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न्याय की बैशाखी पर मौत की इबारत

Jun 10, 2012 | अंजनी कुमार

8 जून 2012, सेशन कोर्ट, इलाहाबाद. सुबह 11 बजे से न्याय के इंतजार में हम लोग खड़े थे. सीमा आजाद और विश्वविजय कोर्ट में हाजिर नहीं थे. वकील ने बताया कि जज साहब दोपहर बाद ही बैठेगें. वह अभी भी  ‘न्याय’ को अंतिम रूप देने में व्यस्त हैं. हम लोगों के लिए इस व्यस्तता को जान पाना व देख पाना संभव नहीं था. कमरा न. 23 के आस पास गहमागहमी बनी हुई थी. तेज धूप और उमस में छाया की तलाश में हम आस पास टहल रहे थे, बैठ रहे थे और बीच बीच में कोर्ट रूम में झांक आ रहे थे, कि जज साहब बैठे या नहीं. सीमा की मां, बहन, भाई, भांजा व भांजी और कई रिश्तेदार व पड़ोसी इस बोझिल इंतजार को एक उम्मीद के सहारे गुजारने में लगे थे. मैने, विश्वविजय के चचेरे भाई अपने दोस्त के साथ इस इंतजार को वकील के साथ बातचीत और इलाहाबाद विश्वविद्यालय को देख आने में गुजार दिया. 

 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस लॉन में जहां हम लोगों ने पहला स्टडी सर्किल शुरू किया था, में बैठना मानो एक शुरूआत करने जैसा था. 1993 में बीए की पढ़ाई करते हुए विकल्प छात्र मंच और बाद में इंकलाबी छात्र सभा को बनाने का सफर यहीं से हमने शुरू किया था. विश्वविजय रिश्ते में भवदीय था लेकिन छात्र जीवन और राजनीति में हमसफर. हम आपस में बहुत लड़ते थे. इस लड़ने में हम लोगों के कई हमसफर थे. हम जितना लड़ते थे उतना हमारे स्टडी सर्किल और संगठन का विस्तार और उद्देश्यों की एकजुटता बढ़ती गई. 1996 के अंत में मैं गोरखपुर चला गया. इलाहाबाद से प्रस्थान करने तक विश्वविजय शाकाहारी से मांसाहारी हो चुका था, खासकर मछली बनाने में माहिर हो चुका था. वह एक अच्छा कवि बन चुका था. और प्रेम की धुन में वह रंग और कूची से प्रकृति को सादे कागज पर उतारने लगा था. उसके बात करने में व्यंग और विट का पुट तेजी से बढ़ रहा था. 1997 में गांव का और वहां के छात्र जीवन का अध्ययन व इंकलाबी छात्र सभा के सांगठिन विस्तार के लिए मैं पूर्वांचल के विशाल जनपद देवरिया चला गया. बरहज लार सलेमपुर गौरीबाजार चैरी चैरा खुखुन्दु आदि कस्बों व गांवों पर वैश्वीकरण, नीजीकरण और उदारीकरण की गहरी पकड़ बढ़ता जा रहा था. दो बार लगभग 35 किमी का लंबा दायरा चुनकर रास्ते के गांवों का अध्ययन किया. इसमें न केवल गांव की जातीय व जमीन की संरचना एक हद तक साफ हुई साथ खुद की अपना भी जातीय व वर्गीय पुर्वाग्रह भी खुल कर सामने आया. इस बीच विश्वविजय से मुलाकात कम ही हुई. इंकलाबी छात्र सभा के गोरखपुर सम्मेलन में विश्वविजय से मुलाकात के दौरान वह पहले से कहीं अधिक परिपक्व और मजबूत लगा. वह छात्र मोर्चे में पड़ रही दरार से चिंतित था. 
 
