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जल सत्याग्रह के तीन गांवों की कहानीः चौथी कड़ी

Oct 28, 2012 | Abhishek Srivastava

(नर्मदा नदी, परियोजनाएं और बांध, बाढ़ और डूब, विस्थापन और मुआवज़े, संसाधन और विकास, राजनीति और अपराध… ऐसे कितने ही मोर्चे और पहलू हैं नर्मदा के इर्द-गिर्द, किनारों पर सिर उठाए हुए. इनका जवाब खोजने वाले भोपाल और दिल्ली में अपनी-अपनी कहानियां कहते नज़र आ रहे हैं. एक ओर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के इशारे पर नाचती सरकारें हैं तो एक ओर अस्सी से चलकर एक सौ दस, बस- जैसे नारे हैं. इन नारों के बीच लोगों की त्रासद और अभावों की अंतहीन कथा है… नर्मदा के बांधों से भी ज़्यादा फैली और गहरी. इस कथा के कई अनकहे-अनखुले और अनदेखे पहलुओं पर रौशनी डाल रही है अभिषेक श्रीवास्तव की यह विशेष श्रंखला. आज पढ़िए इसकी चौथी कड़ी- प्रतिरोध ब्यूरो)

 
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एक अक्टूबर की सुबह. तड़के ड्राइवर शर्मा का फोन आ गया. दस मिनट में तैयार होकर हम नीचे थे. रास्ते में खंडवा के बाहर उन्होंने किशोर कुमार की समाधि पर गाड़ी रोकी. बगल से श्मशान घाट को रास्ता जा रहा था. यह भी किशोर कुमार को समर्पित था. सवेरे-सवेरे श्मशान और समाधि देखने की इच्छा न हुई. हमने गाड़ी आगे बढ़ाने को कहा. इसके बाद शर्मा जी का व्याख्यान शुरू हुआ. उन्होंने गिनवाना चालू किया कि कैसे अपनी पार्टी के साथ वे चार धाम और जाने कितने ज्योतिर्लिंगों के दर्शन कर आए हैं. उनके विवरण का लब्बोलुआब यह था कि हम सीधे नर्मदा में स्नान करने अब ओंकारेश्वर जा रहे हैं और वहां ‘दर्शन’ कर के ही घोघलगांव की ओर कूच करेंगे. हमने दूरियों का हिसाब लगाया. इस हिसाब से 35 किलोमीटर अतिरिक्त पड़ रहा था. वक्त कम था क्योंकि शाम को इंदौर से सवा चार बजे दिल्ली की गाड़ी भी पकड़नी थी. हमने बड़ी विनम्रता से उनसे पूछा कि क्या ‘दर्शन’ करना ज़रूरी है. सिर्फ नहाने से काम नहीं चल सकता? उनके चेहरे पर उदासी साफ छलक आई. इसके बाद हमने ज़रा और दिमाग लगाया और उनसे कहा कि वे सनावद से गाड़ी घोघलगांव की ओर मोड़ लें. काम निपटाने के बाद वक्त बचेगा तो नहा भी लेंगे. हमने उन्हें तर्क दिया कि कर्म ही असली धर्म है. यह सुनते ही वे तुरंत राज़ी हो गए. 
 
रास्ते में एक जगह उन्होंने नाश्ते के लिए गाड़ी रोकी. यह देशगांव था. कितना खूबसूरत नाम! हमारी कल्पना में भी नहीं था कि इस नाम का कोई गांव हो सकता है. इस बार पोहा और जलेबी के साथ हमने फाफरा का भी ज़ायका लिया. साथी राहुल का सुझाव था इससे बेहतर होता कच्चा बेसन ही फांक लेते.
 
सनावद से पहले एक रास्ता भीतर की ओर कटता है जो सीधे घोघलगांव की ओर जाता है. ड्राइवर शर्मा जी को यह रास्ता मालूम था. बाद में उन्होंने बताया कि अपने बेटे का रिश्ता उन्होंने यहां के एक गांव में तय किया था, इसीलिए वे इस इलाके से परिचित हैं. पूरा इलाका पहाड़ी था. यहां कपास भारी मात्रा में पैदा हो रही थी. सोयाबीन के खेत बीच-बीच में दिख जाते थे. मिट्टी काली थी और ज़मीन में पर्याप्त नमी दिख रही थी. पहली बार जहां गाड़ी रोक कर ड्राइवर ने रास्ता पूछा, वहां एक चाय की दुकान पर बैठे लोगों ने बताया कि यहां तीन घोघलगांव हैं. कौन से में जाना है. हमने जल सत्याग्रह का नाम लिया, तब जाकर रास्ते का पता चला. दिन के करीब साढ़े नौ बजे हमने घोघलगांव में प्रवेश किया.
 
