पूंजीवादी चरमपंथी हैं मनमोहन सिंह
Mar 19, 2012 | पाणिनि आनंदएक ऐसा शख्स जिसने हर क़दम पर देश को नुकसान पहुंचाया है. एक ऐसा नेता जिसमें नेता होने का कोई गुण नहीं लेकिन दलाली, डीलिंग और पूंजीवादी चरमपंथ के सारे गुण मौजूद हैं, एक ऐसा व्यक्ति जिसने देश को केवल पानी का एक सोता समझा है और इसका इस्तेमाल केवल शौंच के बाद प्रच्छालन के लिए किया है, अगर वह व्यक्ति किसी अभियान या लड़ाई के बारे में अमरीका प्रायोजित होने की बात कहे तो इसे मानसिक दिवालियापन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण घोषित कर दिया जाना चाहिए.
सोचिए, कैसा लगे अगर नरेंद्र मोदी कह बैठें कि फलां व्यक्ति सांप्रदायिक है, पी चिदंबरम कह बैठें कि अमुक संगठन आदिवासी और जन विरोधी है, बाबा रामदेव कह बैठें कि फलां बाबा के चेले भ्रष्ट हैं. क्या इन लोगों के पास ऐसा कहने का, ऐसे बयान देने का कोई नैतिक आधार शेष है.
मनमोहन सिंह ने इस देश को पूंजीवाद के कागज़ पर अमरीका की कलम से चलाया है. अपनी हर भूमिका में उन्होंने केवल और केवल इस देश को गोश्त की दुकान पर बिक रहे बकरे से ज़्यादा और कुछ नहीं समझा है. उनकी नीतियों ने लोगों को सांप्रदायिक ताकतों से भी ज़्यादा घाव दिए हैं. ऐसा व्यक्ति जिसकी बातों और नीतियों से, व्यवहार और भाषा से, मानसिकता और कार्ययोजनाओं से सिर्फ और सिर्फ अमरीका की बू आए, किसी को अमरीका परस्त, अमरीकी परस्त या अमरीका द्वारा प्रायोजित कहे तो कितना बड़ा अनर्थ है.
कुदानकुलम में मानवाधिकारों की, जन भावनाओं की, प्रकृति और पारिस्थितिकी की, इस देश में संविधान लागू होने की, लोगों के मौलिक अधिकारों की, संसाधनों की जो धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, उनका विरोध करने के लिए शब्द कम पड़ जाएंगे. हत्याएं हवाओं में वेग से बह रही हैं, लोग उसकी चपेट में हैं. विरोध के स्वरों पर राजद्रोह का मुक़दमा ठोंक दिया गया है. पुलिस और प्रशासन मिलकर अत्याचार और उत्पीड़न का नंगा नाच खेल रहे हैं.
कुदानकुलम में सरकारें जो खेल खेल रही हैं, जिस पैशाचिक तैयारी के साथ लोगों को खत्म करने की तैयारी की जा रही है, उसको रोकने के बजाय उसके खिलाफ खड़े हुए किसी भी स्वर को खारिज करने की एक सोची समझी साजिश के तहत मनमोहन सिंह का यह ताज़ा बयान आया है. अफसोस की वो इस देश के प्रधानमंत्री हैं.
पिछले दिनों कुदानकुलम से किसानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से दिेल्ली आकर मिला भी था. तब प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि कुदानकुलम के सवाल पर वो वहाँ के लोगों का और दूसरे विशेषज्ञों का मत भी सुनेंगे पर वादा करने के कुछ घंटों बाद ही प्रधानमंत्री का सुर बदल गया. स्वीकारना तो दूर, किसानों और स्थानीय लोगों का तर्क सुना तक नहीं गया. आज अभियान को प्रायोजित कहने वाला प्रधानमंत्री क्या खुद अमरीका की नीतियों और निर्देशों का प्रायोजित दलाल बनकर सरकार नहीं चला रहा.
