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न होता मैं तो क्या होता…

Oct 2, 2011 | अफ़रोज़ आलम 'साहिल'

आज पूरा विश्व महात्मा गांधी के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मना रहा है, पर चम्पारण के लोग गांधी को भूलने लगे हैं… चम्पारण के लोग यह भी भूलने लगे हैं कि किस तरह से यहां की माटी में जन्मे जवानों ने देश के लिए कैसी यातनाएं झेली हैं. चम्पारण गांधी की कर्म-भूमि है,  पर अब यहां के लोगों को तो अब दूसरा गांधी ज़्यादा पसंद आने लगे हैं. इधर हिमालय की ओर से आने वाली हवा भी गांधीवाद के खिलाफ है.

 
पिछले दिनों मैं चम्पारण में था. सौभाग्य से मोतिहारी के गांधी संग्रहालय व स्मारक में जाने का अवसर प्राप्त हुआ. वहां के जाकर पता चला कि संग्रहालय में रखी अमर-जवान की प्रतिमा से प्रतिक चिन्ह यानी बन्दुक व टोपी ही गायब है. पूछने पर आरोप बच्चों पर लगाया गया. यहां गार्ड के तौर पर कार्य करने वाले एक जनाब से बात करने पर मालूम हुआ कि वो नेपाल में सिग्रेट फैक्ट्री में काम रहा था, लेकिन जब उसे लगा कि वह समाज के हित में सही नहीं कर रहा है, तो उसने स्वयं को गांधी के हवाले कर दिया, लेकिन उस बेचारे को 300 रूपये महीने में ही ज़िन्दगी चलानी पड़ती है. 
 
संग्रहालय में माली के तौर पर काम करने वाले चाचा की बातें मुझे काफी दिलचस्प लगीं. जब मैंने उनसे पूछा कि यहां दिन भर में कितने लोग गांधी के इस संग्रहालय व पार्क को देखने आते हैं, तो चाचा का स्पष्ट जवाब था कि अब गांधी को कौन पूछता है. दिन भर में 30-40 प्रेमी जोड़े ज़रूर आ जाते हैं. गांधी के नाम पर मुहब्बत के कुछ पल गुज़ारते हैं और चले जाते हैं. जब हमने उनसे उनके तनख्वाह के बारे में पूछा तो चाचा ने बताया कि कई महीनों से 1500 रूपये करने की बात चल रही है, फिलहाल 500 रूपये महीने से ही गुज़ारा चलाना पड़ रहा है. महंगाई का दौर है, बड़ी मुश्किल से घर चल पाता है. वो तो ये कहिए कि कुछ प्यार करने वाले लोग आ जाते हैं, उन्हीं के लिए कैन्टीन से कुछ ला देने से 2-4 रूपये मिल जाते हैं. 
 
तभी मेरी कस्तुरबा गांधी स्मृति कैन्टिन पर पड़ी. अंदर का दृश्य देखकर मुझे काफी अफसोस हुआ कि जिस गांधी ने ग्राम स्वराज्य पर ज़ोर दिया था आज उनके ही नाम से जुड़े कैन्टिन निम्बूज़, लेज़, पेप्सी, कोका कोला और न जाने क्या-क्या चीज़े बिक रही हैं.
 
अगले दिन की खबर मेरे लिए काफी दिलचस्प थी. अखबार के खबर से मालूम हुआ कि पूर्वी चम्पारण के पकड़ीदयाल में अनुमंडल मुख्यालय चौक से मधुबनी घाट जाने वाली सड़क पर स्थित गांधी स्मारक से गांधी की प्रतिमा को उखाड़ कर फेंक दिया गया है. अगले दिन मोतिहारी में पकड़ीदयाल के कुछ लोगों से बात करने पर पता चला कि शायद यह काम दूसरे गांधी के समर्थकों ने किया है. स्पष्ट रहे कि 1904 में भूकम्प के बाद इस पकड़ीदयाल में गांधी आए थे.
 
बेतिया में हज़ारीमल धर्मशाला की हालत तो और भी जर्जर है. यहां के व्यापारी इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि कब यह इमारत गिर जाए ताकि इसे भी बिजनेस कॉम्पलेक्स में तब्दील कर दिया जाए. जबकि सूचना के अधिकार से मिले कागज़ के टुकड़े बताते हैं कि हजारीमल धर्मशाला, बेतिया को राज्य सरकार द्वारा सुरक्षित स्मारक घोषित किया गया है. इसकी रख-रखाव की व्यवस्था संबंधित कला, संस्कृति एवं युवा (पुरातत्व निदेशालय) विभाग को है. इस स्थल पर अतिक्रमऩण के विरूद्ध माननीय उच्च न्यायालय, पटना में एक याचिका भी दर्ज हुई है, जिसकी देख-रेख विभाग द्वारा की जा रही है.
 
