राजनीति की ‘ममता’ की छाती सूख गई है
Oct 21, 2012 | Panini Anandउसका नाम सुमन देवी है. अधेड़ महिला. आशियाने के नाम पर बोरियों, टाटों और प्लास्टिक, फ्लैक्स के कुछ बैनरों का बना एक छोटा-सा झुग्गीनुमा ढांचा, जो आज उसका घर है. दिल्ली के उस्मानपुर इलाके से अपनी जवान होती लड़की के अपहरण और घर से बेघर होने के बाद वो अपने पति और बाकी दो बच्चों के साथ इस फुटपाथ पर बने छोटे से आशियाने में आकर बस गई है. पता है जंतर मंतर. वही जंतर-मंतर जहाँ देश के तमाम दुख-दर्दों और मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए रोज़ कितने ही मंच तैयार होते हैं और नेता, बड़ी सामाजिक हस्तियां, पत्रकार, बुद्धिजीवी और पीड़ित लोग आते-जाते हैं.
पिछले कई महीनों से उसे जंतर मंतर पर देख रहा हूं. आदतन और कभी कभी कार्यक्रमों के सिलसिले में इस जगह से होकर गुज़रता रहता हूं. सुमन देवी यहाँ अपने परिवार के साथ ज़िंदगी के दिन काट रही है. रोज़ चुल्हा जलता है- कुछ पका लेती है. घर के लोग खाते हैं. फिर इसके बाद चाय, पान, पान-मसाला और कुछ बिस्कुट लेकर बैठ जाती है. धरने-प्रदर्शनों में आए लोग इन्हें खरीदते हैं और इस तरह सुमन देवी उतना कमा लेती है जितना मोंटेक सिंह अहलूवालिया के मुताबिक ज़िंदा रहने के लिए पर्याप्त है.
पिछले दिनों दिल्ली में तृणमूल कांग्रेस की रैली हुई. बंगाल की ममता शेरनी की तरह सरकार को चुनौती देती हुई दहाड़ रही थी. एफ़डीआई के ख़िलाफ़ सीधी ललकार. इस्तीफ़ा दे चुकी छह मंत्री मंच पर सम्मानित हुए. एक सरदार जी बंगाल की मुख्यमंत्री को चांदी का मुकुट पहनाना चाहते थे. ममता ने कान में कुछ कहा. कुछ देर बाद एक गरीब किसान मंच पर ला खड़ा किया गया. ममता ने वो मुकुट खुद न पहनकर उस ‘आम आदमी’ को पहना दिया. तालियां गूंजी. किसान मंच से नीचे आ गया. ममता का भाषण शुरू हो गया. सरकार को शेरो-शायरी की ज़बान में ललकार रही ममता मंच पर घूम-घूमकर ऐसे भाषण दे रही थीं, जैसे किसी क्लास रूम में लैक्चर चल रहा हो. वो केबिल वालों की बात करतीं, किसानों की बात करतीं, रेहड़ी और फुटकर-पटरी विक्रेताओं की बात करतीं और सरकार को उनके खिलाफ़ बतातीं.
बीच में उन्होंने एक एजेंसी के फोटोग्राफर को डांटा. कहा, मुझे पहले से पता था कि कुछ लोग प्लांट किए जा रहे हैं यहाँ शांति भंग करने के लिए. दो खाली सिलेंडर भी सिक्योरिटी चेक के बाद मंच पर ला रखे गए थे. इस दौरान मीडिया का मंच तीन बार चरमराया, तालियां गूंजीं और ममता को आधा क्विंटल से ज़्यादा वज़न की एक माला भी पहनाई गई. मुझे मायावती की रूपयों वाली माला बरबस याद आ गई.
