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राजनीतिक दोराहे पर खड़ा है उत्तराखंड

Mar 10, 2012 | डॉ. सुशील उपाध्याय

उत्तराखंड में कौन-सी पार्टी जीती, यह सवाल देश के सबसे जटिल राजनीतिक सवालों में से एक बन गया नजर आ रहा है. सीधे तौर पर देखें तो लोगों ने खंडूड़ी को हरा दिया, उनकी कैबिनेट के दिग्गजों को धराशायी कर दिया तो फिर हार में शंका का सवाल रह ही नहीं जाता. लोगों ने खंडूड़ी और उनके मंत्रियों को तो हराया, लेकिन भाजपा को ऐसी जगह पर लाकर खड़ा किया जहां न तो वह जीत का जश्न मना सकती है और न ही हार पर आंसू बहा सकती है. 

 
भाजपा कमोबेश कांग्रेस के बराबर खड़ी है, लेकिन पार्टी किस मुंह से कहे कि चुनाव जीती है? वास्तव में यह भाजपा की हार है. विधानसभा में भाजपा के विधायकों की संख्या 36 से घटकर 31 रह गर्इ, जबकि कांग्रेस का आंकड़ा 20 से बढ़कर 32 हो गया. वोट प्रतिशत के लिहाज से भी कांग्रेस, भाजपा से आगे है. पिछली बार कांग्रेस के वोट भाजपा के मुकाबले दो प्रतिशत कम थे. निर्दलीयों में भी कांग्रेस के तीन बागी जीते हैं. यानि, कांग्रेस की वास्तविक संख्या 35 तक पहुंच रही है. 
 
खंडूड़ी नाम के जिस व्यक्ति की र्इमानदारी, नेकनीयती, खुद्दारी और काबिलियत को सामने रखकर भाजपा ने चुनाव लड़ा वो व्यक्ति खुद चुनाव हार गया. उसकी कैबिनेट के आठ मंत्रियों से पांच को हार का मुंह देखना पड़ा. कुल मिलाकर अगर यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रदेश के लोगों ने उन नेताओं को हराया जो भाजपा में सत्ता की धुरी थे. एक और रोचक बात, पूर्व मुख्यमंत्री निशंक और कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक को कुंभ के घोटाले में घिरा बताकर पार्टी में अलग-थलग करने की कोशिश की गर्इ, वे लेकिन दोनों चुनाव जीत गए. खंडूड़ी और मंत्रियों की हार के बाद भाजपा से सरकार बनाने की जुगत बैठाने का नैतिक साहस छिन गया. यह अलग बात है कि त्रिशंकू विधानसभा में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और भाजपा के पास उपलब्ध अवसरों में कोर्इ बड़ा अंतर नहीं है.
 
पांच साल पहले ही हार गर्इ थी भाजपा
 
वैसे, भाजपा की हार पांच साल पहले उसी दिन तय हो गर्इ थी जब दो तिहार्इ विधायकों के विरोध के बावजूद खंडूड़ी को मुख्यमंत्री के तौर पर थोप दिया गया था. तब विधायकों ने पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का पक्ष लिया था, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की पसंद के तौर पर खंडूड़ी की दिल्ली से सीधे दून लैंडिंग हुर्इ थी. खंडूड़ी ने सत्ता संभालने के बाद पहला काम विरोधियों से बदला भांजने वाला किया. उन्होंने कांग्रेस सरकार के दौरान के कथित घोटालों की जांच के आयोग बना दिया. पांच साल जिंदा रहे इस आयोग का अवसान भी इसी महीने हुआ है. 
 