पिंजरापोल गोशाला की देखरेख करने वाले गांधीवादी गौ-सेवक नरेश चन्द्र वर्मा के बातों ने तो मुझे अंदर तक झकझोर दिया. गांधी द्वारा स्थापित इस गोशाला में गांधी के हत्यारे ही काबिज़ हैं, क्योंकि मक़सद सिर्फ और सिर्फ कमाना है. गांधीवादी गौ-सेवक नरेश चन्द्र वर्मा बताते हैं कि जो लोग ये कहते हैं कि गव हमारी माता है, वह भी इसे देखने नहीं आते. सुशील कुमार मोदी भी इसे देखने आए थे, पर हुआ कुछ नहीं, जबकि यहां के सांसद व विधायक दोनों ही भाजपा के हैं. इससे दिलचस्प बात और क्या हो सकती है कि पिंजरापोल गोशाला के भूतपूर्व सचिव रामावतार सिंघानिया जो यहां के आर.एस.एस. प्रमुख भी थे, ने 2003 में माननीय भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी को पत्र लिखकर पश्चिम चम्पारण को एक आदर्श गौ-विकसित ज़िला का स्वरूप प्रदान करने के मांग की, पर हुआ कुछ नहीं. जबकि अटल बिहारी जी रामावतार सिंघानिया के काफी अच्छे मित्रों में से एक थे. हमने (लेखक ने) स्वयं इस पिंजरापोल गोशाला को लेकर आर.टी.आई. डाली थी, बल्कि प्रथम व द्वितीय अपील भी दायर किया था, पर दो साल के बाद भी मुझे कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई.       
 
गांधी से जुड़े बाकी धरोहरों की कहानी काफी दिलचस्प है. गांधी के सत्य-अहिंसा एवं सत्याग्रह की प्रयोगस्थली चम्पारण के ज़िला मुख्यालयों स्थित क्षेत्रीय प्रचार कार्यालयों की स्थिति तो और भी बदतर है. मोतिहारी कार्यालय में दशकों पूर्व उपलब्ध हुए गांधीवादी साहित्य को दीमकें कब चाट गईं, पता ही नहीं चला. चम्पारण के लोगों की गांधी के नाम पर एक विश्वविद्यालय की मांग काफी पुरानी है. बल्कि मोतिहारी से पहले बनकट में गांधी खुला विश्वविद्यालय का प्रस्ताव भी पास कर दिया गया था, यहां तक कि यहां बोर्ड भी लगाया गया, लेकिन हक़ीक़त इस बोर्ड से अधिक कुछ नहीं. बेचारे जिन लोगों ने इस विश्वविद्यालय के लिए ज़मीनें दी वो पछता रहे हैं.
 
यहां गांधी जयंती पर छोटे-मोटे आयोजन सिर्फ रस्म-अदायगी के प्रतिक हैं. लालबत्ती के नशेड़ियों ने यह मान लिया है कि गांधी की अब ज़रूरत नहीं है. पहले उनको भजने से कुर्सी मिलती थी अब कास्ट, क्रिमिनल और कैश चिंताजनक है. उग्र विचारधाराओं के प्रचार तंत्र ने गांधीवाद को उसकी कर्मभूमि में ही पराजित कर दिया है. उग्रवाद की नहीं, हमारी स्वार्थपरता भी अहिंसा के महानायक को चुनौती दे रही है. लेकिन ये बात भी सच है कि हमारे चम्पारण के लोगों को विश्वास है कि गांधी यहां फिर अवतार लेंगे. लेकिन मुझे इस बात का डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं यहां के लोग गाधी के हत्यारों को ही गांधी का अवतार न समझ बैठे. क्योंकि यहां की जनता आज भी बहुत भोली है, और हमारे युवा तो गांधी से बिल्कुल ही अनभिज्ञ हैं.  ऐसे में मुझे अपने बापू की याद आ रही है, जो पिछले साल आज ही के दिन हमें सदा के लिए छोड़कर चले गए. काश… वो जीवित होते तो मुझे गांधी की कहानियों को सुनाते…

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