वर्ष 1999 में मैं बीमार पड़ा. महीने भर के लिए इलाहाबाद आया. उस समय तक इंकलाबी छात्र सभा की इलाहाबाद इकाई में दरार पड़ चुकी थी. आपसी विभाजन के चलते और साथियों के बीच का रिश्ता काफी तंग हो चुका था. इन सात सालों में हम सभी दोस्तों के बीच जो बात मुख्य थी वह सामाजिक सरोकारों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना थी और लोगों को पंगु बनाने की नीति के प्रति गहरी नफरत थी. 2000 में आपरेशन के लिए दिल्ली आना पड़ा और फिर यहीं का होकर रह गया. इस बीच विश्वविजय से बहुत कम मुलाकात हुई. दो बार गांव में और दो बार इलाहाबाद. मेरा इंकलाबी छात्र सभा से रिश्ता टूट चुका था. विश्वविजय इस मोर्चे पर डटा रहा. वह इस बीच गांव के हालात  के अध्ययन के लिए इलाहाबाद के आस पास गया. उसने मुलाकात के समय फूलपुर के किसानों और शंकरगढ़ के दलित व आदिवासी लोगों के जीवन के बारे में काफी कुछ बताया. बाद के दिनों में विश्वविजय से सबसे अधिक मुलाकात और बात नैनी जेल में हुई. हम दोनों के बीच लगभग बीस सालों की बातचीत के सिलसिले में परिवार का मुद्दा हालचाल जानने के उद्देश्य से आता था. लेकिन इस 8 जून को यह सिलसिला भी टूट गया. शाम पांच बजे ‘न्याय की इबारत’ सुनने के बाद सारी बेचैनी को समेटे हुए कोर्ट से बाहर आने पहले विश्वविजय से गले मिला और कहा, ‘‘जल्दी ही जेल में मिलने आउंगा….’ वह काफी शांत था. व्यंग और विट की भाषा कभी न छोड़ने वाला विश्वविजय मेरा हाथ पकड़े हुए भवदीय रिश्ते की भाषा में लौट आया. मानों लगा कि हम 1992 की चैहद्दी पर लौट गए हों, गांव से आए हुए दो नवयुवक और हम दोनों को गाइड करने, भोजन बनाकर खिलाने वाला मेरा अपना बड़ा भाई के सानिध्य में. मेरे बड़ा भाई हम दोनों के इलाहाबाद आने के बाद एक साल में ही नौकरी लेकर इलाहाबाद से चले गए. और फिर भाईपने से मुक्त हम दोनों अगल अलग इकाई थे. और इस तरह हम एक जुदा, स्वतंत्र और एक मकसद की जिंदगी जीते हुए आगे गए. हमारा समापवर्तक जो बन गया था उससे हमारा परिवार भी चिंतित था. पर, उस कोर्ट में हम 1992 की चैहद्दी पर लौट गए थे. विश्वविजय कोर्ट में जिम्मेदारी दे रहा था, ‘‘अम्मा बाबूजी को संभालना……हां….ख्याल रखना…..’ मैं कोर्ट से बाहर आ चुका था. लौटते समय मेरा दोस्त संयोग बस मुझे उन्हीं गलियों से लेकर गया जहां मेरे गुरू और हम लोगों के प्रोफेसर रहते थे, जहां हमने इतिहास और इतिहास की जिम्मेदारियों को पढ़ा और समझा, यहीं मैंने लिखना सीखा, यहीं अनगढ़ कविता को विश्वविजय ने रूप देना सीखा,…..हम उन्हीं गलियों से गुजर रहे थे….अल्लापुर लेबर चैराहे से……मजदूरों और नौकरी का फार्म भरते व शाम गुजारते हजारों युवा छात्रों की विशाल मंडी. 
 
इन रास्तों से गुजरना खुद से जिरह करने जैसा था. सिर्फ सीमा और विश्वविजय के साथ कोर्ट में न्यायधीश के द्वारा किए व्यवहार से, उसके ‘न्याय’ से जूझना नहीं था. हम जो पिछला बीस साल गुजार आए हैं, जिसमें हमारे लाखों संगी हैं और लाखों लोग जुड़ते जा रहे हैं उनकी जिंदगी से जिरह करने जैसा है. लगभग छः महीना पहले गौतम नवलखा ने सीमा आजाद का एक प्रोफाइल बनाकर भेजने को कहा. मैंने लिखा और भेज दिया. उसे उस मित्र ने कहां छापा पता नहीं. मैं इस उम्मीद में बना रहा कि आगे विश्वविजय और सीमा का प्रोफाइल लिखने की जरूरत नहीं होगी. कई मित्रों ने कहा कि लिखकर भेज दो. पर एक उम्मीद थी सो नहीं लिखा. लिखना जिरह करने जैसा है. इस जिरह की जरूरत लगने लगी है. यह जानना और बताना जरूरी लगने लगा है कि सीमा और विश्वविजय के जीवन का मसला सिर्फ मानवाधिकार और उसके संगठन से जुड़कर चलना नहीं रहा है. सीमा एक पत्रिका की संपादक थी और उससे सैकड़ों लोग जुड़े हुए थे. विश्वविजय छात्र व जनवाद के मुद्दों पर लगातार सक्रिय रहा. और कम से कम इलाहाबाद के लोगों के लिए कोई छुपी और रहस्यपूर्ण, षडयंत्रकारी बात नहीं थी. यह एक ऐसा खुलेआम मामला था जिसे  सारे लोग जानते थे और कार्यक्रमों हिस्सेदार थे. 
 
