यह कैसी पत्रकारिता कर रहा है दैनिक भास्कर..?
Jan 19, 2012 | Pratirodh Bureau(पिछले दिनों 14 जनवरी को दैनिक भास्कर ने एक खबर छापी- बलात्कारी जेल के बाहर चाहिए…जरा पीड़िता का दर्द भी देख लो. इस खबर में मानवाधिकार संगठन की ओर से राज्यपाल को भेजी गई दया एवं क्षमा याचिकाओं पर हमला करते हुए उसे अजीब और बेतुकी भाषा में छापा गया. खबर लिखने वाले को संवैधानिक प्रावधानों और मानवीय मूल्यों तक का ध्यान नहीं रहा. तथ्यहीनता और अधकचरेपन के साथ साथ पूर्वाग्रह से ग्रस्त इस खबर पर पीयूसीएल ने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. यहाँ हम पीयूसीएल की प्रतिक्रिया और भास्कर की खबर, दोनों को प्रकाशित कर रहे हैं)
पीयूसीएल की ओर से जारी बयान
दैनिक भास्कर के जयपुर संस्करण 14 जनवरी के अंक में छपे समाचार- दरिंदों की वकालत, पीडि़तों पर आफत को लेकर मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज ने कड़ी आपत्ति जतार्इ है. इस समाचार में एक तरफ जहां दया को लेकर संवैधानिक हक को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है, वहीं पीयूसीएल संगठन के बारे में जनता को गुमराह करने की कोशिश की गर्इ है.
यह अत्यन्त खेद का विषय है कि समाचार में मानवाधिकार संगठनों को अपराधियों का हिमायती तथा पीडित पक्ष का दुश्मन बताया गया है. आप जानते है कि पीयूसीएल आम आदमी के हित की वकालत करने वाला देश का महत्वपूर्ण संगठन है. जहां एक तरफ राष्ट्रीय स्तर पर पीयूसीएल ने अपनी पहल पर उच्चतम न्यायालय के जरिए भोजन का अधिकार, मिड-डे मिल व रैन-बसेरा की सुविधाएं आदि करोड़ों लोगों को राहत पहुंचार्इ है. वहीं रोजमर्रा के मानवाधिकार हनन के मामलों में पीयूसीएल की भूमिका सदैव निर्विवाद रही है. राजस्थान पीयूसीएल के रिकार्ड खंगाल के देखे तो हर माह 50 से ज्यादा पीडित हर किस्म की मदद हेतु हमारे पास आते हैं. सबसे ज्यादा मदद मांगने महिलायें आती है और हमारी कोशिश रहती है कि पुलिस या सरकार के विभिन्न महकमो के जरिए से पीडितों को मदद पहुंचार्इ जायें. ज्ञात हो कि पीयूसीएल केवल अपने सदस्यों और शुभचितंको के आर्थिक सहयोग से चलता है. पीयूसीएल बिल्कुल भी संस्थागत वित्तिय सहयोग नहीं लेता.
सबसे अफसोसजनक बात यह है कि इस खबर के माध्यम से दैनिक भास्कर ने दया याचिका को अपराधियों का समर्थन सिद्ध कर, दया एवं माफी विहीन समाज की परिकल्पना को बढावा दिया है, जो कि मानव सभ्यता को पीछे धकेलने वाले मूल्यों की स्थापना करता है. यह समाचार बदले की भावना के मूल्यों पर आधारित है जो भारतीय मूल्यों को नकारते हुए तालिबानी न्याय की वकालत करता है. क्या भारत को भी कुछ देशों की तरह बर्बर और क्रूर हो जाना चाहिए जहां हाथ काट डालने, गर्दन उड़ा देने, पत्थर मारकर मौत के घाट उतार देने की अमानवीय प्रथा रही है. भारत तो गांधी का देश है जिन्होंने यह कहा था कि आंख के बदले आंख की भावना पूरी दुनियां को अंधा बना देगी.
मुख्य सवाल यह है कि पीडि़त पक्ष को न्याय मिलने के बाद, अपराधी को सजा मिलने के बाद, क्या अपराधी के साथ करुणामय व्यवहार नहीं होना चाहिए, जबकि उसने सज़ा का बड़ा हिस्सा काट लिया हो. यदि संवैधानिक व्यवस्था में अपराधियों को सजा के प्रावधान दिये गये है तो सजा माफी भी संविधान का ही अंग है. इस वैधानिक मांग को उठाना और उसकी वकालत करना संविधान विरूद्ध नहीं है. माफी के लिए दया याचिका की निर्धारित प्रक्रिया है जो भारत की संसद एवं राज्य विधान सभा द्वारा बनार्इ गर्इ है. अत: इस कार्य को करना किसी भी दृष्टि में अपराध व अपराधियों का समर्थन नहीं करता है.
