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बंधुआ मजदूरी के ख़िलाफ़ एक संघर्ष

May 1, 2012 | पाणिनि आनंद

राजस्थान की अकेली आदिम जनजाति है सहरिया. इनकी आबादी का एक बड़ा हिस्सा दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के बारां ज़िले में रहता है. इस ज़िले की किशनगंज तहसील में सड़कों से गुज़रते हुए दो भारत एक साथ रहते दिखाई देते हैं… एक ओर गंदले कपड़ों में लिपटे, मझोले कद के काली चमड़ी वाले, ग़रीब, साधनहीन आदिवासी और दूसरी ओर आज़ादी के वर्षों में यहाँ आकर बसे पैनी नाक, लंबी काठी वाले जाट, सिख, पंजाबी. उनके बड़े-बड़े गुरुद्वारों, लंगरखानों, फॉर्महाउसों वाले गांव-कस्बे. अहातों में ऊंचे-ऊंचे अत्याधुनिक कृषि उपकरण. आज स्थिति यह है कि कभी यहाँ भूमि और संसाधनों के मालिक रहे सहरिया आदिवासी भूमिहीन, उपेक्षित, शोषित हैं और बंधुआ भी.

 
रामस्वरूप 150 रूपए रोज़ की मजदूरी कर रहा है. पिता देवीलाल के हाथ में उसका बंधुआ मुक्ति का प्रमाण पत्र है, तन पर बरसों बाद पूरे कपड़े हैं और घर में अगले कुछ दिनों तक चलने वाला राशन, नमक, तेल है. बारां ज़िले की किशनगंज तहसील के सूण्डा गांव के देवीलाल सहित सूण्डा के डेढ़ दर्जन लोग अब बंधुआ मुक्ति प्रमाण पत्र लेकर नरेगा के तहत या अन्य कार्यों में न्यूनतम मजदूरी लेकर काम कर रहे हैं. जो बंधुआ नहीं हैं, खासकर महिलाएं, उनके भी दिन बहुरे हैं. कुछ दिनों पहले तक 50 रूपए कीमत वाली दिनभर की कड़ी मेहनत अब शाम को हथेली पर डेढ़ सौ रूपए रखती है. सूण्डा की हस्ताबाई की आंखों में दीनता की जगह, मेहनत और मजदूरी की चमक है. उसे काश्तकारों की गालियों, बदतमीज़ियों और शोषण से मुक्ति मिली है.
 
अक्टूबर, 2010 में मजदूर हक़ सत्याग्रह के दौरान संकल्प संस्था और जागृत महिला संगठन की मदद से यहां बंधुआ मजदूर मुक्ति का आंदोलन शुरू हुआ. आज 167 मजदूर इस क्षेत्र में बंधुआ मुक्ति के लिए आवेदन कर चुके हैं. पिछले कुछ हफ्तों में 67 बंधुआ मजदूरों को प्रमाण पत्र मिल चुके हैं. बाकी 100 को मुक्त तो करा दिया गया है पर कर्ज़ माफी प्रमाण पत्र और सरकारी मदद अभी तक नहीं दी गई हैं.
 
इसी संघर्ष ने इलाके के सभी आदिवासी परिवारों को जॉब कार्ड, 200 दिन की रोज़गार गारंटी, सभी को अंत्योदय कार्ड भी दिलवाया है. आदिवासियों की मानसिकता बदली है. काश्तकारों का खौफ़ कम होना शुरू हुआ है. स्थानीय प्रशासन भी आदिवासियों की गुहार सुनने को विवश हुआ है. बड़े पैमाने पर होने वाला पलायन रुका है.
 
क्षेत्र के एक सिख किसान, सुखजीवन सिंह भी मानते हैं कि 200 दिन की रोज़गार गारंटी से मजदूर अब आसानी से नहीं मिलते और सरकार के मांग रखते हैं कि फसल के समय नरेगा का काम न चलाया जाए. वो बताते हैं कि नरेगा के कारण ही आज 150 रूपए प्रतिदिन देकर मजदूरी करानी पड़ रही है.
 
क्षेत्र के किसान मानते हैं कि किसी को बंधुआ रखना ही बंधुआ मजदूरी है जबकि क़ानून कहता है कि बंधुआ रखकर काम कराने के अलावा अग्रिम भुगतान करके काम करने के लिए विवश करना और न्यूनतम मजदूरी न देना भी बंधुआ मजदूरी कराना ही माना जाएगा. इस लिहाज से तीन तरह के क़ानूनों का उल्लंघन हो रहा है- बंधुआ मुक्ति क़ानून का, अनुसूचित जाति-जनजाति हिंसा क़ानून का और न्यूनतम मजदूरी क़ानून का. लेकिन 67 लोगों को बंधुआ मुक्ति प्रमाण पत्र दे चुके राज्य प्रशासन ने किसी भी काश्तकार के ख़िलाफ एक भी मामला दर्ज नहीं किया है. न ही राहत राशि का वितरण सुनिश्चित हो सका है. ज़िले के श्रम अधिकारी बीएल वर्मा झालावाड़ में नियुक्त हैं. यहाँ उनके पास अतिरिक्त प्रभार है. वो अपनी लाचारी, अतिरिक्त कार्यभार और सीमाओं का रोना रोते हैं. एसडीएम का तबादला हो गया है और नए एसडीएम की नियुक्ति में देरी हो रही है.
 
इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद मजदूरों का संघर्ष जारी है क्योंकि इलाके में आज भी सैकड़ों मजदूर बंधुआ हैं. हालांकि किसान काफी सक्रियता से मजदूरों को रोकने और स्थिति संभालने में लगे हैं और प्रशासन भी सर्वेक्षण में देरी करता जा रहा है.
 
सूण्डा से निकलते वक्त पलटकर मैंने पूछा, क्या आप लोगों को इस आमने-सामने के संघर्ष से डर नहीं लगता. जवाब मिला, हम आज़ाद हैं और हमारा संगठन है. सूण्डा का हर सहरिया यहीं रहेगा और सम्मान के साथ काम करेगा. इस गांव की कहानी सहरिया जनजाति के लिए संबल बनकर आई है.
 
हालांकि संघर्ष की यह कहानी इतनी आसान और सीधी नहीं है. इस दौरान सहरिया जनजाति के बंधुआ मजदूरों को जगाने का काम कर रहे संगठनों पर ज़मीदारों और बड़े किसानों ने राजनीतिक षडयंत्रों के साथ साथ कुछ गंदे और तर्कहीन आरोप लगाए. इन आरोपों का सच भी कुछ दिनों में सामने आ गया कि दरअसल, ऐसा इसलिए किया गया ताकि मजदूरों में चेतना जगाने का काम कर रहे संगठनों को बदनाम कर इस पूरे अभियान को रोका जा सके.
 
मजदूर दिवस के मौके पर आज इस छोटी सी रिपोर्ट के साथ हम एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आपके समक्ष पेश कर रहे हैं जिससे आपको इस इलाके के मजदूरों आदिवासियों की स्थिति और उनके संघर्ष व शोषण की कहानी का अंदाज़ा लगेगा. कृपया इस रिपोर्ट को ज़रूर पढ़ें और मजदूरों की मुक्ति और बराबरी के संघर्ष को अपना सहयोग और ताकत दें.
 
फ़ैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

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