गाड़ी से उतरते ही लगा गोया कल रात कोई मेला यहां खत्म हुआ हो. बिल्कुल सामने नाग देवता का मंदिर था जिसके चबूतरे पर अधेड़, बूढ़े और जवान कोई दर्जन भर लोग बैठे होंगे. बगल के पेड़ पर एक पोस्टर लगा था जिसके बीच में महात्मा गांधी थे और चारों तरफ नेहरू, सरदार पटेल, भगत सिंह,शास्त्री, सुभाष चंद्र बोस आदि की तस्वीरें. और पेड़ के साथ ही शुरू होती थी बांस की दर्जनों बल्लियां जो बाईं ओर एक पोखरनुमा जगह तक नीचे की ओर तक लगाई गई थीं. इन बल्लियों पर टीन की नई-नई कई शेड टिकी थीं. भीतर पीले रंग के चार बैनर नज़र आ रहे थे. दो पर लिखा था‘‘पुनर्वास और ज़मीन दो नहीं तो बांध खाली करो’’ और बाकी दो पर ‘‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’’. 
 
इसी टीन शेड के नीचे लोगों ने जल सत्याग्रह किया था. यही वह जगह थी जहां टीवी चैनलों की ओबी वैन पार्क थीं. यही वह जगह थी जो अगस्त के आखिरी सप्ताह में सोशल मीडिया पर वायरल हो गई थी. हम शेड के भीतर होते हुए नीचे तक उतरते चले गए जहां अंत में एक छोटा सा पोखर सा था. करीब जाकर हमने देखा. यह वास्तव में एक नाला था जो बांध का पानी आने से उफना गया था. जल सत्याग्रही इसी में बैठे थे. उनके बैठने के लिए एक पटिया लगी थी और सहारे के लिए इसमें बांस की बल्ली सामने से बांधी गई थी. उस वक्त पानी दो फुट नहीं था, जैसा कि सुचंदना गुप्ता टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखती हैं. वह लगातार बढ़ रहा था. आज भले दो फुट रह गया हो.
 
जो लोग पानी में बैठे थे, वे सब के सब इसी गांव से नहीं थे. यह सूचना मंदिर के दाहिनी ओर लटके लंबे-लंबे फ्लेक्स के पीले बैनरों से मिल जाती है जिन पर 51 सत्याग्रहियों की नाम गांव समेत सूची दर्ज है. सबसे पहला नाम बड़़ी वकील चित्तरूपा पलित का है, जिनका कोई गांव नहीं. उनके नाम के आगे गांव वाली जगह खाली है. इसके बाद गांव कामनखेड़ा, घोघलगांव, ऐखण्ड,टोकी, सुकवां, गोल, गुवाड़ी, धाराजी, कोतमीर,नयापुरा के कुल 51 नाम हैं. घोघलगांव से कुल14 नाम हैं. इन बैनरों के नीचे एक पुराना बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है ‘‘महिला संगठन समिति ग्राम घोघलगांव एवं टोकी’’. इसमें 82महिलाओं के नाम दर्ज हैं और सभी के नाम के आगे निरपवाद रूप से ‘बाई’ लिखा है. मंदिर से करीब बीस फुट पहले एक और बोर्ड लगा है जिस पर गांव वालों की ओर से लिखा गया है कि कोई भी शासकीय अधिकारी इस गांव में उनकी अनुमति के बगैर प्रवेश नहीं कर सकता.
 