9 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस के पूर्व में हुर्इ एक प्रेस वार्ता में पीयूसीएल के अध्यक्ष प्रेम कृष्ण शर्मा, उपाध्यक्ष अरुणा राय व निशात हुसैन और महासचिव कविता श्रीवास्तव ने संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को प्राप्त शक्तियों का जिक्र करते हुए यह बताने की कोशिश की थी कि किस तरह राज्यपाल संविधान में प्रदत्त इस अनुच्छेद की आत्मा को ध्वस्त कर रहे हैं. जिसमें रामकुमार के उदाहरण को प्रस्तुत किया.
दैनिक भास्कर को अपनी टिप्पणी करने से पहले यह ध्यान देना चाहिए था कि इस विषय पर पीयूसीएल ने एक विशेष सन्दर्भ में अपने विचार रखे थे. सन्दर्भ से अलग हटकर किसी बात को अगर देखा जाय तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है. संदर्भ यह था कि पीयूसीएल ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत राज्य के गृह विभाग से यह जानकारी प्राप्त की थी कि मौजूदा राज्यपाल ने अपने बीस माह के कार्यकाल में कितनी दया याचिकाओं पर अपनी राय दी है. इस सूचना में यह जानकारी प्राप्त हुर्इ थी कि राज्यपाल के पास दो दया याचिकाएं आर्इ थीं, जिसमें से एक रामकुमार की तथा दूसरी डा. खलील चिश्ती की थी.
इस सूचना में यह सामने आया कि रामकुमार फेफड़े के कैंसर से पीडि़त है तथा मेडिकल बोर्ड ने यह राय दी थी कि इस तरह की गंभीर बीमारी से ग्रसित मरीज इलाज के बावजूद अधिकतम 12 माह तक ही जीवित रह पाता है. प्रारंभिक जांच के बाद झुंझुनूं जिले के तत्कालील जिला कलक्टर व पुलिस अधीक्षक ने अक्टूबर 2010 में रामकुमार की दया याचिका जयपुर जेल महानिदेशक को भिजवार्इ थी. जेल महानिदेशक ने रामकुमार को रिहा करने की अनुशंसा अतिरिक्त मुख्य सचिव, के जरिए मुख्य सचिव, जेल मंत्री और मुख्यमंत्री को भिजवार्इ. मामले की गंभीरता और मरीज की गिरते हुए स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री, जेल मंत्री और मुख्य सचिव ने यह अनुशंसा राज्यपाल के पास मोस्ट अर्जेंट कहकर भिजवार्इ.
राज्यपाल ने 40 दिन तक यह फाइल अपने पास रोके रखी तथा 30 नवंबर 2010 को यह कहकर वापस लौटा दी कि मेडिकल बोर्ड से मूल मेडिकल रिपोर्ट देकर राय ली जाए. 27 दिन बाद पुन: यह फाइल राज्यपाल के पास पहुंची, जिसमें एक बार फिर दोहराया गया कि मरीज की सिथति इतनी गंभीर हो गर्इ है कि अब उसके पास जीवित रहने के कुछ दिन शेष रहे हैं. 28 दिसंबर 2010 को यह फाइल राज्यपाल के पास फिर भिजवार्इ गर्इ. राज्यपाल ने लालफीताशाही का परिचय देते हुए यह कहकर एक बार फिर याचिका लौटा दी कि मेडिकल बोर्ड की फिर से राय ली जाए. इसी दौरान 16 जनवरी 2011 को बंदी रामकुमार की मौत हो गर्इ.
रामकुमार के मामले का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हुआ कि जब राज्यपाल की मानसिकता ही दया वाली नहीं है तो कहीं डा. खलील चिश्ती का अंजाम भी रामकुमार जैसा नहीं होगा .
उस प्रेस वार्ता में पीयूसीएल की ओर से यह तथ्य भी प्रस्तुत किया गया था कि राजस्थान की जेलों में बंद 23 व्यक्ति 80 से 89 वर्ष की उम्र तथा एक व्यक्ति 90 वर्ष से अधिक उम्र का है. एक सभ्य समाज और लोक कल्याणकारी राज्य के लिए यह शर्मनाक है कि 80 वर्ष से अधिक उम्र के व्यकित को जेल में बंद रहना पड़े. उम्रदराज बंदियों की सजा घटाकर उन्हें घर भेजा जाना चाहिए.
