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गोरख पांडेः ‘आत्म-अंतर्विरोध’ के बारे में

Oct 29, 2011 | गोपाल प्रधान

(यह लेख गोरख पांडे (1945-1989) द्वारा लिखा गया था और मार्क्सिस्ट टु़डे पत्रिका के पहले अंक में छपा था. इसे पहली बार हिंदी में अनुवाद (गोपाल प्रधान द्वारा) करके छापा जा रहा है. इस लेख में गोरख पांडे एम बासवपुन्नैया के एक लेख पर अपना तर्क रख रहे हैं. यह लेख जब प्रकाशित हुआ था तब एम बासवपुन्नैया (1914-1992) माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य थे. बासवपुन्नैया ने ‘सोशल साइंटिस्ट’ के सितंबर 1983 के अंक में एक लेख लिखा था- ‘आन कंट्राडिक्शन, एंटागोनास्टिक एंड नान एंटागोनास्टिक’. इस लेख में उन्होंने तर्क दिया था कि माओ का लेख ‘अंतर्विरोध के बारे में’ मार्क्सवादी सिद्धांत की गलत व्याख्या है. गोरख पांडे ने बासवपुन्नैया के इसी लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप यह लेख लिखा.)

 

………………………………………………………….

लेनिन ने अंतर्विरोध के नियम का महत्व निम्नांकित शब्दों में बयान किया है: \\\’संक्षेप में द्वंद्ववाद को विरोधों की एकता के सिद्धांत के बतौर परिभाषित किया जा सकता है.\\\’ उन्होंने यह भी कहा कि इसकी व्याख्या और विकास की जरूरत है. क्रांतिकारी व्यवहार के दौरान प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में मानव ज्ञान की निरंतर समृद्धि के कारण यह व्याख्या और विकास न सिर्फ़ संभव है बल्कि आवश्यक भी हो गया है. और यहीं माओ का 1937 में लिखा प्रसिद्ध लेख \\\’अंतर्विरोध के बारे में\\\’ महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह इस जरूरत को पूरा करता है. देबोरिनपथियों के गलत विचारों का खंडन करते हुए यथावसर माओ ने अंतर्विरोध के नियम के विभिन्न निहितार्थों को सटीक और सुसंगत तरीके से तथा विस्तारपूर्वक सूत्रबद्ध किया. इस लेख में उन्होंने निम्नांकित बिंदुओं पर विचार किया :

1.अंतर्विरोध की सार्वभौमिकता.
2.अंतर्विरोध की विशिष्टता.
3.प्रमुख अंतर्विरोध.
4.किसी अंतर्विरोध का प्रमुख पहलू.
5.अंतर्विरोध के पहलुओं के बीच समरूपता और संघर्ष अर्थात किसी अंतर्विरोध के विरोधी पहलुओं का आपसी रूपांतरण.
6.अंतर्विरोध में शत्रुता का स्थान और शत्रुतापूर्ण तथा गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का आपसी रूपांतरण.
तबसे अनेक किस्म के अधिभूतवादियों ने माओ के सूत्रीकरण की आलोचना की और उसका विरोध किया. इस कतार में सबसे नई आमद श्री एम बासवपुन्नैया की हुई है जो माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं. बासवपुन्नैया ने \\\’सोशल साइंटिस्ट\\\’ के सितंबर 1983 के अंक में एक लेख लिखा \\\’आन कंट्राडिक्शन, एंटागोनास्टिक एंड नान एंटागोनास्टिक\\\’ जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि माओ का लेख \\\’अंतर्विरोध के बारे में\\\’ मार्क्सवादी सिद्धांत की गलत व्याख्या है. माओ के सूत्रीकरण में उन्हें ठीक ठीक दो बुनियादी भूलें नजर आती हैं:
1.यह कहना कि शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों में आपसी रूपांतरण हो सकता है.
2.यह कहना कि किसी अंतर्विरोध के दो विरोधी पहलुओं में भी आपसी रूपांतरण हो सकता है.
अपनी इस राय के आधार पर वे कहते हैं कि माओ के अंतर्विरोध संबंधी सिद्धांत से वर्ग संघर्ष के लिए खतरनाक नतीजे निकलते हैं. वर्तमान लेख का मकसद माओ के बरक्स बासवपुन्नैया (आगे से एमबी) की स्थिति की परीक्षा और कुछ बुनियादी मुद्दों, यथा (अ) अंतर्विरोध की द्वंद्वात्मक परिभाषा (ब) शत्रुतापूर्ण और गैर शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का आपसी रूपांतरण (स) भीतरी और बाहरी अंतर्विरोध (द) किसी अंतर्विरोध के विरोधी पहलू (य) संघर्ष के रूप और अंतर्विरोध को हल करने के तरीके (फ़) राजनीतिक निहितार्थ, पर मार्क्सवादी नजरिए की पुनःस्थापना की कोशिश है. हम एक एक कर इन पर विचार करेंगे.