सीमा आजाद का यह प्रोफाइल अपने दोस्तों के लिए एक रिमाइंडर की तरह है-  6 फरवरी 2010 की सुबह इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर रीवांचल ट्रेन से उतरते ही सीमा व उनके पति विश्वविजय को माओवादी होने व राज्य के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. दोनों के उपर यूएपीए 2005 के तहत मुक़दमा ठोक दिया गया. इसके बाद कोर्ट में एक के बाद एक जमानत की अर्जी पेश किया गया. पर हर बार यह अर्जी खारिज कर दी गई. जाहिरातौर पर जमानत न देने के पीछे सीमा आजाद के खतरनाक होने का तमगा ही राज्य के सामने अधिक चमक रहा होगा. आज जब लोकतंत्र पूंजी कब्जा व लूट की चेरी बन जाने के लिए आतुर है तब खतरनाक होने के अर्थ भी बदलता गया है. मसलन, अपने प्रधानमंत्री महोदय को युवाओं का रेडिकलाइजेशन डराता है. इसके लिए राज्य मशीनरियों को सतर्क रहने के लिए हिदायत देते हैं.स्ीमा आजाद उस दौर में रेडिकल बनीं जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं हुआ करते थे. तब उन्होंने विश्वबैंक के तहखानों से निकल कर इस देश के वित्तमंत्री का पद संभाला था. साम्राज्यवादियों के इषारे पर उन्होंने खुद की बांह मरोड़ लेने की बात कहा था. इसके बाद तो पूरे देश के शरीर को ही मरोड़ने का सिलसिला चल उठा. 
 
