2008 के अगस्त महीने में आजमगढ़ के अबुल बशर की गिरफ्तारी और उसके बाद सपा के अबू आसिम आजमी और इमाम बुखारी की खरेवां मोड़ सरायमीर पर आम सभा और उसके बाद बशर के घर पहुंचकर सांत्वना देते हुए इस जुल्म के विरोध में दिए बयानों की याद दिलाते हुए मानवाधिकार नेता मसीहुद्दीन संजरी कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि सपा अपने वादों को पूरा करे. बशर के भाई अबू जफर कहते हैं कि जब अबुल बशर की गिरफ्तारी 14 अगस्त 2008 को हुई थी जिसकी खबर 15 अगस्त 2008 के अखबारों में भी आई थी तो पुलिस ने उन्हें 16 अगस्त को लखनउ से गिरफ्तार करने का दावा कैसे किया था. सपा सरकार अपने वादे को पूरा करे और बशर की गिरफ्तारी की जांच करवाए.
अगस्त 2008 में आजमगढ़ से अबुल बशर की गिरफ्तारी के बाद उनके पिता अबू बकर ने बताया था कि “परसों कुछ गुंडा बशर के घरे से अगवा कइ लेनन तब हम पुलिस के इत्तला कइली त पुलिस हम लोगन से कहलस की आपो लोग खोजिए अउर हमों लोग खोजत हई, मिल जाए। पर काल उहय पुलिस साम के बेला आइके हमरे घरे में जबर्दस्ती घुसके पूरे घर के तहस नहस कइ दिहिस. हमके धमकइबो किहिस कि तोहार बेटा आतंकवादी ह अउर तोहरे घरे में गोला-बारूद ह. तलाशी के बाद पुलिस बशर के बीबी क गहना, गांव वाले चंदा लगाके बसर के खोजे बिना पइसा देहे रहे उ अउर जात-जात चूहा मारे क दवइओ उठा ले गई. हमसे पुलिस वाले जबरदस्ती सादे कागद पर दस्खतो करइनन.’’
अबुल बशर की गिरफ्तारी के डेढ़ साल पहले उनके पिता को ब्रेन हैमरेज हो गया था. एक बशर के सहारे पूरा घर था. बीनापारा गांव के लोग बताते हैं कि पिता के ब्रेन हैमरेज के बाद बशर पर ही घर की पूरी जिम्मेदारी आ गई थी. इसीलिए वह कमाने के लिए आजमगढ़ के ही अब्दुल अलीम इस्लाही के हैदराबाद स्थित मदरसे में पढ़ाने चला गया था. बशर जनवरी 2008 में गया था और फरवरी 2008 में वापस आ गया था क्योंकि वहां 1500 रुपए मिलते थे जिससे उसका व उसके घर का गुजारा होना मुश्किल था. दूसरा, पिता की देखरेख करने वाला भी घर में कोई बड़ा नहीं था. इस बीच वह गांव के बिलाल, राजिक समेत कई बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था.
अबुल बशर के चाचा रईस बताते हैं कि 14 अगस्त 2008 को 11 बजे के करीब दो आदमी मोटरसाइकिल से आए और बशर के भाई जफर की शादी की बात करने लगे. बशर घर में मेहमानों की सूचना देकर उनसे बात करने लगा. बात करते-करते वे बशर को घर से कुछ दूर सड़क की तरफ ले गए जहां पहले से ही एक मारुति वैन खड़ी थी. मारुती वैन से 5-6 लोग निकले और बशर को अगवा कर लिया. अगवा करने वालों की स्कॉर्पियो, मारुति वैन और पैशन प्लस मोटरसाइकिल पर कोई नंबर प्लेट नहीं लगा था. इसकी सूचना हम लोगों ने थाना सरायमीर को लिखित दी. गांव वाले बताते हैं कि 13 मई 2008 के जयपुर बम धमाके हों, हैदराबाद के या अहमदाबाद के धमाके, इस दौरान बशर गांव में ही था और अपनी अपाहिज मां और ब्रेन हैमरेज से जूझ रहे पिता का इलाज करा रहा था.
