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रायबरेली कबतक लिखेगा अपने दुर्भाग्य की कहानी

Feb 20, 2012 | Panini Anand

जलियांवाला बाग के बाद का दूसरा सबसे बड़ा सामुहिक नरसंहार, जिसमें सैकड़ों किसानों को घेरकर अंग्रेज़ों मे बर्बरतापूर्वक गोलियों से भूना था, इस ज़मीन के पत्थरों पर अंकित है. जायसी से लेकर सूर्यकांत त्रिपाणी निराला और महावीर प्रसाद द्विवेदी तक जिस ज़िले ने भारतीय साहित्य और रचनात्मकता को मील के पत्थर दिए हैं. जिस मिट्टी ने इस देश में स्वाधीनता की लड़ाई को वीरा पासी जैसे दलित नायक दिए. जिस ज़मीन ने देश को दो प्रत्यक्ष और एक अ-प्रत्यक्ष प्रधानमंत्री दिए. जिसने राजनारायण को जिताकर भारतीय राजनीति की अबतक की सबसे बड़ी नायिका इंदिरा गांधी को धूल चटा दी थी. उसी रायबरेली की नियति काले, उधड़े गूदड़ ओढ़कर किसी रेलवे फाटक के पास भीख मांग रही है.

 
आज रायबरेली में मतदान हो रहा है. लोग वोट डालने जा रहे हैं. कतारों में लगकर अपने दुर्भाग्य पर ठप्पे लगा रहे हैं. ऐसा कोई संकेत नहीं है जिससे रायबरेली नया इतिहास लिखता नज़र आए. और हो भी क्यों, ऐसा कोई नायक भी नहीं है जिसके लिए रायबरेली फिर से उठ खड़ा हो. सत्ता की बिसात पर हरामखोरों ने जो रंग बिखेरे हैं, रायबरेली का मतदाता उन्हीं रंगों में लोटने को मजबूर है. रायबरेली में अपनी ज़मीन से जन्मा आज का कोई भी राजनीति चेहरा न तो विचारधारा की मिट्टी में पैदा हुआ है और न ही सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष से बनकर, तपकर सामने आया है. जो हैं, वो पार्टियों में हाशिए पर हैं. उनका काम दरी और लाउडस्पीकर का हिसाब करना है. किसी दूसरी राजनीतिक धारा से आयातित कल तक के राजनीतिक दुश्मनों को आज अपने नेता के रूप में स्वीकारना और उसका प्रचार करना है. टिकट और चुनाव का खेल आपके काम पर नहीं, आपके दाम पर आधारित है. सबकुछ बाहुबल और पैसे की बदौलत तैयार हुआ है. अगर पैसा है, उस पैसे के दम पर कुछ गुण्डे और दबंग हैं, कुछ दलाल और चाटुकार हैं, जुते-चप्पल पोछने और माइक, बैनर, रोड-शो का बंदोबस्त करवाने वाले टुकड़खोर हैं तो आप राजनीति करने के लिए रायबरेली आएं. आपका स्वागत है. 
 
यहाँ एक राजनीतिक परिवार में एक माता जी हैं. उनके दो बच्चे हैं. एक शादीशुदा और बाल-बच्चेदार. दूसरा अभी तक अविवाहित है. खैंर, ये लोग रायबरेली को अपनी ज़मीन मानते हैं. ठीक वैसे ही जैसे की देश की सत्ता को ये अपनी पुश्तैनी संपत्ति मानते हैं. दादी ने ही देश और दादी ने ही ये संसदीय सीट अपनी पीढियों को उपहार में दी. वर्षों की खामोशी के बाद इस बार चुनाव प्रचार में पहली बार लोगों ने इंदिरास्टाइल प्रियंका से पूछा, पांच साल बाद ही क्यों आती हो. गांधी परिवार का जादू अभी पूरी तरह टूटा नहीं है. मतदान से तीन दिन पहले की गांधी परिवार की सक्रियता इस क्षेत्र में कांग्रेस के लिए कुछ जान फूंकने का काम कर गई है पर मोह की गगरी में दरारें पड़ने लगी हैं. विडंबना यह है कि सफेद चमड़ी वाली बहुरिया और उसकी इंदिरा कट बिटिया का मुंह देखकर भावनाओं में बहने वाला यह ज़िला अपने पांच सालों के दर्द को मतपत्र पर उतरने नहीं देता. शायद मोहभंग में कुछ बरस और लगें. प्रियंका कहती हैं, हम तो घर आए हैं. पर घर आए हैं सुदामा का चावल छीनने… सुदामा को कुछ देने नहीं. सुदामा बार-बार ठगे जा रहे हैं. भूख से लड़ते, बेरोज़गारी से लड़ते, विकास के नाम पर एक अदद फ्लाईओवर और एक बहुबार शिलान्यासित रेलवे कोच फैक्ट्री की ओर चातक की तरह देखते हुए. बेहाली के दर्द से मरोड़ती देह पर कांग्रेस परिवार का रोड-शो पानी के छींटे और चंद क्षणों के लिए राहत की हथेली का काम करता है. लोग इसी में पिघल जाते हैं. गोरी मेम की मुस्कान पर कोई काला गबरू जवान तेज़ी से कुंए से पानी भरने लगता था जैसे.
 