उस समय सीमा आजाद का नाम सीमा श्रीवास्तव हुआ करता था. उसने इलाहाबाद से बीए की पढ़ाई की. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एमए पास किया. 1995 तक उसे ब्रम्हांड की गतिविधियों में ही ज्यादा रूचि बनी रही. वृहस्पति के चांद जो लड़ी के तरह दिखते हैं उसे वह टेलीस्कोप से घंटों देखती रहती थी. देर रात तक ग्रहों व तारों की तलाश में वह पिता से कितनी ही बार डांट खाई. उस समय तक देश पर उदारीकरण की अर्थनीति का राजनीति व आम जीवन पर असर खुलकर दिखने लगा था. सीमा ने ब्रम्हांड की गतिकी को जे डी बरनाल की पुस्तक हिस्टरी ऑफ साइंस से समाज की गतिकी के साथ जोड़कर देखना शुरू किया. समसामयिक विज्ञान व दर्शन पर आई हुई रूकावट में उसे अपने समाज की गति के सामने बांध दिए गए बंधों को समझना शुरू किया. 1995-96 में छात्र व महिला मोर्चे पर उसकी गतिविधियां बढ़ने लगी. जूलियस फ्यूचिक की पुस्तक फांसी के तख्ते को पढ़कर वह सन्नाटे में आ गई थी. उसे पहली बार लगा कि समाज की गति पर बनाई गई भीषण रूकावटें वहीं तक सीमित नहीं हैं. ये रूकावटें तो मनुष्य के जीवन की गति पर लगा दी जाती हैं.सीमा श्रीवास्तव नारी मुक्ति संगठन के मोर्चे पर 2001 तक सक्रिय रहीं. जबकि इंकलाबी छात्र मोर्चा के साथ बनी घनिष्ठता 2004 तक चली. सीमा ने प्रेम विवाह किया और फिर घर छोड़ दिया. नाम के पीछे लगी जाति को हटाकर आजाद लिखना शुरू किया. यह एक नए सीमा का जन्म था सीमा आजाद. उसने पैसे जुटाकर बाइक खरीदा. समाचार खोजने के लिए वह लोगों के बीच गई. लोगों की जिंदगी को खबर का हिस्सा बनाने की जद्दोजहद में लग गई. उसकी खबरें इलाहाबाद से निकलने वाले अखबारों में प्रमुखता से छपती थीं. वह इलाहाबाद शहर के सबसे चर्चित व्यक्तित्वों में गिनी जाने लगी थी. वह मानवाधिकार, दमन-उत्पीड़न, राजनीतिक सामाजिक जनांदोलनों, किसान मजदूरों के प्रदर्शनों का अभिन्न हिस्सा होती गई. उसने जन मुद्दों पर जोर देने व समाज और विचार से लैस पत्रकारिता की जरूरत के मद्देनजर दस्तक-नए समय की पत्रिका निकालना शुरू किया. पत्रिका को आंदोलन का हिस्सा बनाया. उसने हजारों किसानों को उजाड़ देने वाली गंगा एक्सप्रेस वे परियोजना के खिलाफ पत्रिका की ओर से गहन सर्वेक्षण किया. इस परियोजना से होने वाले नुकसान को बताने के लिए इसी सर्वेक्षण को पुस्तिका के रूप में छाप कर लोगों के बीच वितरित किया. आजमगढ़ में मुस्लिम युवाओं को मनमाना गिरफ्तार कर आतंक मचाने वाले एसटीएफ व पुलिस की बरजोरी के खिलाफ दस्तक में ही एक लंबा रिपोर्ट छापा. सीमा आजाद की सक्रियता मानवाधिकार के मुद्दों पर बढ़ती गई. वो पीयूसीएल- उत्तर प्रदेश के मोर्चे में शामिल हो गई. उसे यहां सचिव पद की जिम्मेदारी दी गई.सीमा आजाद की गिरफ्तारी के समय तक उत्तर प्रदेश में युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी सामने थी जो मुखर हो मानवाधिकार का मुद्दा उठा रही थी. पतित राजनीति, लूट करने वाली अर्थव्यवस्था, बढ़ती सामाजिक असुरक्षा, दंगा कराने की राजनीति और अल्पसंख्यकों व दलितों के वोट और उसी पर चोट करने की सरकारी नीति के खिलाफ बढ़ती सुगबुगाहट राज्य व केंद्र दोनों के लिए खतरा दिख रहा था. इस सुगबुगाहट में एक नाम सीमा आजाद का था. दिल्ली विश्वपुस्तक मेले से किताब खरीद कर लौट रही सीमा आजाद को देश की सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर उनके पति के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. जब देशप्रेम व देशद्रोह का अर्थ ही बदल दिया गया हो तब यह गिरफ्तारी एक प्रहसन के सिवा और क्या हो सकता है! 
 
सीमा और विश्वविजय को देश के खिलाफ षडयंत्र के अभियोग में दस दस साल का कठोर कारावास और दस दस हजार रूपये का दंड और देशद्रोह के मामले में दोनों को आजीवन कारावास और बीस बीस हजार रूपये का दंड दिया गया. प्रतिबंधित साहित्य रखने के जुर्म में अलग से सजा. यूएपीए की धाराओं 34, 18, 20, 38 और आईपीसी के तहत कुल 45 साल का कठोर कारावास और आजीवन कारावास की सजा दोनों को दी गई. दोनों को ही बराबर और एक ही सजा दी गई. इन धाराओं और प्रावधानों पर पिछले दसियों साल से बहस चल रही है. ऐसा लग रहा है कि न्याय की बैसाखी पर मौत की इबारत लिख दी गई है. जो बच जा रहा है उनके लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है. पर ईश्वर पर भरोसा करने वाले लोग इस भगवान की महिमा कहते हैं. 8 जून को कोर्ट में सीमा के पिताजी नहीं आए. वह निराशा और उम्मीद के ज्वार भाटे में खाली पेट डूब उतरा रहे थे. उस रात वह घर किस तकलीफ से गुजरा होगा, इसे अनुमान करना कठिन नहीं है. विश्वविजय के अम्मा और बाबू जी केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा पर थे. शायद कोई महिमा हो जाय. मैं खुद पिछली सुनवाईयों को सुनने और न्यायधीश के रिश्पांस से इस  निष्कर्ष पर पहुंच गया था कि सेशन कोर्ट इतिहास रचने वाला है. मैं अपनी आकांक्षाओं में डूबा हुआ इतिहास रचना के चारित्रिक गुण को ही भूल गया. यह भूलना न तो सायास था और न ही अनायास. बस एक आकांक्षा थी, एक सहज तार्किक इच्छा थी, ….कि सीमा-विश्वविजय को अब बाहर आ जाना चाहिए और कि यह न्यायधीश थोड़ा ढंग से सुन और गुन रहा है. हम जेलों में बंद उन लाखों लोगों को भूल ही गए जिन्हें सायास राजनीति और तर्क पूर्ण के न्याय के तहत देशद्रोह के आरोप में बेल पर भी नहीं छोड़ा गया है. हम भूल ही गए कि अब तक हजारों लोगों इन्हीं आरोपों के तहत गोली मार दी गई और उसे जेनुइन इनकाउंटर बता दिया गया. हम मनोरमा देवी से लेकर सोनी सोरी तक इतिहास को भूल ही गए. हम भूल ही गए कि देश और देश का भी चारित्रिक गुण होता है. हम भूल ही गए कि शासकों का अपना चरित्र होता है. हम भूल ही गए संसद में बैठे चेहरों का राज, हम भूल ही गए भूत बंगले की कहानी, हम भूल ही गए गुजरात और बिहार, हम भूल ही गए पाश और फैज की नज्म, हम भवदीय आकांक्षाओं में डूबे हुए न्याय की बैसाखी पर उम्मीद की एक किरण फूट पड़ने का इंतजार कर रहे थे……
 