खंडूड़ी ने र्इमानदार और रौबदार दिखने के लिए अपने चारों ओर न टूटने वाला घेरा बना लिया था. वे एक ऐसे मंडली से घिर गए जिसमें प्रभात सारंगी नाम का आर्इएएस और भाजपा के दोयम दर्जे के नेता शामिल थे. प्रदेश में चपरासी की नियुक्ति से लेकर मंत्रियों तक के विभागों में घटत-बढ़त की बही प्रभात सारंगी ही संभालते रहे. खंडूड़ी सरकार का पहला साल पूरा होते-होते उन्हें सत्ता से बेदखल किए जाने की मुहिम ने जोर पकड़ा. खंडूड़ी-कोश्यारी के झगड़े में सत्ता की खीर रमेश पोखरियाल निशंक को मिली. इस दौरान भाजपा में जो फूट के बीज पड़ चुके थे, वे लगातार पुष्पित-पल्लवित होते गए. इसके चलते निशंक का सत्ताकाल भी द्वेश-दुविधा और घात-प्रतिघात का शिकार हो गया. इस बीच खंडूड़ी खामोश नहीं बैठे, उन्होंने रणनीतिक तौर पर कोश्यारी के साथ गठजोड़ बना लिया. अंतत: खंडूड़ी ने कोश्यारी के साथ मिलकर निशंक से बदला चुकाया और चुनाव से करीब छह महीने पहले दोबारा सत्ता पा गए, लेकिन तब तक सब कुछ लुट चुका था. भाजपा अपना राजनीतिक वैभव खो चुकी थी और बड़े नेता एक-दूसरे को निपटाने में लगे थे. 
 
खंडूड़ी ने दोबारा सत्ता संभालने पर पूरे मंत्रिमंडल को बदलने की कोशिश की, लेकिन केंद्र ने इसकी अनुमति नहीं दी. खंडूड़ी के पास अंतिम दांव यह था कि वे मौजूदा विधायकों और मंत्रियों में से अपनी पसंद के लोगों को ही टिकट दिलवाएं और बाकी को घर बैठाएं. उन्होंने मौजूदा विधायकों में आधे लोगों के टिकट कटवाने को निर्णय लिया. ऐन वक्त पर हंगामा मचा, तब भी वे दो मंत्रियों समेत एक दर्जन यानि एक तिहार्इ विधायकों को घर बैठाने में कामयाब हो गए. यह निर्णय खुद खंडूड़ी के लिए आत्मघाती साबित हुआ. केंद्र ने निशंक को किनारे करके खंडूडी-कोश्यारी की टीम को चुनाव लड़ाने का जिम्मा दिया, लेकिन प्रदेश के लोगों ने भांप लिया कि खंडूड़ी-कोश्यारी की यारी बेमौसम का गुलाब है जो ज्यादा दिन खुशबू नहीं दे पाएगा. और, इस टीम को लोगों ने जमीन पर ला पटका. 
 
यह चुनाव खंडूड़ी के राजनीतिक जीवन के अवसान से जुड़ा प्रश्न है. यह हार अब उन्हें उबरने नहीं देगी. इसमें एक बड़ा पहलू उम्र से भी जुड़ा है. अगले चुनाव तक खंडूड़ी इस स्थिति में नहीं रहेंगे कि वे पार्टी के भीतर किसी मुकाबले में बने रह सकें. वजह साफ है केंद्र में उनकी पीढ़ी के नेता भी अवसान की ओर हैं. इसे खंडूड़ी की बदकिस्मती या उत्तराखंड के राजनीतिक मिजाज को न साध पाने की अक्षमता मानिए कि उनके नेतृत्व में प्रदेश में लड़े गए पंचायत, निकाय, लोकसभा और विधानसभा को मिलाकर पांच चुनावों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. 
 
इस चुनावी मुहिम में खंडूड़ी राज्य की कांगेस की बजाय केंद्र सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे. उन्होंने अन्ना टीम को अपने साथ खड़ा दिखाकर भी राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए. वे हर मामले में केंद्र को जिम्मेदार ठहराते रहे. लेकिन, उन्हें यह नहीं दिखा कि प्रदेश का बुनियादी ढांचा चरमराया हुआ है. स्कूलों में शिक्षक और अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं. पहाड़ में सड़क, बिजली, पानी अब भी समस्या बने हुए हैं. स्थायी राजधानी के मुद्दे पर वे खामोशी ओढ़े रहे, बेरोजगारी दूर नहीं हुर्इ और पलायन रुक नहीं पाया. नारायण दत्त तिवारी के हटने के बाद उद्योगों की रफ़्तार थम गर्इ. विकास के सारे दावे देहरादून तक सिमट कर रह गए. खंडूड़ी इस भ्रम में भी रहे कि वे निशंक को परोक्षत: भ्रष्ट बताकर चुनावी वैतरणी पार कर जाएंगे, लेकिन लोगों ने उनके तर्कों को नहीं सुना. खंडूड़ी कितने ही र्इमानदार क्यों न हों, इस चुनाव में पैसे, दारू और दबंगर्इ, सब कुछ चला. जीत में जाति के मुद्दों को हवा दी गर्इ. खुद, खंडूड़ी की सीट कोटद्वार में ब्राहमणों-राजपूतों को भिड़ाया गया. खंडूड़ी की हार इसलिए बड़ी हार है कि वे सत्ता का संबल होने के बावजूद हारे.
 
