ज़हर उगल रही हैं टीम अन्ना की जुबानें
May 9, 2012 | डॉ. सुशील उपाध्यायटीम अन्ना वजूद में आने के पहले दिन से ही सर्वज्ञानी और नैतिकता की दिव्यता से अभिमंडित समूह की तरह व्यवहार कर रही. अभी तक वे आम लोगों की निगाह में ईमानदारी के पुरोधा और दूध के धुले चरित्रों के तौर पर स्वीकार किए जाते रहे हैं. इस स्वीकार्यता ने टीम अन्ना की जबान को तीखा और निंदा से सराबोर बना दिया है. अब, किसी भी मुद्दे या मामले पर टीम अन्ना के केजरीवाल, बेदी, सिसौदिया या किसी छुटभैये को पकड़कर पूछ लीजिए तो बयान का ऐसा गोला गिरेगा की धरती थर्रा उठेगी.
मार्च महीने में तो टीम अन्ना की जबान पर मानो जहर रखा हुआ था. चूंकि, वे शिव नहीं हैं इसलिए इस जहर को कंठ में धारण नहीं कर पाए और भौंड़े शब्दों की जरिये जहां भी मौका मिला इस जहर को उड़ेलते रहे. सबसे ज्यादा जहर तो केजरीवाल ने उगला वो भी उन नेताओं पर जिन्हें इस देश के लोग कई दशकों से अपने प्रतिनिधि के तौर पर संसद में भेजते रहे हैं.
केजरीवाल ने केवल इतनी दया दिखाई कि उस जनता को गाली नहीं दी जिसने ऐसे प्रतिनिधियों को चुनकर भेजा है. बयानों को देखकर लग रहा है कि टीम अन्ना के मुंह प्रचार पाने का खून भी लग गया है. इसका सबूत यह है कि जब एक सदस्य तीखा बयान देता है तो दूसरा सदस्य उससे ज्यादा कड़वा बयान जारी करता है. इसका मुकाबला संसद सत्र के दौरान केजरीवाल और सिसौदिया के बीच देखने को मिला. दोनों ने सांसदों के मामले में एक-दूसरे से होड़ लेते हुए बदजुबानी का एक से बढ़कर एक सबूत दिया.
संसद सत्र ठंडा हुआ को टीम अन्ना हिमाचल के मुख्यमंत्री पर पिल पड़ी. इसी दौरान बाबा रामदेव से हरिद्वार में मिलने आई किरण बेदी ने विजय बहुगुणा पर जनता से धोखा करने की कोशिश का आरोप मढ़ दिया. बहुगुणा का अपराध यह है कि उन्होंने खंडूड़ी सरकार द्वारा पारित कराए गए लोकायुक्त बिल में संशोधन की बात कह दी थी. इससे पहले ऐसी ही धमकी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी दी जा चुकी है.
सवाल यह है कि टीम अन्ना को वो ताकत किसने दी है जो संसद और विधानमंडलों की कानून बनाने के संवैधानिक को चुनौती देते घूमे? लोकतंत्र के चारों खंभों में से टीम अन्ना कौन-सा खंभा है? टीम के इस व्यवहार से यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि वो कौन लोग हैं जिन्होंने टीम अन्ना को अपना प्रतिनिधि बनाकर जनप्रतिनिधियों और सरकारों से भिड़ने के लिए भेजा है?
महज एक साल के भीतर के टीम अन्ना के बयानों और प्रतिक्रियाओं को गौर से देखिये तो पता चल जाएगा कि वे राजनेताओं को किस डंडे से हांकना चाहते हैं. जब तक उनके डंडे की धमक को स्वीकार किया जाए तो नेता स्वीकार्य होते हैं, लेकिन जब वे उलटकर जवाब दें तो नेता बुरे हो जाते हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण शरद यादव हैं. पिछले साल जब शरद यादव अन्ना के मंच पर बोले थे तो वे बुरे नहीं थे, लेकिन इस बार जब उन्होंने संसद में अपनी बात रखी तो उनमें कांटे निकल आए.
अन्ना के इस नायाब समूह ने सोनिया से लेकर राहुल, पीएम से लेकर प्रणब और सुषमा स्वराज से लेकर लालू, मुलायम, शरद तक में से किसी को नहीं बख़्शा. हो सकता है कुछ नेता वास्तव में खराब हों, लेकिन उनमें से ज्यादातर ने जमीन पर संघर्ष किया है और बरसों के धक्के खाने के बाद संसद तक पहुंचे हैं. यहां एक और बात नोटिस करने वाली है कि वे एनजीओ और कार्पोरेट की गतिविधियों पर कमोबेश खामोशी अख्तियार किए रहते हैं. इसी प्रकार माया, मोदी जैसे दबंग नेताओं के बारे में भी ज्यादा कुछ कहने से बचते हैं. इस सूची मे सुब्रमण्यम स्वामी जैसे इक्का-दुक्का नेताओं का नाम भी जोड़ सकते हैं, जिन्हें छेड़ना ठीक नहीं समझा जाता.
