(नर्मदा नदी, परियोजनाएं और बांध, बाढ़ और डूब, विस्थापन और मुआवज़े, संसाधन और विकास, राजनीति और अपराध… ऐसे कितने ही मोर्चे और पहलू हैं नर्मदा के इर्द-गिर्द, किनारों पर सिर उठाए हुए. इनका जवाब खोजने वाले भोपाल और दिल्ली में अपनी-अपनी कहानियां कहते नज़र आ रहे हैं. एक ओर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के इशारे पर नाचती सरकारें हैं तो एक ओर अस्सी से चलकर एक सौ दस, बस- जैसे नारे हैं. इन नारों के बीच लोगों की त्रासद और अभावों की अंतहीन कथा है… नर्मदा के बांधों से भी ज़्यादा फैली और गहरी. इस कथा के कई अनकहे-अनखुले और अनदेखे पहलुओं पर रौशनी डाल रही है अभिषेक श्रीवास्तव की यह विशेष श्रंखला. आज पढ़िए इसकी दूसरी कड़ी- प्रतिरोध ब्यूरो)
हम आगे बढ़ चुके थे, लेकिन दिमाग खरदना में ही अटका था. गाड़ी में हमारी आपस में बहस भी हो गई. इस चक्कर में हमने ये जानने की कोशिश तक नहीं की कि हम जा कहां रहे हैं. हरदा शहर पहुंच कर टीवी चैनल के पत्रकार साथी को उतरना था जो हमारे साथ यहीं से जुड़े थे. उन्हें लेने आए थे एक दूसरे टीवी पत्रकार जो हमारे लिए कुछ खाने-पीने को भी लाए थे. उन्होंने आग्रह किया कि एक बार हरदा का ज़रदा चख कर ज़रूर देखा जाए. यहां अपने किस्म का पान मिलना तो मुश्किल था. सिर्फ मीठा पत्ता रखा था. एक कांच के डिब्बे में से कुछ सूखी पत्तियां निकाल कर पान वाले लड़के ने उसमें ढेर सारा चूना भर दिया और तर्जनी से मलने लगा. कुछ देर में यह सादी पत्ती जैसा दिखने लगा. मीठे पत्ते में उसे भर कर उसने पान को लौंग से बांध दिया. यह मेरे लिए नया था. पान मुंह में दबा कर हम लोगों ने उनसे विदा ली. शाम के पांच बज चुके थे. हम बढ़खलिया गांव की ओर बढ़ रहे थे. हरदा पीछे छूट चुका था और असर छोड़ने से पहले ही ज़रदा घुल कर खत्म हो चुका था. मुंह का ज़ायका खराब हो गया था.
अब गाड़ी में एक स्थानीय अखबारी जीव के साथ मैं था और साथी राहुल. दूसरे साथी को जीव कहना दो वजहों से है. पहला इसलिए कि उन्होंने अपना नाम कहीं भी लिखने से मना किया हुआ है. दूसरे,ऐसा जीव हमने वास्तव में पहले कभी नहीं देखा था. सिर्फ दो साल हुए हैं उसे पत्रकारिता में आए. बेहद विनम्र, संकोची और सहजता की हद तक असहज. पिछली रात जब वे हमें बस अड्डे पर लेने आए थे, तो हमने दबाव डाल कर अपने साथ होटल में उन्हें चाय पिलाई और खाना खिलाया. उस रात शहर में गणेश प्रतिमा विसर्जन की धूम थी. इंदौर से लेकर खंडवा तक इस उत्सव के चलते मध्यप्रदेश का एक भी सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. लगता था हम महाराष्ट्र में आ गए हों. हमारा होटल भी बॉम्बे बाज़ार में था. शायद किसी ने इंदौर में हमसे सही ही कहा था कि इंदौर में खड़े होकर आप मध्यप्रदेश को नहीं समझ सकते. खंडवा के लिए भी यह बात सही थी. पहली मुलाकात में उस युवतर बंधु ने बताया कि उसकी आज नाइट ड्यूटी है. ‘‘शहर बहुत संवेदनशील है. कुछ भी हो सकता है आज रात.’’ इस दौरान अपनी पढ़ाई-लिखाई से लेकर नौकरी तक की पूरी कहानी उसने सुना डाली. यह भी कि वे हरसूद के रहने वाले हैं. उनकी भी ज़मीनें डूबी हैं. उनके पिता हरसूद में तांगा चलाते थे और अब भी नए हरसूद में यही काम करते हैं. हमें लगा था कि उसके साथ घूमना सार्थक हो सकता है क्योंकि एक डूब प्रभावित व्यक्ति चीज़ों को बेहतर तरीके से हमें दिखा सकता है.