1894 में बनाए गए पहला जेल कानून में भी सजा कम करने के प्रावधान एवं नियम बनाए गए थे. स्वतंत्र भारत में माफी याचिका की यह शकितयां संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल और अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति को दी गर्इ हैं. राजस्थान सहित सभी राज्यों के जेल मैन्यूअल में भी माफी याचिका को जगह दी गर्इ. जेल मैन्यूअल में माफी ही नहीं बलिक पैरोल, निशिचत समयावधि के लिए जेल से छुटटी, खुली जेल इत्यादि के प्रावधान रखे गए, क्योंकि कारागृह को एक सुधार गृह के रुप में माना गया तथा यह उल्लेख किया गया कि आपराधिक प्रवृतितयों के व्यकित में भी हदय परिवर्तन और सुधार हो सकता है.
दया, करुणा और हदय परिवर्तन की भारत में हजारों साल पुरानी परंपरा रही है. उदाहरण के तौर पर कैसे डाकू रत्नाकर से महर्षि वालिमकी हो गए तथा रामायण की रचना की एवं अंगुलीमाल डाकू से महात्मा बुद्ध के संपर्क में आकर डाकू से महात्मा बन गया. वैसे भी हमारे देश में राष्ट्रपति व राज्यपाल की शकितयों के तहत हर साल राष्ट्रीय दिवसों पर सैकंड़ों बंदियों को उनके स्वास्थ्यगत और बेहतर आचरण के कारण जेलों से रिहा किया जाता रहा है.
पीयूसीएल दैनिक भास्कर से मांग करता है कि वह समाज को भ्रमित करने वाले समाचार के प्रति खेद व्यक्त करें.
भवदीय,
प्रेमकृष्ण शर्मा कविता श्रीवास्तव
(अध्यक्ष) (महासचिव)
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भास्कर में 14 जनवरी को प्रकाशित ख़बर
बलात्कारी जेल के बाहर चाहिए…जरा पीड़िता का दर्द भी देख लो
जयपुर/झुंझुनूं/अजमेर. राज्य के मानवाधिकार संगठन जेलों में बंद हत्यारों को छुड़ाने के लिए तो आंदोलन करते हैं, लेकिन इनके हाथों बर्बाद कर दिए परिवारों की ओर झांककर भी नहीं देखते.
मानवाधिकार संगठनों को जेलों में बंद हत्यारों और दुष्कर्मियों के हायपरटेंशन, बुढ़ापे, लाचारी, अस्थमा, अर्थराइटिस, प्रोस्टेट बढ़ने, चक्कर आने, मिर्गी, रतौंधी, चर्म रोग, डिस्क हिलने जैसी बातों की तो फिक्र है, लेकिन इन अपराधियों के हाथों जिन महिलाओं की बेइज्जती हुई, परिवारों के मुखियाओं की हत्या से बच्चों और पत्नियों की तिल-तिल मौत हो गई और जिन बहुओं को जला दिया गया, उनके मां-बाप के आंसू पोंछने के लिए एक भी संगठन आगे नहीं आया.
भास्कर ने पीड़ितों से उनकी तकलीफों को समझने और उत्पीड़न की कहानियों को जानने की कोशिश की. किसी की हत्या के बाद पत्नी शोक के चक्र से ही मारी गई तो किसी का बेटा ही इलाज के अभाव में चला गया.
कहानी हत्यारे रामकुमार और मारे गए फूलचंद की
(फूलचंद के पड़ोसी मालूराम की जुबानी)
ये झुंझुनूं जिले का लांबा गांव है. बात 1989 की है. सुबह फूलचंद पड़ोस के गांव घासी का बास गया था. थोड़ी देर बाद ही खबर आई कि उसका कत्ल हो गया. वह लकड़ी का कारीगर था.
तीन नन्ही बेटियां, एक छोटा-सा बालक. पत्नी थी भगवानी. वह तो उसी क्षण मर गई, पर उसका दम निकला दो साल बाद. तिल-तिल घुटती रही. दु:ख सहा नहीं गया. रोटी का एक टुकड़ा किसी ने मुंह में डाल दिया तो ले लिया, नहीं तो बस. बेटियों की शादियां मामाओं-चाचाओं ने की.
