(नर्मदा नदी, परियोजनाएं और बांध, बाढ़ और डूब, विस्थापन और मुआवज़े, संसाधन और विकास, राजनीति और अपराध… ऐसे कितने ही मोर्चे और पहलू हैं नर्मदा के इर्द-गिर्द, किनारों पर सिर उठाए हुए. इनका जवाब खोजने वाले भोपाल और दिल्ली में अपनी-अपनी कहानियां कहते नज़र आ रहे हैं. एक ओर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के इशारे पर नाचती सरकारें हैं तो एक ओर अस्सी से चलकर एक सौ दस, बस- जैसे नारे हैं. इन नारों के बीच लोगों की त्रासद और अभावों की अंतहीन कथा है… नर्मदा के बांधों से भी ज़्यादा फैली और गहरी. इस कथा के कई अनकहे-अनखुले और अनदेखे पहलुओं पर रौशनी डाल रही है अभिषेक श्रीवास्तव की यह विशेष श्रंखला. आज पढ़िए इसकी अंतिम कड़ी- प्रतिरोध ब्यूरो)
समय कम था, लेकिन नर्मदा में नहाने का लोभ संवरण हम नहीं कर पाए. सीधे ओंकारेश्वर के अभय घाट पर पहुंच कर हमने नदी के पास नहाने के लिए बनी सुरक्षित जगह पर खुद को ताज़ादम किया. यह घाट वैसे घाटों जैसा कतई नहीं था जैसे हम बनारस या इलाहाबाद में देखते हैं. यहां की नाव भी नाव नहीं, स्टीमर थी. पंडे और छतरी तो यहां कल्पना की चीज़ हैं. नहाने वालों में अधिकतर शहरी किस्म के मध्यवर्गीय लोग थे जो पिकनिक मनाने के मूड में दिख रहे थे. नर्मदा अपनी गति से बह रही थी. दाहिनी ओर विशाल ओंकारेश्वर बांध खड़ा था और बाईं ओर एक सुरंग खोदी जा रही थी जिसमें से बाद में नर्मदा की एक धारा को सिंचाई के लिए निकाला जाएगा. तपते हुए घाट से ऊपर सीढ़ी चढ़ कर पहुंचना कष्टप्रद था, लेकिन भूख कदमों को तेज किए दे रही थी.
अचानक सीढि़यों से पहले सारा उत्साह काफूर हो गया. ऐसा लगा कि बस यही देखना बाकी था. पहली सीढ़ी पर काले खडि़ये से लिखा था, ‘‘जम्बू से मुसलमानों का सफाया. इस्लाम का पेड़ खत्म.’’ दूसरी पर लिखा था, ‘‘औरत की मुंडी काट….’’आखिरी सीढ़ी पर लिखा था, ‘‘नाई की मुंडी काट, उलटा पेट मुसलमानों को पेल.’’ बाकी तीन सीढि़यों पर भी ऐसा ही कुछ लिखा था जो आसानी से पढ़ने में नहीं आ रहा था. मेरे साथी ने ड्राइवर शर्मा से पूछा कि ये जम्बू क्या होता है. उसने पूरे आत्मविश्वास से बताया कि जम्बू माने जम्मू और कश्मीर. फिर उसने अपनी टिप्पणी मुस्कराते हुए की, ‘‘मुसलमानों को जम्मू और कश्मीर से खत्म कर देना चाहिए. बहुत कट्टर होते हैं.’’ लौटती में हमारी नज़रें सतर्क हो चुकी थीं. घाट के बाहर पूजा सामग्री की दुकानों के बीच हिंदू हेल्पलाइन के टंगे हुए बैनर भी दिख गए. इसके बाद एक कतार में तकरीबन सारे बाबाओं और माताओं के आश्रम दिखते गए. दो बज चुके थे और ट्रेन सवा चार बजे की थी. हम अब भी इंदौर से 70 किलोमीटर दूर थे.
