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बिसनू, कौन कुमति तोहे लागी, कैसी यह हठरागी

Apr 19, 2012 | पाणिनि आनंद
(इस लेख की पृष्ठभूमि को जानने के लिए कृपया इन दो लिंकों को क्रमशः देखें.)
 
खलः सर्सप मात्राणि, पर छिद्राणि पश्यन्ति
 
और दूसरा- मूर्खों सावधान, मैं सिंह हूं जो तुम्‍हें आहार बना सकता हूं: विष्‍णु खरे 
 
—————
 
विष्णु खरे के नाम एक खुला पत्र
 
एक ऋषि थे- दुर्वासा. जानकार थे. पढ़े-लिखे थे पर आत्मशलाका शिरोमणि थे. इससे तुष्टिकरण नहीं सह पाते थे. इतिहास उनकी विद्वता के प्रतिमानों से कम, उनकी प्रवृत्तियों की वनबेला से ज़्यादा फूलता फलता रहा है. उनकी चर्चा ही उनके सृजन के लिए नहीं क्रोध और कर्कश स्वरों के लिए होती है. ऐसे ही एक दुर्वासा हैं. आजकल खुद को सिंह बताते हैं. कहते हैं कि बातों के खरे हैं. पर स्थिति पूंजीवाद के पिंजरे में बंद खिसियाए जीव जैसी है जो दांत दिखाने के अलावा और कुछ भी नहीं कर सकता है. न क्रांति, न विद्रोह, न मार्गदर्शन और न ही संघर्ष. केवल मनोरंजन करता है. उसके पास न कंठ है, न स्वर फिर भी किसी पाणिनि को मारकर खा जाने का स्वांग ही उसे रॉयल ओपेरा का विलेन बना देता है और लोगों का इससे भरपूर मनोरंजन होता है. मुझे पता नहीं क्यों सदा से दुर्वासा और सिंहों पर दया ही आई है. मर्सी… शेक्सपीयर वाली मर्सी. तब भी आई थी जब जसम दिल्ली द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में भाषा सिंह ने उन्हें अध्यक्षता सौंपी थी. अध्यक्षी भाषण से पहले कुछ युवाओं के बाकी वक्ताओं से प्रश्नोत्तर के दौरान वो उबल पड़े थे कि जब सबकुछ सब लोग बोल ही लेंगे तो मेरे लिए बचेगा क्या. तभी से इन परशुराम को दया से देखना शुरू किया. इसके बाद जब तब उन्हें सुना या साक्षात देखा, प्राकट्य और प्रवीणता के बजाय छइहटिए हठी नामधारी दसनाम जूना अखाड़ा अवतरित पुष्ट उदर, वामोत्कर्षी किंतु चारण प्रेमी वीरगाथा प्रवर और वीररस सिंचित एक ऐसे ढलते सूरज की तरह ही देखा जिसे इस उम्र में चिंता यह है कि किसी छत पर सूख रहे बच्चों के छोटे-छोटे, रंग-बिरंगे, थर-थर खिलवाड़ करते कपड़ों को वो अपनी आग से, तेज से, उष्मा से भस्म क्यों नहीं कर पा रहा है.
 
पाणिनि को यदि आप मूर्ख मानते हैं तो फिर सिंह बनकर खाने की बात क्यों कहते हैं. सिंह बनकर खाने के लिए अगर आप तैयार दिखाई दे रहे हैं तो इससे स्पष्ट है कि आप पाणिनि को और उसकी एकाग्रता को, अविच्छिन्नता को, विद्वत्व को, नैपुण्य को, बोध को स्वीकार करते चल रहे हैं. बल्कि जो आजतक किसी ने सार्वजनिक रूप से लिखकर स्थापित नहीं किया था, आपने कर दिया. मैं तो एक छोटा-सा बछड़ा हूं जो सीखने के क्रम में आसमान की ओर तो कभी मैदानों के प्रसार की ओर देखता है. कभी बारिश की बूंदें तो कभी तपती धूप. सर्द हवाएं और काली रातें, सावन और फागुन…. सब देख और समझने की कोशिश कर रहा हूं. इसी देखने के क्रम में एकबार आउटलुक हिंदी पर भी आपको शास्त्रार्थ करते पाया था. मैं संस्कृत का विद्वान तो हूं नहीं. अव्वल विज्ञान स्नातक हूं. पर थोड़ी बहुत भाषा भी जानता हूं और थोड़ा बहुत भाषा विज्ञान भी. पाणिनि होने के लिए अष्टाध्यायी रटना ज़रूरी नहीं है, वैज्ञानिक होना ज़रूरी है. सो अपन कामभर हैं. बाकी आप जैसे समीकरणों से जूझते हुए हो जाएंगे.
 
पत्र में लिखने के लिए इतना कुछ है कि आपको पढ़ते और मुझे टाइप करते दिन के दिन बीत जाएंगे. और जिस तरह के सुरों में आप द्रुत छेड़ रहे हैं, अगर मैं अपना बनारसी होना याद करके भैरव और चैती छेड़ दूंगा तो मुझसे ज़्यादा आपके नाम और इतिहास को ठेस पहुंचेगी. पर इसमें मेरी फिलहाल कोई रुचि नहीं है. श्रापित अस्थियों की खटखट पर वैसे भी ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत क्या है. जो ज़िंदा हैं उनसे मिलना और उनके लिए खड़े होना, संघर्ष करना ज़्यादा ज़रूरी है.
 
आपको केवल एक सुझाव दे रहा हूं. हालांकि आपके अनुभव और मेरी उम्र में बहुत फर्क है पर जो सुझाव है वो ही आपको सुझाव देने के लिए प्रेरित कर रहा है. सुझाव यह है कि जब उम्र मोहनदास करमचंद गांधी के समकक्ष हो जाए तो भगत सिंह जैसी आयु के लोगों से टकराने का दुस्साहस त्याग देना चाहिए.
 
पाणिनि आनंद
 
(एक अनुरोध और…. राजनीतिक बहसों को निजी आक्षेपों-प्रतिक्षेपों तक ले जाने की स्थिति आपने पैदा की है. मैं इसे उचित नहीं मानता हूं. इस पत्र के बाद आपकी ओर से की जाने वाली टिप्पणियों के प्रति मैं निर्वैर रहना पसंद करूंगा. त्वदीयं वस्तु गोविंदं, त्वमेव समर्पितं)

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