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मोदी को मनिया हुइ गवा रे

Sep 20, 2011 | Panini Anand

मोदी बाबू तीन दिन भुखले रहे. कुछू नहीं खाए. काहे लिए, सदभावना के लिए. ये तो ऐसा ही है जैसे करेला कहे, मैं तीन दिन मीठा लगूंगा. जामुन कहे मैं श्वेतांबर हुई जाती हूं और जूता कहे कि कान में पहन लो तो झुमके से कम नहीं. गुजरात में नौ बरस तक पाचक चूरन खाते रहे बाबू साहेब. सोच रहे थे कि संघ का च्यवनप्राश, सत्ता की आजवाइन और मोदीवाद का त्रिफला कफ, पित्त और वात के विकारों से मुक्ति दिला देगा. पर नृशंसता की हड्डियां इतनी आसानी से हजम नहीं होतीं. सो, अब उपवास. तीन दिन तक कुछ न खाओ और साधु भाषा बोलो तो शायद बात बन जाए. पता नहीं कितनी राहत महसूस कर रहे हैं. राहत मिली भी है या यूं ही, बरबस मुस्कराकर कैमरे पर स्वास्थ्यलाभ का संकेत दे रहे हैं.

 
अनशन किसी के दिल और दिमाग का श्वेतपत्र नहीं हो सकता. न इस बात की गारंटी कि आप गांधीवादी और अहिंसक हो चले हैं. एक देश में जहाँ रोज़ करोड़ों भूखे सोते हैं, लाखों भूख से लड़ते हुए बीमारियों की गिरफ्त में आते हैं, हज़ारों बच्चे और मांएं अपनी जानें गंवाती हैं, वहाँ भूखे रहकर समाज को अपना नाम याद दिलाना इन करोड़ों लोगों का उपहास है. मैं लानत भेजता हूं उस मीडिया, हुकूमतों और कथित सभ्य समाज को जो किसी के अनशन पर तिलमिला जाते हैं, हिल जाते हैं, बातें सुनने और समाधान करने लगते हैं, प्रभावित होकर दोहराए फिरते हैं.
 
क्या इस देश में करोड़ों की जबरन अनशन की मजबूरी किसी को चिंता का विषय नहीं लगती. क्या सदभावनाओं की रेवड़ी बांटते नेता और उनकी सरकारें इसे अपने मुंह पर पुती कालिख की तरह नहीं देख पाते. क्या मीडिया के कोला और हाजमोला के विज्ञापन इन करोड़ों भूखे लोगों के साथ क्रूर मज़ाक नहीं हैं. क्या सदभावना शब्द का इससे बड़ा मज़ाक हो सकता है कि इस शब्द को स्थापित करने के लिए कोई भी, कोई भी अनशन पर बैठे. 
 
सदभावना भूखे रहकर दिखाने से नहीं, भूखों के हिस्से की रोटी का संघर्ष अपने हाथों में लेने से आएगी. जिनसे ज़मीनें छीनी गई हैं, जिन्हें जंगलों के पारिस्थितिक तंत्र से नोचकर अलग कर दिया गया है, जिनके जल स्रोतों को शराब और कोला की फेक्ट्रियों में बोलतें धोने के लिए हथिया लिया गया है. जिनके घरों को जलाकर उन्हें सड़कों पर त्रिशूलों और तलवारों के हवाले कर दिया गया है. जिन्हें जन्म की स्वाभाविक प्रक्रिया से पहले ही खींचकर बाहर निकाल दिया गया है सिर्फ इसलिए कि वो किसी ग़ैर-मजहब के नाम लेकर बड़े होंगे, जिनको भय में राजा की जय बोलने और मंच पर आकर राजा के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने तक के लिए बाध्य कर दिया गया है. जिनके ख़्वाबों को सैकड़ों एमओयू पेपरों के झरोखे के पास लाकर खड़ा कर दिया गया है. जिनके सुरक्षाबोध को एक धर्म और विचारधारा के पहिए से जोड़कर उन्हें अफीम मिली चाय पिला दी गई हैं. जो उगते सूरज और डूबते सूरज के बीच केवल वही देख सुन सकते हैं जो खरीद के कागज़ों और बोली लगाए एयरटाइम के ज़रिए उन्हें पेश किया जा रहा है… ऐसे सभी लोगों के प्रति एक सच्ची सदभावना का रास्ता अनशन और उपवास के ज़रिए नहीं खोजा जा सकता.
 
उपवास का अस्त्र उन्हें समझ आता है जिनके पास खाने और फिर सुबह जाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था है. जो रोटियों, सब्ज़ियों, मेवों, फलों, अनाज़ों और व्यंजनों के बीच तय नहीं कर पा रहे हैं कि खाएं तो क्या खाएं और क्या कल के लिए रख छोड़ें. जो समझते हैं कि बॉडी फैट, कोलेस्ट्राल, हेल्थ ऑफ हार्ट और लीवर के आराम के लिए उपवास सबसे पुराना और जाना-माना नुस्खा है, उपवास उनके लिए है.
 
मोदी जी, देश के और अपने राज्य के निर्धनतम व्यक्ति की कुपोषण सीमा तक पहुंचने के लिए एक लंबा उपवास रखिए और समझिए उस पीड़ा को. फिर जुटिएगा सदभावना का गीत गाने के लिए मंडली निर्माण की प्रक्रिया में. सदभावना जैसा शब्द आपके मुंह में शोभा नहीं देता. ठीक वैसे ही लगता है जैसे घड़ियाल निस्चेष्ट पड़ा हो और रो रहा हो. आप हों, आपके प्रतिद्वंद्वी हों या कोई थर्ड अंपायर एनजीओ की बड़ी बिंदी वाली दीदी लोग हों, कृपया उपवास का स्वांग मत कीजिए.
 
अंत में, रमाशंकर यादव विद्रोही की कविता के कुछ अंश आपके ध्यानार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं-
 
ऐसी होती है साहु की सुरती
जिसे खाकर गांव हो गया है तबाह
और बिना खाए रहा नहीं जाता.
बिना सुरती के सबेरे कुछ होता ही नहीं,
नहीं होता सुरती खाने के बाद भी
क्योंकि सबेरे कुछ होने के लिए
सोने से पहले भी कुछ होना चाहिए.
 

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