बेटा विजय सिर्फ 10 साल का था. होशियार था. बाप उसे बड़ा आदमी बनते देखना चाहता था, लेकिन बच्चे को गांव वालों ने पाला. स्कूल की फीस नहीं होती थी तो धियाड़ी-धप्पा करता. ऐसे, जैसे बाड़ के सहारे दूब पल गई. पूरा घर रुÝ ही गया था. गांव के ही एक सज्जन ने मदद करके विजय को सिपाही की नौकरी लगवा दी. अब वो झुंझुनूं में है. इस घर के अब ताला जड़ा है. आंगन में आप जो बड़ा-बड़ा घास देख रहे हो, घास नहीं, बस इस परिवार के दु:ख की पानड़ियां हैं.
पीयूसीएल ने ये कहा रामकुमार के लिए : झुंझुनूं जिले में ढाबा की ढाणी के रामकुमार ने 1989 में फूलचंद की हत्या की थी. उसे उम्रकैद हुई. वर्ष 2008 में उसे फेफड़ों का कैंसर हुआ. 24 मई, 2010 को रामकुमार के पोते चंदनकुमार सैनी ने झुंझुनूं कलेक्टर की सजा माफी का पत्र कलेक्टर को दिया. रामकुमार ने 5 अक्टूबर को राज्यपाल से दया याचिका की.
मुख्यमंत्री ने भी इसे मंजूर कर राज्यपाल को भेजा, लेकिन 16 जनवरी 2011 को रामकुमार ने दम तोड़ दिया, राज्यपाल ने दया याचिका मंजूर नहीं की. पीयूसीएल ने कहा : कैसी विडंबना है कि इस राज्य को एक हृदयहीन और एक अमानवीय राज्यपाल को बर्दाश्त करना पड़ रहा है. राज्यपाल के लिए ऐसे शब्द कहने वाले पीयूसीएल ने भी कभी पीड़ित परिवार की सुध नहीं ली.
कहानी खलील चिश्ती और मारे गए मोहम्मद इदरीस की, इदरीस के बेटे जहांगीर चिश्ती की जुबानी…
अजमेर का दरगाह इलाका. फूल गली. मेरे पापा मोहम्मद इदरीस का कत्ल 14 अप्रैल 1992 को किया गया था. वे सऊदी अरबिया में काम करते थे और उन दिनों आए हुए थे. तब उनकी उम्र करीब 35 साल थी. मेरी उम्र तीन साल और मेरे छोटे भाई वसीम की उम्र दो साल थी. हम सभी पापा की मौत से गमगीन थे.
छोटा भाई उन्हें बहुत चाहता था. वह छह माह बाद ही चल बसा. कहते हैं कि उसके गुर्दे खराब हो गए थे. यह तो मैं और मेरी मां ही जानते हैं कि पापा की मौत के बाद हमने कैसे एक-एक दिन निकाला.
अल्लाह का करम था. पैसे की दिक्कत नहीं थी, लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं होता. रोज-रोज का दु:ख और घुटन जो हमने और मेरी मां ने सहा, वो तो कह ही नहीं सकते. पापा के नहीं होने से जो दिक्कतें हुईं, वे तो ऐसी थीं कि हमें हर बात पर उनकी याद आती थी. भले मेरे पढ़ने का मामला हो या घर का कोई और मसला. हमें कभी किसी मानवाधिकार संगठन ने नहीं पूछा कि हमारी तकलीफ क्या है?
मैं बात करूंगा : प्रेम किशन
खलील चिश्ती का मामला कुछ अलग है. वह विदेशी है. उसका हत्याकांड में सीधा हाथ नहीं है. वह 120 बी का अभियुक्त है. फूलचंद का मामला हमारे सामने आया ही नहीं. आपका यह कहना सही है कि सिर्फ हत्यारों की ही बात नहीं उठानी चाहिए, जिनकी हत्या हुई है, उनके पीछे रह गए लोगों का पक्ष भी देखना चाहिए. मैं इस मामले में हमारे संगठन में ये बात रखूंगा.
– प्रेमकिशन शर्मा, अध्यक्ष, पीयूसीएल
क्या कहते हैं मनोचिकित्सक?
हत्या के बाद परिजनों में या तो बदले की तीव्र भावना पैदा होती है या फिर वे अवसाद में चले जाते हैं. नागरिक अधिकार संगठन इस पहलू को भी देखें. अपराधियों की वकालत से अपराधियों का दुस्साहस बढ़ता है और समाज के मनोविज्ञान पर प्रतिकूल असर होता ही है.
डॉ. शिव गौतम, मनोचिकित्सक