अंतर्विरोध की द्वंद्वात्मक परिभाषा

एम बी के मुताबिक द्वांद्वात्मक मायने में अंतर्विरोध की धारणा के 5 अर्थ निकलते हैं (क) अंतर्विरोध सार्वभौमिक है (ख) दो बुनियादी विरोधी पक्ष या पहलू आपस में एक दूसरे के अपवर्जी और सापेक्षिक होते हैं (ग) विपरीतों की एकता और संघर्ष समस्त गति और विकास का वस्तुगत स्रोत और प्रेरक शक्ति होते हैं (घ) सामाजिक और वर्ग अंतर्विरोध विशिष्ट होते हैं क्योंकि उनमें चिंतन और चेतना के अनुपम तत्व मौजूद होते हैं (ङ) अंतर्विरोध दो तरह के होते हैं अर्थात शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण.
बात शुरू करें तो एम बी विपरीतों की एकता के सार को ही या तो भूल गये या हटा दिया क्योंकि कहीं भी वे विपरीतों की द्वांद्वात्मक समरूपता और रूपांतरणीयता का जिक्र नहीं करते हैं. हम सभी जानते हैं,  आधिकारिक तर्कशास्त्र मानता है कि कोई भी वस्तु अपने ही समरूप होती है अर्थात उसमें उसका ही निषेध नहीं होता; कि वह या तो यह होती है या वह, वह एक ही साथ दोनों नहीं हो सकती अतः वह यह है वह नहीं. वह विपरीतों की एकता नहीं होती. इसके बरक्स द्वंद्ववाद का कहना है कि किसी भी समरूपता में आत्म निषेध निहित होता है, कि यह अपने आपसे भिन्न होती है, यह है और यह नहीं है, कि यह, यह और वह दोनों ही होती है और अंततः कि प्रत्येक चीज विपरीतों से बनी हुई है. होने और बनने में कोई तात्विक अंतर नहीं है. बजाय इसके होना ही बनना है, असीम ही ससीम है, शाश्वत ही क्षणिक है, आदि इत्यादि. विपरीतों की एकता और समरूपता की यही द्वांद्वात्मक समझ है. इस समरूपता का यह भी अर्थ है कि विरोधी एक दूसरे में बदल जाते हैं. उदाहरण के लिए होना, बनने में बदल जाता है, असीम ससीम में बदल जाता है और शाश्वत क्षणिक में बदल जाता है तथा इसका उलटा भी होता है. विपरीतों के बीच आधिकारिक तर्कशास्त्र द्वारा स्थापित अंतर को द्वंद्ववाद उनके आपसी रूपांतरण पर जोर देकर ही ध्वस्त करता है. लेनिन ने कहा: \\\’द्वंद्ववाद हमें सिखाता है कि कैसे विपरीतों में समरूपता हो सकती है और कैसे होती (कैसे वे बनते हैं) है. किन परिस्थितियों में ये समरूप एक दूसरे में रूपांतरित हो जाते हैं. क्यों मानव मस्तिष्क को इन विपरीतों को मृत और जड़ मानने की बजाय जीवंत, परिस्थितिजन्य, गतिशील, एक दूसरे में बदलते हुए समझना चाहिए.\\\’ (लेनिन, कलेक्टेड वर्क्स, खंड 38, पृष्ठ 109)
एम बी न सिर्फ़ द्वंद्ववाद की इस बुनियादी शिक्षा का उल्लेख नहीं करते बल्कि दरअसल वे इसका विरोध करते हैं. इसी लेख में अन्यत्र वे अपनी अधिभूतवादी दृष्टि से मार्क्स की इन शब्दों में व्याख्या करते हैं.