मौजूदा परिणाम भाजपा के भीतर नेतृत्व के के झगड़े को भी बढ़ावा देगा. खंडूडी-कोश्यारी की टीम की हार के बाद अब निशंक की पीढ़ी ही भाजपा को काबू करेगी. इस हार के साथ भाजपा ने राज्यसभा सीट पाने की संभावना भी खो दी है. प्रदेश के तीन में से एक राज्यसभा सांसद का कार्यकाल दो अप्रैल को खत्म हो रहा है. भाजपा जीतती तो पार्टी को राज्यसभा चुनाव के मुकाबले में कांग्रेस को हराने का मौका मिलता. लेकिन, अब यही लग रहा है कि राज्यसभा की सीट कांग्रेस के खाते में ही जाएगी.
 
हरीश रावत पर उठ रहे हैं सवाल
 
प्रदेश में यह सवाल भी उठ रहा है कि उत्तराखंड में कांग्रेस किस व्यक्ति के कारण बहुमत नहीं पा सकी? कांग्रेसियों की मानें तो वह नाम केंद्रीय मंत्री हरीश रावत का है. हरीश रावत हरिद्वार से सांसद हैं और मुख्यमंत्री बनने वालों की कतार में पिछले दस साल से सबसे आगे खड़े रहे हैं. इस नाते पार्टी उम्मीद कर रही कि वे हरिद्वार जिले की 11 में से पांच-छह सीट जितवाने में कामयाब हो जाएंगे, लेकिन हरिद्वार में कांग्रेस को केवल तीन सीट मिली. इस जिले में भाजपा को दो सीटों के लायक माना जा रहा था, जबकि भाजपा ने पांच सीटें हासिल की. बात शीशे की तरह साफ है, यदि हरिद्वार में हरीश रावत दो और विधायकों को जितवा पाते तो सीटों का आंकड़ा प्रदेश में भाजपा की साफ हार और कांग्रेस की स्पष्ट जीत में बदल जाता. बीते लोकसभा चुनाव में हरिद्वार लोकसभा सीट के तहत आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में से एक भी सीट पर भाजपा बढ़त नहीं बना पार्इ थी.
 
हरिद्वार के परिणामों से कांग्रेस में हरीश की स्थिति कमजोर होगी और दिल्ली दरबार में भी उनका भाव घटेगा.
 
बसपा की हुर्इ दुर्गति
 
उधर, उत्तराखंड में सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने के सपने देख रही बसपा भी दुर्गति का शिकार हो गर्इ. उत्तराखंड में बीते चुनावों में लगातार बसपा की स्थिति में सुधार हुआ था. पांच साल पहले बसपा ने 12 प्रतिशत वोटों के साथ आठ सीटें हासिल की थी. उक्त प्रदर्शन के बाद इस चुनाव में पार्टी अपनी सीटों को 15-16 तक पहुंचाने के लिए लड़ार्इ रही थी ताकि प्रदेश की सरकार उसकी अंगुलियों पर नाचे. लेकिन, परिणाम आए तो सब कुछ चौपट दिखार्इ दिया. बसपा का आंकड़ा तीन पर सिमट गया. पिछले चुनाव में बसपा की जीत की बड़ी वजह दलित-मुस्लिम गठजोड़ रहा. इस बार भी पार्टी ने इसी को ध्यान में रखकर टिकट बांटे थे, लेकिन मुस्लिमों का झुकाव बसपा की बजाय कांग्रेस की ओर हो गया. इसका परिणाम यह निकला कि दो बार के विधायक और बसपा विधानमंडल दल के नेता मुहम्मद शहजाद भी चुनाव हार गए. 
 