यह लिखते हुए इंकलाबी छात्र सभा के हमसफर साथी कृपाशंकर, जो कानपुर जेल में है और जिससे मिले हुए सालों गुजर गए और अब तक मिल सकना संभव नहीं हो पाया, की याद ताजा हो आई. वह किस हालात में है, नहीं जानता पर उसका प्रोफाइल सीमा और विश्वविजय के सामाजिक जीवन को मिला दिया जाय तो वह बनकर तैयार हो जाएगा. गणित विज्ञान दर्शन और उतावलापन का धनी यह मेरा दोस्त जेल की सींखचों में कैसे बंद जीवन जी रहा है, इसे याद कर मन तड़प उठता है. 2000 में आपरेशन कराने के बाद मैं देहरादून एक साल के लिए रहा. उस समय वह रेलवे की नौकरी में चला गया था. 2002 के आसपास वह मुझसे दिल्ली में मिला और बताया कि उसने नौकरी छोड़ दिया है. वह मुझे बधाई दिया. उस समय मैं जनप्रतिरोध का संपादन कर रहा था और एआईपीआरएफ के लिए जनसंगठनों का मोर्चा बनाकर किसान व मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ धरना प्रदर्शन में भागीदार हो रहा था. इराक पर हमले के लिए खिलाफ व्यापक संयुक्त मोर्चा में काम करते हुए मैं दिल्ली वाला बन रहा था. और उसने अपने बारे बताया कि वह किसान मोर्चे पर काम करने का निर्णय ले रहा है और कि वह जल्दी ही नौकरी छोड़ देगा. इस साथी से मुलाकात कर इस बीच के गुजरे समय के बारे में उससे जरूर पूछना है. हालांकि यह पूछना एक औपचारिकता ही होगी. आज के दौर में जन सरोकार और इतिहास की जिम्मेवारियों में हिस्सेदार होने का एक ही अर्थ है: जनांदोलनों के साथ जुड़ाव और जन के साथ संघर्ष. 
 
जिस देश की अर्थव्यवस्था पर सूदखोरों और सट्टेबाजों का इस कदर पकड़ बन गया हो कि प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक देश के भविष्य के बारे में सट्टेबाजों की तरह अनुमान लगाने लगा रहे हों वहां लोगों के सामने दो ही तरह का भविष्य बच रहा है, एक, कि जिस हद तक हो सके, इस देश का लूट लिया जाय, जिसका परिदृश्य खुलेआम है. दो, कि जन के साथ हिस्सेदार हो लूट और कत्लेआम से खुद को और देश को बचा लिया जाय, इसके परिदृश्य पर देशद्रोह, नक्सलवाद, माओवाद, आतंकवाद, …की छाया है. यह विकल्प नहीं है. यह अस्तित्व का विभाजन है. जिसे मध्यवर्ग विकल्प के तौर पर देख रहा है और चुन रहा है. यह इसी रूप में हमारे सामने है. आइए, जनांदोलनों और जन संघर्षों के हिस्सेदार लोगों के पक्ष में अपनी एकजुटता बनाए और जेलों में बंद न्याय की बैसाखियों पर लिखी मौत की इबारत से मुक्त कराने के लिए अपनी एकजुटता जाहिर करें और उनकी रिहाई के लिए जन समितियों का निर्माण करें.

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