यह–कि दो विरोधी पहलुओं में संघर्ष की प्रक्रिया में ‘भूमिकाएँ उलट जाती हैं, कि दोनों में से एक पहलू अन्य का ‘स्थान ले लेता’ है, यह विचार ही इस विषय में मार्क्स के कथनों के विपरीत है . इसकी बजाए वे इन पहलुओं में ‘सारभूत विरोध’ की बात करते हैं जिसमें द्वांद्वात्मक मायनों में समरूपता के लिए कोई जगह नहीं है.
अंतर्विरोध के हल के मामले में एम बी मानते हैं कि विरोधी विलयित हो जाते हैं लेकिन एक दूसरे में बदलते नहीं. लेकिन विलयित विरोधों का होता क्या है? क्या वे हवा में गायब हो जाते हैं और इस धरती को हमारे सपाट अधिभूतवादी के लिए खाली छोड़ जाते हैं? या कि द्वांद्वात्मक मायनों में एक पहलू दूसरे का अधिग्रहण कर लेता तथा उसका स्थान ले लेता है और फिर खुद भी एक अन्य एंटी थीसिस द्वारा अधिग्रहित कर लिया जाता है? कोई अंतर्विरोध हल कैसे होता है?
एम बी के मुताबिक कोई अंतर्विरोध ‘दो विरोधी ध्रुवांतों समेत उच्चतम स्तर तक परिपक्व और तीव्र होता है. तब दोनों विरोधी पहलू एक दूसरे से सीधे टकराते हैं, दोनों पहलू विलयित हो जाते हैं और अंतर्विरोध हल हो जाता है. ‘ शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के मामले में क्या होता है? ‘जब इस अंतर्विरोध के दोनों विरोधी ध्रुवांतों या पहलुओं के बीच का संघर्ष अंतिम हल के विंदु तक पहुँच जाता है और जब यह अंततः हल हो जाता है तो शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के दोनों पहलू विलयित हो जाते हैं और वह विशिष्ट अंतर्विरोध उस विशिष्ट रूप में गायब हो जाता है. एम बी के इन दोनों वक्तव्यों की तुलना करने पर हमें आम तौर पर अंतर्विरोध और खास तौर पर शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध की परिभाषा के बीच किसी बुनियादी फ़र्क का पता नहीं चलता. एम बी की पुनरुक्ति दोषयुक्त परिभाषा आम अंतर्विरोध और शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध को एक साथ जोड़ देती है और इसमें वही यांत्रिक भूल है जो बुखारिन में थी. फिर दूसरे ही पृष्ठ पर एम बी स्वयं अंतर्विरोध और शत्रुता के बीच निरपेक्ष समरूपता के विरुद्ध लेनिन की चेतावनी उद्धृत करते हैं. असल में मार्क्सवाद की उद्धरणमूलक समझ हमेशा ही अंधे कुएँ की ओर ले जाती है.
आम तौर पर अंतर्विरोध को परिभाषित करते हुए एम बी कहते हैं कि हरेक अंतर्विरोध उच्चतम स्तर तक तीव्र होता है और दोनों विरोधी पहलू एक दूसरे से सीधे टकरा जाते हैं. इस तरह वे शत्रुतापूर्ण और गैर शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों के बीच फ़र्क खत्म कर देते हैं. लेकिन माओ ने बार बार जोर देकर कहा था कि शत्रुता विपरीतों के बीच संघर्ष का एक रूप है, एकमात्र रूप नहीं. इस सूत्रीकरण का विरोध करने के लिए एम बी मार्क्स की गलत व्याख्या को आधार बनाते हैं.