लेकिन पिछली रात से अब अगले दिन की शाम हो चुकी थी और उसने हमें सिर्फ दो जानकारियां दी थीं. एक अपने बारे में और दूसरी ‘पवित्र’ नर्मदा के बारे में, जिसमें डुबकी लगाना और ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग के दर्शन करना बहुत महात्म्य का काम है. दरअसल, जिस बढ़खलिया गांव में वे हमें ले जा रहे थे, वहां छात्र जीवन में वे अखबार बांटा करते थे और इसी से पत्रकार बनने की ललक उनमें पैदा हुई. वहां जाने की एक और वजह यह थी कि वे बढ़खलिया से परिचित थे और उसके आगे रास्ते में नया हरसूद पड़ता था जहां उन्हें एक करीबी परिवार के श्राद्ध कार्यक्रम में शामिल होने जाना था. हमने कार्यक्रम को उन्हीं के हिसाब से चलने दिया, लेकिन यह रास्ता इतना आसान भी नहीं था. बढ़खलिया जाने वाली प्रधानमंत्री ग्राम सड़क के गड्ढे में हमारी गाड़ी बिदक गई और ड्राइवर साहब अड़ गए. एकाध गांव वालों की मदद से गड्ढा पार तो हो गया, लेकिन मदद का नेतृत्व करने वाले सज्जन हमारे मोबाइल नंबर के लिए पीछे पड़ गए. बोले, ‘‘सर, लगता है कोई बहुत ज़रूरी फाइल के लिए इतनी रात को गांव जा रहे हैं. मैं फलाने वर्मा और आप? नंबर दीजिए न? डायरी ले आता हूं….’’ बड़ी मुश्किल से जान छूटी और नज़र गाड़ी के डम्पर की ओर पहली बार गई. देखा, तो नीचे भारतीय जनता पार्टी लिखा हुआ था. ज़रूरी फाइल का मर्म समझ में आ गया, लेकिन उस अखबारी जीव पर पहली बार गुस्सा आया. यह गाड़ी उसी ने करवाई थी. बढ़खलिया में प्रवेश करते-करते पूरा अंधेरा हो चुका था.
बाएं हाथ पर पहली रोशन सी एक गुमटी के पास गाड़ी रुकी, तो अचानक भीड़ जुट गई. लोगों ने हमारे साथ मौजूद जीव को पहचान लिया था. कुछ लोगों से राम-राम के बाद उसने हमारा परिचय कराया और सबके साथ हम चल दिए डूब का इलाका देखने. दरअसल, यहां डूब का मामला थोड़ा अलग है. पानी यहां भी इंदिरा सागर बांध यानी नर्मदा का ही है, लेकिन जानने वाली बात ये है कि जो पानी इस गांव को डुबो रहा है वह दरअसल हरसूद के डूब क्षेत्र का विस्तार है. यानी 2004 में नर्मदा के पानी में डूबे 700 साल पुराने शहर हरसूद से यह गांव बिल्कुल सटा हुआ है. गांव में बिजली नहीं थी. नीम अंधेरे में हम मुश्किल से 200 मीटर आगे गए होंगे कि लगा जैसे गांव खत्म! अंधेरे में ज़मीन और पानी का फर्क मिट गया था! सामने अंतहीन समुद्र था. गले में पीला गमछा डाले दुबले-पतले एक शख्स ने बताया, ‘‘यही हरसूद है साहब. उस पार जहां पेड़ दिख रहे हैं, वहीं स्टेट हाइवे है. हरसूद से खंडवा वाली मेन रोड. और वो देखिए रेलवे स्टेशन, जो डूब चुका है.’’ उसे सब कुछ दिख रहा था. मैं सिर्फ हिलते पानी को देखे जा रहा था. एक शहर जिसके नीचे दबा हुआ था. एक गांव जो दफन होने के इंतज़ार में आखिरी सांसें गिन रहा था.