ममता के भाषण में कुछ भी नया नहीं था. सिवाय उस दिन के मौसम के. तेज़ धूप और आधी खाली पड़ी कुर्सियों के बीच इस रैली की सफलता की घोषणा की जा रही थी. ममता को सुनते-सुनते कई अक्स आंखों और जेहन में बार-बार गुज़रते गए. जैसे, ग़रीबों की संरक्षक बनी ममता कभी माओवादियों की संरक्षक बनकर वाममोर्चे से लड़ी थीं और जीत के बाद किशन जी की हत्या में उनकी भूमिका अभी तक संदेहास्पद है. नंदीग्राम और सिंगूर में हल्ला बोलने वाली ममता की मुख्यमंत्री बनते ही हिलेरी क्लिंटन से मुलाकात भी याद आ गई. अपराध और चोरी को रोकने की कसम खाती ममता के बगल में मुकुल रॉय को देखकर अजीब सा लग रहा था. ममता का मंच जहाँ सजा था, वहाँ से रेहड़ी वाले हांककर भगा दिए गए थे. चूरन, पापड़ और घड़ियां, पंखे बेचने वाले सुरक्षा घेरे के आसपास भी नहीं फटक सकते थे. हालांकि दीदी हमेशा की तरह एक मारुति ज़ेन में बैठकर आई थीं. याद आया कि ममता अगर विदेशी निवेश के वाकई खिलाफ हैं तो विनिवेश की शिरोमणि रही एनडीए सरकार को उन्होंने समर्थन क्यों दिया था. ओबामा के साथ जो दोस्ती मनमोहन की है, उससे कम मोहब्बत क्लिंटन और बुश के साथ वाजपेयी सरकार की नहीं रही पर ममता का स्नेह दोनों सरकारों को मिलता रहा. रेल बजट में यात्री किराए से ज़्यादा चिंताजनक पहलू निजीकरण के लिए इस फलदायी मंत्रालय में की गई सेंधमारी थी, ममता ने इसपर कुछ नहीं कहा था. एफ़डीआई और डीज़ल के दामों की सुध ममता को पिछले आठ सालों के दौरान कभी नहीं आई. जब यूपीए-2 का टाइटैनिक डूबता नज़र आया तो उन्होंने फटाफट लाइफ़ बोट निकालकर खुद को इस जहाज़ से अलग कर लिया. क्या विडंबना है कि एफ़डीआई का पहले दिन से विरोध कर रहे वामदलों और जनसंगठनों का सारा राजनीतिक मक्खन ममता ने चुनावों के ठीक कुछ महीने पहले खुद को यूपीए से अलग करके हड़प लिया. ऐसे कई बिंबों के बीच में ममता का तथ्यहीन और खोखला भाषण सुनता रहा. साफ दिख रहा था कि यह एफ़डीआई विरोध की अवसरवादिता है और इसमें रीढ़ का कहीं अता-पता नहीं है.
जैसे-जैसे ममता का भाषण अंत की ओर जा रहा था, सुमन देवी का परिवार उग्र होता जा रहा था. ममता के मंच के ठीक बगल में जो था उसका झोपड़ा. सुरक्षाकर्मियों ने एहतियातन उसे चुल्हा तक नहीं जलाने दिया था. कहीं कोई दुर्घटना हो गई तो. पर इस रैली के चलते पूरा परिवार भूखा बैठा था, क्या यह किसी दुर्घटना से कम था. ममता के मंच पर पानी की बोतलें लहरा रही थीं. पंखे तेज़ चल रहे थे. कुछ आंखों पर काले चश्मे थे. ग्लैमर था, राजनीति में पके बाल थे. पर मंच के कुछ फासले पर सुमन देवी अपना और अपने परिवार की भूख के कारण आपा खो रही थी. वो बड़बड़ाते-बड़बड़ाते चिल्लाने लगी थी. लोगों का ध्यान उस ओर तो कभी ममता की ओर जा रहा था. वो लगातार कहे जा रही थी- ये चोर हैं. रोज़ आते हैं. किसी ग़रीब का भला करने नहीं, उनका खून चूसकर अपना पेट भरने. सुबह से एक नेवाला तक इन ***ज़ादों की वजह से नसीब नहीं हुआ है. एक पैसे का काम नहीं हो पाया है. अरे यही तो तुम्हारा न्याय और ग़रीबों-पीड़ितों के लिए लड़ाई. पुलिसवाले और कुछ हरियाणवी (जो बहुत कम दिनों पहले तृणमूल का हिस्सा बने हैं) उसे धमका रहे थे पर भूख की तड़प और पटरी की अपनी दुकान का न चल पाना सुमन की आवाज़ को और ऊंचा करता जा रहा था.
ममता का भाषण खत्म हुआ. ममता चल दीं. सुमन की आवाज़ चीख में बदल गई थी. आधा क्विंटल से ज़्यादा वज़न की माला किसी मुर्दे की तरह चार लोग उठाकर ले जा रहे थे. और वो… वो किसान, जिसे मुकुट पहनाया गया था, खाली हाथ खड़ा था. सिर पर अंगौछा बांधे. मुकुट का कहीं पता नहीं था. एक पार्टी के नेता से यह सवाल किया तो उन्होंने कहा कि बड़े संघर्ष के लिए छोटे-मोटे बलिदान तो देने ही पड़ते हैं. एक सिहरन सी उठी- लगा राजीव गांधी कह रहे हैं कि बरगद गिरेगा तो कुछ छोटे-मोटे पौधों का दबना-कुचल जाना तो होगा ही. साथ में दिखा जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार का चेहरा. ममता के अलग-बगल मुस्कुराता हुआ.
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि एफ़डीआई मुद्दा है, मुशायरा है या मक्कारों की महफ़िल का तकियाकलाम. जवाब शायद सुमन देवी जैसे खुदरा और फुटकर-फुटपाथिए विक्रेताओं के पास ज़्यादा बेहतर है.