ऊपर पहुंच कर ओंकारेश्वर रोड पर हमने खाना खाया और इंदौर की ओर चल पड़े. रास्ते में ड्राइवर शर्मा से हमने जानना चाहा कि इस इलाके की असल समस्या क्या है. उसने जवाब में हमें खंडवा के एक नेता की कहानी सुनाई. तनवंत सिंह कीर नाम का यह कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह की कैबिनेट में मंत्री रहा था. शर्मा ने बताया कि कीर ने भ्रष्टाचार से बहुत धन-दौलत इकट्ठा कर ली थी लेकिन लोगों के दुख-दर्द के प्रति इसका कोई सरोकार नहीं था. पिछले साल लंबी बीमारी के बाद कीर की मौत हो गई. कहते हैं कि मरते वक्त इसके शरीर में कीड़े पड़ गए थे. अपने सवाल से शर्मा के इस असंबद्ध जवाब को मैं जोड़ने की कोशिश करने लगा. लगा जैसे दिमाग में कीड़े रेंग रहे हों. घंटे भर के सफर में जाने कब नींद आ गई. आंख खुली तो हम इंदौर बाइपास पर थे और साढ़े तीन बज चुके थे. पिछले चार दिनों में पहली बार बाहर मौसम सुहावना हो चला था. हलकी बौछारें पड़ रही थीं. स्टेशन पहुंचते-पहुंचते वापस धूप हो गई. दिल्ली की इंटरसिटी सामने खड़ी थी. दिल्ली लौटने के एक दिन बाद भोपाल से एक मित्र का फोन आया. उसने टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्टर गुप्ता के बारे में कुछ चौंकाने वाली जानकारियां दीं जिनमें एक सूचना मध्यप्रदेश की बीजेपी सरकार द्वारा उन्हें आवंटित हुए किसी मकान आदि के बारे में थी. यह सच हो या झूठ, लेकिन कुछ धुआं घोघलगांव में उठता हमें दिखा तो था.
आज जब मैं बड़े जतन से यह कहानी लिख रहा हूं, तो खरदना, घोघलगांव और बढ़खलिया के बमुश्किल पांच हजार ग्रामीणों के साथ पिछले दिनों घटा सब कुछ हलका पड़ चुका होगा क्योंकि ऐसे ही 25000 और लोग किसी दूसरे सत्याग्रह का शिकार हो गए हैं. दिलचस्प है कि ये सारे सत्याग्रह मध्यप्रदेश से ही उपज रहे हैं. ग्वालियर में राजगोपाल नाम के एनजीओ चलाने वाले एक कथित गांधीवादी नेता ने 25000 भूमिहीनों को ज़मीन का सपना दिखाया था. वे उन्हें लेकर दिल्ली की ओर पैदल बढ़े तो उनकी तस्वीरें भी घोघलगांव के जैसे वायरल हो गईं. अचानक आगरे में एक समझौता हुआ और इसे आदिवासियों की ‘जीत’ करार दिया गया. सिर्फ दैनिक दी हिंदू ने एक आदिवासी की आवाज़ को जगह दी, ‘‘हम यहां इतनी दूर से कागज के एक टुकड़े पर दस्तखत करवाने थोड़ी आए थे. यह हमारे साथ धोखा है.’’ अभी गूगल पर देखता हूं तो बढ़खलिया गांव का नाम भी अकेले दी हिंदू की ही एक खबर में आया था. ऐसी खबरों से हालांकि ‘सत्याग्रहों’ पर रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हमारे नेता अपने निजी कोनों में टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ते हैं.
कुछ संभवतः भले लोगों पर से भरोसा उठ जाए, इसके लिए सारे अच्छे लोगों के भरोसे के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. इसीलिए, मैंने जो कुछ देखा, सुना, गुना, सब लिख मारा. ज़रूरी नहीं कि यही सच हो, लेकिन अब तक सुने, देखे और पढ़े गए सच से ज्यादा प्रामाणिक है, इसका दावा करने में मुझे दिक्कत नहीं होनी चाहिए. इस कहानी के सारे पात्र, सारी जगहें,सारी घटनाएं, सारे बयान वास्तविक हैं सिवाय एक नाम के- मेरे साथ चौबीस घंटे रहा वह युवतर अखबारी जीव. उसकी तमाम उलटबांसियों के बावजूद अंत में मुझे भरोसा हो चला था कि उसने शायद बेहद करीब से चीज़ों को देखा है. शायद इसीलिए चलते-चलते उसने कहा था कि जल्द ही वह पत्रकारिता को छोड़ देगा क्योंकि ‘‘शहर में अकेले रह कर खाना बनाना और कपड़े धोना लंबे समय तक नहीं चल सकता.’’ उसकी बताई वजह बिल्कुल विश्वास के काबिल नहीं है. लेकिन क्या करें, विश्वास के लायक तो कई और चीज़ें भी नहीं थीं जिन्हें हम देख कर आए हैं. अकेले उसी पर माथा क्यों खपाएं. बेहतर होगा कि बनारस के घाटों की अनगिनत सीढि़यों पर जाकर सिर पटक आएं जिन पर कम से कम मैंने आज तक कुछ भी लिखा नहीं देखा है. (समाप्त )