उसका नाम मैंने नहीं पूछा, लेकिन वो बोलता रहा, ‘‘वो देखिए गांव का इकलौता हैंडपंप… दिख रहा है न… हैंडल निकला हुआ.. हां, वही.’’ एक महिला मेरे पीछे खड़ी थी. उसने अपना नाम कमला बताया, बोली, ‘‘यही एक हैंडपंप था. अब यही पानी पाते हैं हम लोग… सड़ा हुआ. इसी में जानवर भी नहाते हैं.’’ अचानक पीले गमछे वाला बोल पड़ा, ‘‘सर, कुछ दबंग लोग हैं यहां. उनके पास ट्यूबवेल है लेकिन वे इनको पानी नहीं पीने देते.’’ पीछे से एक आवाज़ आई, ‘‘ट्यूबवेल में भी कहां तीन दिन से पानी आ रहा है?’’ मैंने हैंडपंप की तस्वीर लेनी चाही तो फ्रेम में पानी भरती एक महिला भी दिख गई. अचानक पीले गमछे वाला करीब आया और कान में बोला, ‘‘सर, अब हम लोग कुछ नहीं बोल पाएंगे. वो देखो, दबंग लोग आ रहे हैं. आप चलो यहां से.’’ उसके मुंह से शराब का भभूका आया. मैंने पीछे मुड़ कर देखा. अंधेरे को चीरती दो मोटरसाइकिलें धीरे-धीरे चली आ रही थीं.
एक नौजवान मोटरसाइकिल से उतरा. बाकी लोग कुछ पीछे की ओर हट गए. उसने अपना नाम रामचंद्र मीणा बताया. उसके साथ दो और युवक थे. हमारा परिचय लेने के बाद उसने सबसे पहले बताया कि यहां भी घोघलगांव और खरदना के साथ-साथ जल सत्याग्रह हुआ था. अजीब बात है कि हम इतनी देर से यहां थे, लेकिन अब तक इस बात का जि़क्र किसी ने क्यों नहीं किया था? किसी अखबार में भी जल सत्याग्रह के संबंध में बढ़खलिया का नाम नहीं दिखा था. मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘‘कितने दिन चला था यहां पर?’’ ‘‘सर, 14 दिन तक चला था. लोग पानी में वैसे ही खड़े थे जैसे बाकी जगहों पर, लेकिन यहां खत्म करवा दिया गया.’’ इतने में हमारे साथी अखबारी जीव अपनी बात को उससे बचाते हुए अंग्रेज़ी में फुसफुसाए, ‘‘सर, ही इज़ ऐन इम्पलॉई ऑफ एनबीए’’’. रामचंद्र दबंग था या कर्मचारी, लेकिन मेरी दिलचस्पी उसमें बढ़ गई थी. मैंने पूरी घटना उससे समझने की कोशिश की.
दरअसल, बढ़खलिया में घोघलगांव के बाद दूसरे नंबर पर जल सत्याग्रह शुरू हुआ. हरदा के खरदना में इसके बाद शुरू हुआ. यहां भी मेधा पाटकर नहीं आई थीं. रामचंद्र मीणा के मुताबिक तब वे धार जि़ले में किसी धरने पर बैठी थीं. यहां का आंदोलन एनबीए के ‘कर्मचारी’ विकास भाई चला रहे थे. रामचंद्र ने बताया, ‘‘जिस दिन खरदना में ग्रामीणों को पानी से निकालने के लिए पुलिस आई, वहां से आलोक अग्रवाल ने विकास जी को फोन किया. उन्होंने विकास से कहा कि आंदोलन खत्म कर दो नहीं तो वहां भी पुलिस आ जाएगी.’’ और फोन रखते ही यहां आंदोलन के अंत की घोषणा कर दी गई. लोग तुरंत पानी से बाहर निकल आए. इस घटना की एक और तह रामचंद्र के अलावा दूसरे युवकों से बात कर के खुलती है. रामचंद्र अपने घर में चाय बनवाने गए थे, उस दौरान कुछ लोगों ने हमें बताया कि यहां का सरपंच दबंग है और भाजपाई विधायक तथा नर्मदा बांध के अधिकारियों के साथ उसकी साठगांठ है. दरअसल आंदोलन टूटने के पीछे वजह यह थी कि विधायक ने इसे खत्म करवाने का दबाव सरपंच पर डाला था. वे बताते हैं कि ग्रामीणों में एकता नहीं है. यहां एक तरफ कुछ दबंग लोग हैं और दूसरी ओर कमज़ोर आबादी. आधे से ज्यादा लोग यहां मीणा हैं, हालांकि यहां के मीणा सवर्ण हैं. इसके अलावा पटेल हैं और कुछ ब्राह्मण भी हैं. आदिवासी इस गांव में हैं ही नहीं और पिछड़े भी नहीं के बराबर हैं. आर्थिक रूप से यह गांव उतना कमज़ोर नहीं है, लेकिन आंदोलन के शुरू होने से लेकर टूटने तक की पूरी कहानी भाजपाई विधायक, सरपंच आदि की सरमायेदारी का सिलसिला है. वे तमाम लोग आंदोलन से बाहर रखे गए थे जिनका किसी भी गुट से लेना-देना नहीं था.