हमें मुआयना करता देख एक व्यक्ति ने सरपंच के लड़के को बुलाने के लिए किसी को भीतर भेजा था. हमने देखा सफेद बनियान पहने एक गठीला नौजवान हमारी ओर चला आ रहा था. उसकी चाल में ठसक थी और उसकी धारदार मूंछ के किनारों पर तनाव था. यह कपिल तिरोले था. उसने आते ही हमारे आने का प्रयोजन पूछा. हमने परिचय दिया और गांव में घूमने की इच्छा ज़ाहिर की. उसने बताया कि उसकी मां यहां की सरपंच हैं. सुनकर अच्छा लगा, लेकिन हमारी उम्मीद से उलट उसने मिलवाया अपने पिता राधेश्याम तिरोले से. धारदार मोटी मूंछों वाले राधेश्याम जी के बाल मेहंदी की लाली लिए हुए थे. वे एक मकान के चबूतरे पर जम कर बैठ गए. करीब दर्जन भर अधेड़ और आ गए. बातचीत शुरू हुई तो कुछ लोगों ने अपने हाथ-पैर दिखाए. नई चमड़ी आ रही थी. चबूतरे की दीवार पर नर्मदा बचाओ आंदोलन का पोस्टर लगा था जो 1 जुलाई की विशाल संकल्प रैली के लिए ‘‘चलो ओंकारेश्वर’’ का आह्वान कर रहा था. उसके ठीक ऊपर किसी ने बजाज की मोटरसाइकिल ‘‘बिना चेक तुरंत फाइनेंस’का पोस्टर चिपका दिया था. बिना चेक के मोटरसाइकिल कैसे फाइनेंस होती है? हमने पूछा. जवाब में एक साथ सब हंस दिए. यह गांव खुलने को तैयार नहीं दिखता था. हम अभी सोच ही रहे थे कि यहां बातचीत कैसे शुरू हो, तब तक कपिल तिरोले अपना मोबाइल लेकर हमारे पास आया. उसने मोबाइल मुझे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए, आलोक भइया का फोन है. बात कर लीजिए.’’ फोन पर एनबीए के आलोक अग्रवाल थे. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या टाइम्स से हैं?’’ मैंने उन्हें साफ किया कि हमारे साथी राहुल इकनॉमिक टाइम्स से हैं लेकिन हम लोग टाइम्स के लिए कोई ऑफिशियल रिपोर्टिंग करने नहीं आए हैं.’’ मैंने एनजीओ क्षेत्र के एकाध परिचित नामों का उन्हें संदर्भ दिया और आश्वस्त किया कि वे चिंता न करें. उसके बाद पता नहीं कपिल से आलोक अग्रवाल की क्या बात हुई, कपिल हमें अपने घर के भीतर ले गए. राधेश्याम जी को भी शायद तसल्ली हो गई थी. इसके बाद एक-एक कर के अपनी मांगों का बैनर उन्होंने हमें दिखाया. कुल आठ मांगें बिल्कुल इसी क्रम में थीं.
 
  • -ओंकारेश्वर बांध में 189 मीटर से आगे पानी न बढ़ाया जाए.
  • -जमीन के बदले जमीन, सिंचित एवं न्यूनतम दो हेक्टेयर जमीन दी जाए.
  • -प्रत्येक मजदूर को 2.50 लाख रुपए का विशेष अनुदान दिया जाए.
  • -धाराजी के पांच गांवों की जमीनों का भू-अर्जन कर पुनर्वास करें.
  • -अतिक्रमणकारियों को पुनर्वास नीति अनुसार कृषि जमीन दी जाए.
  • -छूटे हुए मकानों का भू-अर्जन किया जाए.
  • -परिवार सूची से छूटे हुए नामों को शामिल करें.
  • -पारधी तथा संपेरों को उचित अनुदान दिया जाए.
 
