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बीमार, लाचार भाजपा में कौन करें आत्ममंथन

Jul 14, 2012 | डॉ. सुशील उपाध्याय

भाजपा में हर कहीं आत्ममंथन और आत्मचिंतन के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं. आडवाणी के ब्लॉग से लेकर भाजपा की पत्रिका और संघ के मुखपत्रों तक में आत्ममंथन का हांका लगा हुआ है. पर, सवाल यह है कि आत्ममंथन करना किसे हैं? संघ के कर्ताधर्ताओं को? भाजपा को? मोदी या आडवाणी की? गड़करी को? या बगावत पर उतरे क्षेत्रीय नेताओं को? बीते दिनों भाजपा के साथ अंतर्विरोधों और विरोधाभासों की एक पूरी श्रंखला जुड़ गई है. किसी एक मुद्दे के खत्म होने से पहले ही दूसरा मुद्दा खड़ा हो जाता है. इसकी जड़ में वैचारिक और सैद्धांतिक मतभेदों की बजाय पद की लालसा और संभावित सत्ता पर नियंत्रण की कोशिश छिपी हुई है.

 
भाजपा के बारे में कोई चर्चा संघ के जिक्र के बिना पूरी नहीं होती. भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी जनसंघ को आरएसएस ने अपनी पॉलीटिकल विंग के तौर पर खड़ा किया था. भाजपा के रूप में इस पॉलीटिकल विंग ने काफी हद तक संघ की अपेक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की, लेकिन वक्त के साथ भाजपा का वजूद बड़ा होता गया है और संघ का कद अपेक्षाकृत छोटा हो गया. भाजपा के सत्ता में आने के ठीक पहले तक संघ की हैसियत की तुलना में भाजपा कमजोर थी, लेकिन आज ऐसा नहीं कह सकते. संघ के कमजोर होने के चलते भाजपा के भीतर आजादी पाने की इच्छाएं बलवती होती गई. यषवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज से लेकर राज्यों तक में अनेक ऐसे बड़े नाम भाजपा का हिस्सा बन गए जो न तो संघ से आए थे और ही संघ की वैचारिक प्रसार-प्रसार में उनकी रुचि थी. इससे भी पार्टी के भीतर संघ का असर कम हुआ. रही-सही कसर गठजोड़ की राजनीति ने पैदा कर दी. यानि, भाजपा के मामले में संघ को अपनी हैसियत के बारे में नए सिरे से सोचना है.
 
विरोधाभास इस बात को लेकर पैदा हुआ कि संघ के नेता आज भी इस बात को नहीं मानते कि भाजपा उनसे छिटककर दूर जा सकती है या उसके नियंत्रण को कम करने के लिए कह सकती है. भाजपा के मामले में आरएसएस निर्णय लेता है और उसे लागू कराने की जिम्मेदारी पार्टी के केंद्रीय नेताओं को सौंपता है. संघ अब भी भाजपा की कार्यशैली को नियंत्रित करने की कोशिश करता है. गड़करी इसका उदाहरण हैं कि संघ के निर्णय के बाद किस प्रकार एक औसत नेता पार्टी का अध्यक्ष बन गया और न केवल अध्यक्ष बन गया वरन प्रधानमंत्री पद का सपना भी देखने लगा. यह अलग बात है कि गडकरी शायद ही कभी इस बात का चिंतन करें कि प्रधानमंत्री तो दूर क्या मुख्यमंत्री के तौर पर अपने गृहराज्य को संभालने की क्षमता रखते हैं?
 
आरएसएस के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि विचारधारा के डंडे से व्यक्तित्व को दबाना चाहता है. जबकि, राज्यों के मामले में यह एक बड़ी सच्चाई है कि जब तक वहां कोई करिश्माई या भरोसा जगाने वाला नेतृत्व नहीं होगा वहां पार्टी मजबूत नहीं हो सकती. आरएसएस-भाजपा के भीतर व्यक्तित्व बनाम विचारधारा की लड़ाई अयोध्या आंदोलन के बाद से ही तीखी होती गई है. आठ साल पहले भाजपा के सत्ता से बाहर होने के बाद भाजपा और आरएसएस में कई स्तर पर विवाद बढ़ा. सत्ता में रहने तक अटल-आडवाणी की टीम का कद इतना बड़ा था कि संघ के नेता सीधे तौर पर ज्यादा दखल नहीं देते थे, लेकिन इनके पराभव के बाद संघ के औसत नेता भाजपा नेताओं को दबाने का मौका नहीं छोड़ते.
 