पूर्वी उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ जिला अबुल बशर की गिरफ्तारी के बाद उस दरम्यान जहां चर्चा में आया था तो वहीं एक बार फिर एसटीएफ, एटीएस और आईबी की गैर-कानूनी आपराधिक व झूठी कार्यवाही के खिलाफ पूरा जिला आंदोलित हो गया था. पिछले दिनों जिस तरह सपा सरकार ने यूपी की कचहरियों में हुए बम धमाकों के आरोप में आजमगढ़ जिले से उठाए गए तारिक कासमी की बेगुनाही पर रिहाई की मंशा जाहिर की ऐसे में अबुल बशर का मामला भी काफी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जिस तरह एसटीएफ ने आजमगढ़ जिले से 12 दिसंबर 2007 को उठाए गए तारिक कासमी को आजमगढ़ से अगवा कर 22 दिसम्बर 2007 को बाराबंकी से गिरफ्तार दिखाया ठीक उसी तरह अबुल बशर को भी उसके गांव बीनापारा, सरायमीर से 14 अगस्त 2008 को अगवा कर 16 अगस्त 2008 को लखनऊ चारबाग इलाके से गिरफ्तार दिखाया गया था. 15 अगस्त को विभिन्न अखबारों में छपी खबरें एसटीएफ और एटीएस की इस ‘बहादुराना उपलब्धि’ को झूठा साबित करने के लिए काफी हैं जिसमें पुलिस ने अहमदाबाद धमाकों में सिमी का हाथ होने का पुख्ता प्रमाण मिलने और अबुल बशर को धमाकों का मास्टरमाइंड बताते हुए सिमी का सक्रिय सदस्य बताया था.
ये बात और है कि आजमगढ़ खुफिया विभाग की सीक्रेट डायरी के अनुसार 2001 में सिमी पर प्रतिबंध के बाद 19 लोगों की गिरफ्तारी के बाद अब तक किसी नए व्यक्ति का सिमी का सदस्य बनने का कोई जिक्र नहीं है. सवाल यहां यह है कि जब तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की इसी तरह की फर्जी गिरफ्तारी पर तत्कालीन मायावती सरकार ने आर.डी. निमेश जांच आयोग का गठन किया था तो सपा सरकार क्यों नहीं अबुल बशर की गिरफ्तारी की न्यायिक जांच करवाती है. यह जांच इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बशर की गिरफ्तारी को अहमदाबाद और यूपी एटीएस की संयुक्त गिरफ्तारी कहा गया था. ऐसे में यह जांच प्रदेश के उन आला पुलिस अधिकारियों की सांप्रदायिक गठजोड़ को बेनकाब करेगी जो गुजरात की पुलिस के साथ उनका था. यहां बेगुनाहों को छोड़ने के साथ यह भी सवाल है कि अगर सपा सरकार मुसलमानों पर हुए जुल्मों के खिलाफ लड़ने की बात करती है तो उसे सूबे के ऐसे सांप्रदायिक प्रशासनिक अधिकारियों की शिनाख्त करनी होगी. यह सब जांच के बगैर संभव नहीं है. क्योंकि अबुल बशर को फंसाने में आईबी की भूमिका संदेह के घेरे में है.
अबुल बशर प्रकरण में जावेद नाम का एक व्यक्ति मार्च 2008 से ही बशर के घर आता था जो कभी बशर से मिलता था तो कभी बशर के पिता अबू बकर से और खुद को कम्प्यूटर का व्यवसायी बताता था. वह बिना नंबर प्लेट की गाड़ी से आता-जाता था. जावेद, बशर के भाई अबू जफर के बारे में पूछता था और कहता था कि जफर को कम्प्यूटर बेचना है. अबू बकर ने कहा है कि बशर को उठाने के बाद जावेद 16 अगस्त 2008 की शाम छापा मारने वाली पुलिस के साथ भी आया था. तो वहीं बांस की टोकरी बनाने वाले पड़ोसी कन्हैया बताते हैं कि 14 अगस्त को बशर को अगवा किया गया तो अगवा करने वालों में दो व्यक्ति जो सिल्वर रंग की पैशन प्लस से थे, वे गांव में महीनों से आया-जाया करते थे और वे इस बीच बशर के बारे में पूछते थे.
ऐसे में खुफिया विभाग संदेह के घेरे में आता है कि जब महीनों से वह बशर पर निगाह रखे था तो उसने घटनाओं को कैसे अंजाम दे दिया? मडि़याहूँ जौनपुर से उठाये गए खालिद के मामले में भी आईबी ने इसी तरह छह महीने पहले से ही खालिद को चिह्नित किया था. आतंकवाद के नाम पर की जा रही गिरफ्तारियों में देखा गया है कि कुछ मुस्लिम युवकों को आईबी पहले से ही चिह्नित करती है और घटना के बाद बस किसी को, किसी भी घटना का मास्टरमाइंड बताना बाकी रहता है. ऐसे में देखा जा रहा है कि एसटीएफ और एटीएस की आपराधिक और गैर-कानूनी कारगुजारियों का आईबी सुरक्षा कवच बन गया है.