अचानक फोन पर करवाई गई बात से हम जरा असहज से हो गए थे. मैंने कपिल से पूछा कि क्या जब भी कोई आता है वे इसी तरह आलोक अग्रवाल को फोन करते हैं. उन्होंने कहा, ‘‘करना पड़ता है. हम लोग नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोग हैं न. कोई गलत आदमी भी आ सकता है.’’ और वो गांव के बाहर वाला बोर्ड अधिकारियों के लिए? ‘‘हां, कोई भी सरकारी अधिकारी हमारी अनुमति के बिना भीतर नहीं आ सकता. वे लोग यहां आकर लोगों को भड़काते हैं, बहकाते हैं’’, कपिल ने बताया. हमारे सामने एक अधेड़ उम्र के गंभीर से दिखने वाले सज्जन भी थे. उन्होंने अपना नाम चैन भारती बताया. अचानक याद आया कि टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्टर ने जिन दो ग्रामीणों के बयानों का इस्तेमाल किया था, वे और कोई नहीं बल्कि राधेश्याम तिरोले और चैन भारती ही थे. मैंने पूछा कि क्या उन लोगों को टाइम्स ऑफ इंडिया की 15 सितम्बर वाली रिपोर्ट की खबर है जिसमें उनके नाम का इस्तेमाल कर के आंदोलन को बदनाम किया गया है. कपिल ने बताया कि आलोक अग्रवाल ने ऐसी किसी रिपोर्ट का जिक्र जरूर किया था, हालांकि इन लोगों ने उसे देखा नहीं है. मैं वह रिपोर्ट साथ ले गया था. मैंने उन्हें दिखाया. कपिल ने करीने से सजाई अपने अखबारों की फाइल में उसे कहीं रख लिया. हमने जानना चाहा कि टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्टर के साथ कौन-कौन आया था. कपिल बोले, ‘‘एक तो यहीं के लोकल पत्रकार थे.’’ वह अनंत महेश्वरी के बारे में बात कर रहा था, जिसका नाम सुचंदना गुप्ता की रिपोर्ट में भी है. ‘‘इसके अलावा एक आदमी था जिसको मैं पहचान रहा था. मैंने फोन कर के पता किया…वो बढ़वा का रहने वाला था. बीजेपी का था’’, कपिल ने कहा. वहां बैठे एक और अधेड़ सज्जन ने जोड़ा, ‘‘हां, उस मैडम की डायरी में हर पन्ने पर कमल का फूल बना था.’’
 
सवाल उठता है कि अगर गलत रिपोर्टिंग बीजेपी की शह पर हुई है, तो बीजेपी को घोघलगांव के आंदोलन से क्या खुन्नस थी? जबकि यह इकलौता गांव रहा जहां शिवराज सरकार ने मांगें मान लीं? हमने जानना चाहा. कपिल ने बताना शुरू किया, ‘‘यहां आंदोलन के करीब नौवें रोज खंडवा के सांसद अरुण यादव आए थे. वो सुभाष यादव के पुत्र हैं, कांग्रेस से हैं. वो आए और बोले कि मैं जाता हूं, केंद्र में बात रखता हूं. केंद्र में जाकर उन्होंने पर्यावरण मंत्री से बात की. 17 तारीख को वे जवाब लेकर यहां दोबारा आए. वे आकर खटिया पर बैठे ही थे कि पांच मिनट में पानी उतरना शुरू हो गया. जैसे वे आए, पानी उतरना शुरू हो गया.’’ चैन भारती ने बात को थोड़ा और साफ किया, ‘‘यहां की स्थिति दो मायनों में अलग थी. पहली तो यह कि यहां संगठन मजबूत था. दूसरी यह कि यहां कोर्ट का आदेश लागू था कि 189 मीटर पर मुआवजा/बंदोबस्ती करने के बाद ही पानी बढ़ाया जाएगा. हम कोर्ट की मांग को लेकर बैठे थे, इसलिए हमारे ऊपर कोई भी कार्रवाई किया जाना कानून के दायरे से बाहर होता.’’ लेकिन हरदा में जो दमन हुआ वह तो गैर-कानूनी ही था? चैन बोले, ‘‘हां, तो वहां 162 मीटर पर कोर्ट की रोक नहीं थी न!’’कपिल ने सधे हुए स्वर में कहा, ‘‘और असली बात यह है कि यहां कांग्रेसी सांसद था इसलिए हमारी बात मान ली गई. हरदा की तरह यहां बीजेपी का सांसद होता तो यहां भी अत्याचार करना आसान होता. वैसे वहां कांतिलाल भूरिया और अजय सिंह गए थे, लेकिन तब तक पुलिस कार्रवाई कर चुकी थी.’’ चैन ने बात को समेटा, ‘‘हरदा में बीजेपी का सांसद और विधायक दोनों होने के कारण वहां लोगों को उठवाना आसान हो गया.’’ बात बची बढ़खलिया की, तो आलोक अग्रवाल के एक फोन कॉल ने ही आंदोलन को खत्म कर डाला. खंडवा के कांग्रेसी सांसद अरुण यादव को कुछ कर पाने का मौका ही नहीं मिला. कपिल ने बीच में टोका, ‘‘वैसे यहां कैलाश विजयवर्गीय और विजय साहा भी आए थे, लेकिन वे तो हमारी विरोधी पार्टी के हैं न!’’ मैंने पूछा, ‘‘तो आप लोग कांग्रेस समर्थक हैं?’’ इसका जवाब भी कपिल ने ही दिया, ‘‘न हम कांग्रेस के साथ हैं, न बीजेपी के साथ. हमें सिर्फ मुआवजा चाहिए.’’ ठीक यही बात खरदना में सुनील राठौर ने भी कही थी.
 