जहां तक विचारधारात्मक पक्ष को नियंत्रित करने की बात हो तो भाजपा को ज्यादा दिक्कत नहीं होती, लेकिन संकट तब खड़ा होता है जब संघ नेतृत्व भाजपा की कार्यशैली को नियंत्रित करने की कोशिश करता है. एक और बात नोटिस किए जाने लायक है. वह, यह कि संघ का प्रभाव केंद्र के नेताओं पर तो है लेकिन राज्यों के क्षत्रप संघ के प्रभाव को नहीं मानते. इसके उदाहरण के तौर पर येदिरप्पा को देख सकते हैं. सबसे बड़ा उदाहरण तो मोदी हैं. संघ उनका खूब गुणगान करता है, लेकिन मोदी एक बार ऐसा नहीं दिखाते कि उनका काम संघ के बिना नहीं चल सकता. वरन, इसके उलट कई बार ऐसे संकेत देते हैं कि वे संघ को ठेंगे पर रखे हुए हैं. संजय जोशी के मामले से यह बात साबित हो चुकी है कि मोदी संघ को अपनी सुविधा के अनुरूप तरजीह देते हैं. यही बात वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह, रमन सिंह, रमेश पोखरियाल निशंक जैसे नेताओं पर भी लागू होती है. 
 
आरएसएस नेतृत्व उन्हीं नेताओं को दबाता है जो कमजोर है. केंद्र कमजोर है, इसलिए उनके नेताओं को नागपुर की गणेश परिक्रमा करनी पड़ती है. यह वक्त भाजपा के लिए आत्ममंथन का है कि वह केंद्र के कमजोर नेताओं के भरोसे कब तक अपनी नैया को मझधार में रख सकती है. 
भाजपा को एक और मामले में मंथन की जरूरत है. वह है, पार्टी के भीतर केंद्र व राज्यों के नेतृत्व में समन्वय और संतुलन. भाजपा में केंद्र कमजोर है और राज्य बेहद मजबूत. यह कांग्रेस के उलट स्थिति है. कांग्रेस में केंद्र का एकछत्र राज है और राज्य कमोबेश शून्य हैं. भाजपा में राज्यों के मजबूत होने से केंद्रीय नेताओं की ज्यादा पूछ नहीं होती. केंद्रीय नेता जो कुछ कहते हैं, राज्यों के दिग्गज उनके उलट रुख अख्तियार कर लेते हैं. मसलन, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान में केंद्रीय नेताओं को राज्य नेतृत्व के सामने चिरौरी करनी पड़ी है. आज एक से लेकर दस तक गिनती करके जिन नेताओं के नाम सामने आते हैं उनमें एक भी नेता ऐसा नहीं है जो पार्टी को संभाल ले. भाजपा की हालत उस फिल्म की तरह हो गई है जिसमें स्टार तो बहुत हैं लेकिन सुपर स्टार एक भी नहीं है. ये तमाम स्टार अपने रोल को बेहतर और प्रभावी करने के लिए दूसरे के रोल को छोटा और प्रभावहीन करने में जुटे हैं. इस तरह भाजपा के मंच पर जो फिल्म सामने आ रही है न उसमें स्टेारी है, क्लाइमैक्स और न ही प्रभावपूर्ण अंत. उसमें ऐसा ड्रामा जरूर है जिसका कोई अंत नहीं है.
 
सबसे बड़े आत्ममंथन की जरूरत आडवाणी को है. एक दशक से आडवाणी छटपटा रहे हैं. उनकी छटपटाहट इतनी गहरी है वे अक्सर संघ की ट्रेनिंग के प्रभाव से बाहर आते दिखने लगते हैं. जिन्ना प्रकरण में यही हुआ था. वे पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाकर उन्हें सेकुलर होने का सर्टिफिकेट दे आए थे, इसके बाद भी उनके कई बयान आए जिनसे संघ और हिंदूवादी ताकतें नाराज हुईं. आडवाणी इस बात को ठीक प्रकार से समझ गए कि इस देष में कट्टरपंथी होकर सत्ता के शिखर तक पहुंचना आसान नहीं है, चाहे वह कट्टरपंथ बहुसंख्यकों से ही क्यों न जुड़ा हो. 
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर राष्ट्रीय स्तर के लिहाज से देखें तो भाजपा में आज आडवाणी के बराबर शायद ही कोई दूसरा नेता हो, लेकिन वे ‘वर्तमान’ की बजाय ‘अतीत’ ज्यादा हैं. यह बात उन्हें जल्द समझ आ जाए तो भाजपा को बड़ी राहत मिल सकती है. आडवाणी के साथ-साथ यदि मोदी भी इस को समझ जाएं कि पूरा देश न तो गुजरात है और न ही कोई व्यक्ति इतना बड़ा होता कि वह संगठन का पर्याय बन जाए तो भाजपा और भी फायदे में रहेगी. लेकिन, मंथन-चिंतन की तमाम सलाहें दूसरों के लिए होती हैं, भाजपा के नेता भी ऐसा ही कर रहे हैं. वे खुद की बजाय दूसरों के आत्ममंथन की ज्यादा चिंता कर रहे हैं और इसी चिंता में भाजपा का आगे बढ़ता जहाज अब बीच-भंवर में दिख रहा है.
 

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