इस बार का चुनाव रायबरेली भीषण जातीय ध्रुवीकरण के बीच लड़ रही है. कांग्रेस की हालत पतली है. सच यह है कि सपा ने कांग्रेस को उसके ही गढ़ में नाकों चने चबवा दिए हैं. सोनिया रिकॉर्ड मतों से जीतकर गई हैं पर कांग्रेस को पाँच में से दो सीटें भी मिल जाएं तो बड़ी बात मानिए. बसपा के लिए भी खबर अच्छी नहीं है. पर कांग्रेस, बसपा क्या करना. चुनाव पार्टियों के बीच है ही नहीं. इस चुनाव से सभी पार्टियों के चिन्ह हटा लिए जाएं, फिर भी वही जीतेना जिसका जातीय गणित सही बैठ रहा है. जिसने जाति के दम पर और पैसे के खम पर खुद के लिए विधानसभा का रास्ता तैयार किया है. पार्टियां महज एक औपचारिकता हैं. जीत के मुहाने पर खड़े अधिकतर प्रस्ताशियों की राजनीतिक यात्रा कई झंडों और रंगों से गुज़रकर नए रंग सजा रही है.
 
चुनाव क्या नहीं करा रहा. तीन दिन से बेहिसाब पैसा और दारू ज़िले में बंटी और बहाई गई है. कोई भी प्रत्याशी अपनी जाति के किसी वोटर को भटकने नहीं देना चाहता. सब जातीय वर्चस्व का स्वांग रचकर मैदान में हैं. यह जाति का ही खेल है कि उंचाहार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई वरिष्ठ स्वयंसेवक और पुराने लोग, जिन्होंने मुलायम सिंह को गालियां बकते, मुल्ला कहते अपनी ज़िंदगी के दो दशक पार कर दिए, आज लोहिया की साइकिल पर लाल टोपी लगाकर घूम रहे हैं. लामबंदी कर रहे हैं. समाजवादियों और राष्ट्रवादियों के बीच निहित अंतरसंबंधों का यह एक कठोर सच है और इसीलिए दंगों में, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में, मानस सम्मेलनों से लेकर गायत्री जापों तक सब एकसाथ खड़े दिखते हैं. रायबरेली के 1984 के दंगों में सरदारों को लूटने वाले केवल कांग्रेसी नहीं थे. और भी पार्टियों के लोग उसमें शामिल थे. वही लोग समाजवादी हो चले हैं जिन्होंने मायावती को मुकुट पहनाकर पैर छुए थे, पंडितों से माफी भी मांगी थी और विश्व हिंदू परिषद के लिए अभियान भी चलाए थे. दरअसल, जब से राजनीति में रोकड़ा अहम हुआ है, पार्टी काडर की अहमियत जाती रही है. ऐसा सभी जगहों पर हुआ है और रायबरेली भी इससे अछूता नहीं है. स्थानीय राजनीतिक परिवारों की राइस मिलों में और गोदामों में जाकर देखिए, हर पार्टी का झंडा रखा है. क्योंकि इन्होंने अवसर और लहर के हिसाब से हर पार्टी के निशान खरीदे हैं और चुनाव में उतरे हैं, जीते हैं. इस तरह सत्ता की डोर ज़िले में कुछ घरों, जातियों और आर्थिक-आपराधिक वर्चस्व के हाथों में कठपुतली की तरह खेलती रही है.
 
इन सबके बीच सबसे बड़ी पीड़ा है रायबरेली के बहुमत मतदाता का बार-बार ठगा जाना. दिल्ली से रायबरेली की राजनीति करने वाले परिवार के पास कुछ दलालों और किराए के चाटुकारों की फौज है. यह परिवार वही समझता है जो इस परिवार को समझाया और दिखाया जाता है. लगता है कि प्रियंका और सोनिया लोगों से बात कर रही हैं, पर ऐसा केवल लगता है, होता नहीं है. होता वही है जो दलालों की यह फौज चाहती है. इस पिकनिक टाइप पॉलिटिकल प्रेजेंस से रायबरेली सबसे ज़्यादा प्रभावित रहता है क्योंकि इसमें ग्लैमर है, चमक है, पहुंच का मुग़ालता है, राष्ट्रीय स्तर के होने का भ्रम है और कुछ पुराने एहसान हैं. भले ही घर के बाहर नाली न हो, 10 घंटे बिजली न मिले, अन्याय और उत्पीड़न की सुध लेने वाला कोई नेतृत्व न हो, पर घर के ड्राइंग रूम में सोनिया या राहुल के साथ का फोटो इतना सुकून देता है कि पूछिए मत. चमड़ी का मोह चेचक के दाग की तरह रायबरेली के गालों पर चिपका हुआ है. हटता ही नहीं है. बार-बार ठगे जाते हैं और बार-बार पिघलते जाते हैं. रायबरेली मंदोदरी की तरह हो चला है. असहाय, अबल और किंकर्तव्यविमूढ़.
 
अफसोस, रायबरेली के पास न तो आज अपना कोई वीरा पासी है, न अपना कोई निराला. जायसी का एक भी पद या दोहा सुनाने वाला बच्चा या युवा आपको इस शहर के घंटाघर से डिग्री कालेज तक नहीं मिलेगा. निराला की कविताओं का अर्थ उतना ही बचा है जितना परीक्षा की गाइडों में छपा हुआ है. हिंदी का व्याकरण सही कराने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी के इस ज़िले के भवितव्य का वाक्य टूटकर बिखर गया है. रायबरेली को कोई राजनारायण भी नहीं मिल रहा जो लोकतंत्र के अस्तित्व का सबसे बेहतर प्रमाण दे सके. रायबरेली धूल और ईंट-पत्थरों का एक शमशान बनता जा रहा है जिसपर मंडराते हैं गिद्ध और जिसमें मुर्दा लोग सड़कों पर खुद को खींच रहे हैं. लिजलिजी अंतड़ियों की तरह नोचे जा रहे हैं वोट और खोखले कंकालों की तरह छोड़ दिए जाएंगे जिस्म, शाम को पूरे हो चुके मतदान के बाद.

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