हमने डूब का क्षेत्र देखने की इच्छा ज़ाहिर की. तीन चमचमाती मोटरसाइकिलों पर राधेश्याम तिरोले, चैन भारती व दो और सज्जन हमें लेकर ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चल दिए. गांव की आबादी जहां खत्म होती थी और डूब का पानी जहां तक पहुंच कर लौट चुका था, वहां एक झुग्गीनुमा बस्ती दिख रही थी. हमने जिज्ञासा जताई. राधेश्याम ने बताया कि यह पारधियों की बस्ती है. मैंने पूछा कि ये लोग तो सीधे डूब के प्रभाव में आए थे, तो क्या इनमें से भी कोई सत्याग्रह में शामिल था? राधेश्याम तल्ख स्वर में बोले, ‘‘नहीं, शिकारी हैं ये लोग. सब बीजेपी के वोटर हैं. शराब पीकर दंगा करते हैं.’’एक जगह पहुंच कर मोटरसाइकिल से हम उतर गए और खेतों में आ गए जहां बीटी कपास और तुअर की नष्ट फसल गिरने के इंतजार में खड़ी थी. फसल को जलाकर पानी वापस जा चुका था. 189 से 190 मीटर यानी सिर्फ एक मीटर की ऊंचाई ने 350 एकड़ की खेती बरबाद कर दी, भारती ने बताया. प्रति एकड़ कपास पर औसतन 14,000 रुपए की लागत का नुकसान हुआ था. हम करीब बीस मिनट उस दलदली जमीन पर चलते रहे. वे हमें एक पहाड़ी के ऊपर ले जा रहे थे जहां से समूचे इलाके को एक नज़र में देखा जा सकता था.
 
सामने दिखाते हुए राधेश्याम ने बताया, ‘‘ये रही कावेरी नदी जो आगे जाकर नर्मदा में मिल जाती है. दूसरी ओर है कावेरी का नाला. हमारा गांव इस नदी और नाले के बीच है. एक बार ओंकारेश्वर बांध से पानी रोक दिया जाता है तो पीछे की ओर कावेरी नदी और नाले दोनों में जलस्तर बढता जाता है.’’ तो आप लोग कहां खड़े थे, नदी में या नाले में? हमने पूछा. चैन ने बताया कि नदी के पानी में खड़ा होना संभव नहीं होता, इसीलिए वे नाले के अंत में खड़े थे बिल्कुल गांव के प्रवेश द्वार के पास. ठीक वही जगह जहां से होकर हम आए थे. यह पहाड़ी आबादी से करीब पांच किलोमीटर पीछे रही होगी. बीच में 350एकड़ डूबी हुई ज़मीन थी और पारधियों की बस्ती. जमीन के लिए चल रहे आंदोलन में पारधियों का डूबना सवाल नहीं था क्योंकि वे बीजेपी के वोटर हैं!
 
हम गांव लौट आए. चलते-चलते हमने पूछा, ‘‘कैसा लगता है आप लोगों को कि आपके गांव को अब लोग टीवी के माध्यम से जान गए हैं?’’ एक अधेड़ मुस्कराते हुए बोले, ‘‘हां, हमारे आंदोलन की नकल कर के अब तो समुंदर में भी लोग खड़े होने लगे हैं.’’ उसका इशारा कुदानकुलम न्यूक्लियर प्लांट के विरोध में समुद्र में सत्याग्रह करने वाले ग्रामीणों की ओर था. सबसे विदा लेकर हम उस जगह की ओर बढ़े जहां ऐसा लगता था मानो कल रात कोई मेला खत्म हुआ हो. सरपंच पति राधेश्याम तिरोले ने वहां लगे सारे बैनरों के आगे खड़े होकर तस्वीर खिंचवाई. उनकी पत्नी से हम नहीं मिल पाए. वे महिला संगठन के बोर्ड में दर्ज एक नाम भर थीं. गाड़ी में बैठते ही ऐसा लगा मानो हम किसी जेल से छूटे हों. (क्रमश:)
 
(यह सिरीज़ पांच किस्तों में है. अगले भाग में समाप्त. अपनी प्रतिक्रियाएं ज़रूर भेजें)

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