यह कैसी विवशता है, यह कैसा लोकतंत्र है, यह कैसी जनतांत्रिक व्यवस्था है जिसमें जन के मन का कुछ भी नहीं है. न नीति, न नीति नियंता और नीति निर्धारक. सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग पूतना की तरह देश को विषपान कराने पर तुले हैं. लोगों की ज़िंदगियों में ज़हर घोलकर ऊर्जा अर्जित करने की किस अतिशयता से प्रधानमंत्री ग्रस्त हैं, यह समझ से परे है.
तुर्रा यह कि देश में आमजन के संघर्ष को बदनाम करने, उसे खारिज करने, उसे विदेशी ताकतों के हाथ में खेल रहे होने का आरोप लगाए जा रहे हैं. अरे, इस देश के प्रधानमंत्री को आइने के सामने खड़ा होकर खुद से यह प्रश्न करना चाहिए कि इस देश में अमरीका के इशारे पर शासन करने वाले कौन हैं, अमरीका के दिन को दिन और रात को रात मानने वाले कौन हैं, किसने एक-एक कर उन सारी बातों को इस देश की पीठ पर पत्थर की तरह लाद दिया है, जो उन्हें अमरीकी आकाओं द्वारा डिक्टेट की गई हैं. किसका अर्थशास्त्र इस देश को थाली में परोसकर भोगने भर की वस्तु के तौर पर देखता है.
ध्यान दिलाता चलूं कि इस देश के प्रधानमंत्री को जिस शोधकार्य के आधार पर अर्थशास्त्री माना जाता है, उस शोधकार्य का विषय ही यह है कि कैसे इस देश का संसाधनों को अधिक से अधिक दोहन किया जाए. इसी को ध्यान में रखकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने अपनी सारी नीतियों को बनाया और क्रियान्वित किया है.
इतने भर से भी मन नहीं भरा तो इस देश को अमरीका के लिए एक मंडी की तरह खोल दिया गया है जहाँ जब जो चाहो, बेंच कर चले जाओ. चाहे वो रासायनिक ज़हर हो, खेतों के लिए जीएम बीज हों, यूरेनियम और रिएक्टर हों, मल्टीनेशनल ब्रांड हों.
दरअसल, जन विरोध की खिसियाहट के कारण मनमोहन सिंह अपना मानसिक संतुलन खोते नज़र आ रहे हैं. पंजाब में रैली करने पहुंचे थे अपनी पार्टी के समर्थन में, हज़ार आदमी भी किराए पर सभा सुनने न पहुंचा. दिन-ब-दिन देश में संसाधनों की लूट और लोगों के हितों के साथ साथ प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ के मुद्दे पर यह सरकार बार बार घेरी जा रही है. सत्ता की डोर किसी एक लिटमस टेस्ट को झेल पाने का दम नहीं रखती है. कमज़ोर और असहाय होते जा रहे इस अमरीकी पूंजीवादी चरमपंथी प्रधानमंत्री के लिए अपनी भड़ास को निकालने और विरोधियों को बदनाम करने के लिए जो शब्द समझ में आए, उन्होंने कह दिए.
प्रधानमंत्री न्यूनता के सारे स्तरों को लांघकर गिर गए हैं. अमरीका का भूत दिमाग में इस कदर हावी है कि अपने ही लोगों को लांछित करने से वे नहीं चूक रहे. अगर उनको पक्का विश्वास है कि कुदानकुलम की लड़ाई के पीछे अमरीका के लोगों का हाथ है तो पहले तो वो इसे साबित करें अन्यथा देशभर से अपने इस बयान के लिए माफी मांगें.
दरअसल, इस सरकार को अब बने रहने का और मनमोहन सिंह को तो भारत की राजनीति में बने रहने का ही कोई नैतिक अधिकार नहीं है. मनमोहन सिंह को चाहिए कि यथाशीध्र अपने पद से इस्तीफा देकर भारत के लोगों पर रहम करें. इससे कम और कुछ नहीं.