इसी तरह बड़े सरकारी अफसरों, जिनमें मुख्यतः आईएएस और आईपीएस शामिल हैं, के बारे में भी टीम अन्ना ज्यादा नहीं बोलती, क्योंकि वे उतने आसान टारगेट नहीं हैं जितने की राजनेता होते हैं. एक बात यह भी कि नौकरशाह राजनेताओं की तरह से आसानी से अपमान के घूंट पीता भी नहीं है. टीम अन्ना उनकी तरफ आंख तरेरेगी तो वे आंख में अंगुली डाल देंगे. राजनेता इस काम को नहीं कर सकते. इसीलिए संसद और सांसदों के खिलाफ तमाम बयानों के बावजूद संसद ने केजरीवाल और सिसौदिया को कठघरे में खड़ा नहीं किया.
संसद ने ऐसा करके ठीक ही किया, क्योंकि ऐसा करने से टीम अन्ना का कद बेवजह बढ़ जाता. वैसे भी केजरीवाल शहादत की मुद्रा में घूम रहे हैं. ताकि सरकार उन्हें बंद करे और वे जेपी जैसे चमक के साथ जननायक बन सकें. बनना तो वे भी गांधी ही चाहते हैं लेकिन गांधी की पदवी अन्ना के लिए बुक हो चुकी है इसलिए केजरीवाल जेपी का अवतार पाने को बेताब हैं.
टीम अन्ना इतनी समझदार तो है कि बयानों के बाण किन पर नहीं चलाने चाहिए. इस टीम की एक बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि इसने मीडिया माध्यमों का खूबसूरती से इस्तेमाल किया है. इसीलिए गाजियाबाद नगर निगम के एक मामले में केजरीवाल द्वारा की गई सिफारिश, नियमों के विपरीत सरकारी नौकरी छोड़ने के मामले और बेदी द्वारा हवाई टिकटों में हेराफेरी के प्रकरण इतनी आसानी से न दब गए होते.
उनके मीडिया प्रबंधन का ही कमाल है कि चाहे सरकार व सेना प्रमुख में टकराव का मामला हो या भारत-पाक के रिश्ते, टीम अन्ना के बयान सुर्खियों में होते हैं. सेना प्रमुख के मामले में तो केजरीवाल का बयान सेना और लोकतंत्र के रिश्तों से खेलने वाला था. उन्होंने सरकार पर सेना प्रमुख को परेशान करने का आरोप लगाया. इससे उन्होंने सेना को सरकार से इतर या उसके मुकाबिल एक संस्था के तौर पर पेश करने की खतरनाक कोशिश थी.
टीम अन्ना जितने बड़े बोल, बोल रही है, वैसे तो देश का सुप्रीम कोर्ट भी नहीं बोलता. न केवल पद पर बैठे न्यायाधीशों, वरन पद से अलग होने के बाद भी भारत के मुख्य न्यायाधीशों ने न तो तंत्र को बीमार बताया और न ही लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को गुंडा, बदमाश, बलात्कारी और हत्यारा करार दिया. आंदोलन का पर्याय रहीं मेधा पाटकर, अरुंधति राय जैसे लेागों ने भी ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल नहीं किया जैसी टीम अन्ना कर रही है. फिर, टीम अन्ना किस ताकत से अभिशिक्त है ? कौन-सी ताकतें उन्हें भौंड़े, भड़काउ और आम लोगों में सिस्टम के प्रति शंका पैदा करने वाले बयानों के लिए प्रेरित कर रही हैं? या वे इतने नासमझ हैं कि उन्हें अपने बयानों, वक्तव्यों और कथनों के वास्तविक अर्थ का अंदाज नहीं होता?
देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने सिस्टम के भीतर रहकर उसे नया रूप दे दिया. ऐसे लोगों में टीएन शेषन, खैरनार, लिंग्दोह जैसे सैकड़ों नाम शामिल हैं जिन्होंने सिस्टम के बिखरने की बजाय उसके भीतर से रास्ता निकाला. टीम अन्ना का रुख और मिजाज, दोनों अलग हैं. वे सिस्टम से खेल रहे हैं. कोई विकल्प मुहैया कराए बिना ही उसे तहस-नहस करने मुहिम पर निकले हुए हैं.
टीम अन्ना के सामने बार-बार सवाल उठा है कि वे इंडिया अगेंस्टन करप्शन और बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान को मिलाकर राजनीतिक पार्टी क्यों नहीं बनाते? चाहें तो इसमें श्रीश्री रविशंकर के आर्ट ऑफ लिविंग को भी जोड़ लें. इससे सारे पुरोधा एक साथ आ जाएंगे और देश को एक जुझारू और संभावनाशील विकल्प भी मिल जाएगा. लेकिन, इस पर टीम अन्ना को सांप सूंघ जाता है. क्या टीम अन्ना को डर है कि लोग उन्हें नकार देंगे? या जनता में उनका समर्थन केवल प्रचार पाने की गतिविधियों तक ही सीमित है? अगर टीम अन्ना इतनी डरी हुई है, उन्हें जनसमर्थन का भरोसा नहीं है तो फिर तो यही माना चाहिए कि बौने लोगों का समूह उंचे बोल बोलकर देश को लुभाने की फिराक में है.
(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार है. लेखक हरिद्वार में संस्कृत विद्यालय में प्राध्यापक हैं)