पार्टी के प्रदर्शन पर किसी न किसी स्तर पर यूपी की सिथति का भी असर पड़ा. प्रदेश में बसपा का मुख्य आधार उत्तराखंड के उन इलाकों में है जो यूपी से सटे हैं. जब, यूपी में स्थिति खराब हुर्इ तो इसकी तपिश उत्तराखंड तक भी पहुंची. बसपा नए परिसीमन का लाभ उठाने में भी कामयाब नहीं हो पार्इ. जबकि, बसपा के आधार वाले क्षेत्रों में नए परिसीमन के बाद सीटों की संख्या बढ़ गर्इ थी, इसीलिए राजनीति के जानकारों ने बसपा द्वारा विधानसभा सीटों को दोगुना किए जाने के लक्ष्य को गंभीरता से लिया था. 
अब, पार्टी इससे भी बड़े संकट का सामना कर रही है. वो संकट बसपा के विभाजन के खतरे के रूप में सामने है. कांग्रेस या भाजपा को अपने दम पर बहुमत न मिलने के कारण बसपा पर निगाह लगी है. सामान्य तौर पर यही माना रहा था कि केंद्र में कांग्रेस का संरक्षण पाने के लिए बसपा सुप्रीमो उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार बनवाने में मदद करेगी, लेकिन अगर माया का रुख जरा सख्त दिखा तो बसपा विधायक दल में विभाजन होने से नहीं रुक पाएगा. बसपा के तीन में से दो विधायकों की पृश्ठभूमि कांग्रेस की है. इनमें से एक मुस्लिम है. यदि, बसपा तटस्थ रहना चाहे या भाजपा की ओर झुकना चाहे तो पार्टी को टूट का सामना करना ही पड़ेगा. वैसे, भी मंत्री पद किस विधायक को बुरा लगेगा! यदि, कांग्रेस ने मंत्री पद का यकीन दिलाया तो संभव है कि माया के इशारे के बिना ही ये विधायक कांग्रेस की कतार में खड़े नजर आएं. इस चुनाव ने बसपा को जो आर्इना दिखाया है, उससे उबरने में पार्टी को लंबा वक्त लगेगा. 
 
बना रहेगा संकट
 
प्रदेश में न केवल अब, बल्कि अगले पांच साल तक पूरा ध्यान बसपा के तीन, कांग्रेस के तीन बागियों और एक अन्य समेत सात विधायकों पर टिका हुआ दिखेगा है. 70 में से सात सीटें छोटी पार्टियों ने जीती हैं. जबकि, भाजपा-कांग्रेस के बीच 63 सीटों का बंटवारा हुआ है. दोनों की सीटों में केवल एक सीट का अंतर है. यानि, ये सात विधायक जब चाहेंगे प्रदेश में सत्ता परिवर्तन कर देंगे. इससे साफ है कि इस दौरान राजभवन की भूमिका भी लगातार महत्त्वपूर्ण बनी रहेगी.
 
वैसे, अभी तीनों बागी विधायक कांग्रेस के साथ आए तो पार्टी को जादुर्इ आंकड़ा छूने के लिए बसपा की जरूरत नहीं रह जाएगी. कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के दावेदार यशपाल आर्य, इंदिरा हृदयेश, हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा और हरीश रावत अपने स्तर से बागियों और निर्दलीयों को लुभाने-पटाने में जुटे हैं. इनमें से जो भी मदद करेगा उसे मंत्री पद या समकक्ष पद मिलना तय है. फिलहाल, नारायण तिवारी खामोश हैं. उनके भतीजे मनीश तिवारी और निजी सचिव रहे आर्येंद्र शर्मा के चुनाव हारने से तिवारी की स्थिति कमजोर हुर्इ है. विधानसभा के कार्यकाल के तकनीकी पहलू को सामने रखकर देखें तो उत्तराखंड में 15 मार्च से पहले सरकार का गठन जरूरी है.  
 
(लेखक उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं.)

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