पीले गमछे वाला पतला दुबला आदमी इन्हीं में से एक था. वह जबरदस्ती हमें कमला मीणा के घर ले गया. इनके पूर्वज राजस्थान टोंक से आए थे. अधिकतर परिवारों का मूल राजस्थान ही है. गाय बांधने वाली जगह पर पानी है. रसोई की फर्श अब भी गीली है और धंस रही है. दो पीछे के कमरे एक बार डूब कर उपरा चुके हैं. सर्वे में डूब के क्षेत्र में सिर्फ एक कमरा आया था. दूसरे कमरे के बारे में कोई अधिसूचना जारी नहीं की गई थी! बाढ़ के सर्वे का इससे बड़ा मज़ाक और क्या हो सकता है? मुनादी हुई नहीं और घर डूब गया. इस घर के पीछे से होते हुए हम जहां पहुंचते हैं, वह जगह उजड़ चुकी है. दो कमरे हैं. ताला बंद. दीवारें ढहने को हैं. ज़मीन दलदली है. जंगली पौधों का साम्राज्य है. पीले गमछे वाला कहता है, ‘‘साहब, ये मेरा घर! दो आरे (करीब डेढ़ बीघा) जमीन डूब गई. ढाई लाख की जगह 40,000 प्रति एकड़ का हिसाब लगा कर मुआवजा दिया गया. आप देखना चाहेंगे? अभी आता हूं.’’
कह कर वो गायब हो गया. बाकी लोग हमें लेकर आगे बढ़ गए जहां रामचंद्र मीणा चाय लेकर इंतजार कर रहा था. देर काफी हो चुकी थी. हमने चाय के लिए मना किया. हमारे साथी अखबारी जीव बोले, ‘‘यहां लोग चाय का मना करने पर बुरा मान जाते हैं. जल्दी पी लीजिए, फिर निकलते हैं.’’ खड़े-खड़े हम चाय सुड़क रहे थे और लोगों का मजमा बढ़ता जा रहा था. अचानक कहीं से पीले गमछे वाला निकल कर बीच में आ गया और उसने कागज का एक टुकड़ा ऐन मेरे मुंह के सामने कर दिया. ये क्या है? ‘‘सर, मैं पंडित हूं. झूठ नहीं बोलता. मुआवजे का चेक है- 219 रुपए! दो आरे की कीमत 219 रुपए दी गई! खाता खुलवाने में ही 500 रुपया लगता है.’’
हम हतप्रभ थे. मैंने उसका चेहरा हलकी रोशनी में किया और तस्वीर उतारने लगा तो पीछे से आवाज़ आई- ‘‘मढ़वा कर दीवार पर लटका ले.’’ उसने पास आकर धीरे से कहा, ‘‘सर, दबंग लोग हैं. आप निकल लो.’’ इस बार हमने उसकी बात मान ली. गाड़ी बढ़खलिया से निकल चुकी थी. (क्रमश:)
(यह सिरीज़ पांच किस्तों में है. शेष तीन कड़ियां अगले कुछ दिनों में. अपनी प्रतिक्रियाएं ज़रूर भेजें)