboo Around Sex Education
  • Earth Likely To Cross 1.5-Degree Warming In Next Decade: AI Study
  • Covid-19 Remains ‘Global Health Emergency’, Says WHO
  • Working With Natural Materials To Add To The Sustainable Energy Mix
  • Gandhi’s Image Is Under Scrutiny 75 Years After His Assassination
Copyright © All rights reserved. | CoverNews by AF themes.