मार्क्स ने कहा ‘शत्रुता नहीं, विकास नहीं—.‘ एम बी ने मार्क्स को इस तरह उद्धृत किया है मानो वे शत्रुता को सामाजिक अंतर्विरोधों का निरपेक्ष या एकमात्र रूप मानते हों. असल में मार्क्स वर्ग (या समाज) के प्रमुख अंतर्विरोध की बात कर रहे थे. आप यह बात एम बी द्वारा खड़ी की गई उद्धरणों की बाड़ के बीच भी देख सकते हैं. मार्क्स कहते हैं ‘—राजनीतिक सत्ता नागरिक समाज की शत्रुता की ठीक ठीक आधिकारिक अभिव्यक्ति है.‘ इसका साफ मतलब प्रमुख अंतर्विरोध है. इसके अलावा भी अंतर्विरोध होते हैं. मार्क्स ने ही कहा है कि पूँजीवादी समाज में मजदूर भी अंतर्विरोध के नियम की गिरफ़्त में होते हैं और इस तरह उनमें आपसी अंतर्विरोध पैदा होता है. लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि ये शत्रुतापूर्ण होते हैं.
शत्रुता के निरपेक्षीकरण की यह प्रवृत्ति एम बी एक बार और तब जाहिर करते हैं जब वे माओ के इस कथन का विरोध करते हैं कि ‘जब तक दो वर्गों के बीच का अंतर्विरोध एक खास हद तक विकसित नहीं होता तब तक वह खुली शत्रुता का रूप नहीं लेता और क्रांति में नहीं बदलता.’ एम बी इस तथ्य से भी कोई शिक्षा नहीं लेते कि मार्क्स भी कहते हैं ‘पहले यह कमोबेश छुपा होता है, सुप्तावस्था में मौजूद रहता है’, अनिवार्यतः बाद के चरणों में विकसित होता है और अंतिम दौर में तो निरपेक्ष भी हो जाता है.
अंतर्विरोध चरणों मे ही विकसित होता है और हमेशा एक जैसा ही नहीं रहता. देखें ए पी शेप्तुलिन कहते हैं ‘—-बहरहाल कोई भी अंतर्विरोध नियमपूर्वक पके पकाए रूप में नहीं प्रकट होता . वह पहले अपरिपक्व रूप में मौजूद होता है और सामने आता है—अंतर पहले, अपरिपक्व रूप में है जिसके जरिए अंतर्विरोध अपने आपको प्रकट करता है.‘ (ए पी शेप्तुलिन, “मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट फ़िलासफ़ी”, प्रोग्रेस पब्लिशर्स 1978)
इसी तरह शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध भी विकसित होता है और इसीलिए इसका अस्तित्व विकास के हरेक चरण में एक जैसा नहीं रह सकता. खुली शत्रुता या क्रांति अंतर्विरोध के रूप और आयाम में निश्चय ही बदलाव है.
एम बी अपने निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए तर्क की जैसी कसरत करते हैं उसे देखना वाकई रोचक है. वे लेनिन और माओ को उद्धृत करते हैं और उनके बीच फ़र्क पाते हैं. मसलन लेनिन कहते हैं ‘शत्रुता और अंतर्विरोध समान नहीं होते’ माओ कहते हैं ‘विपरीतों के संघर्ष का एक रूप शत्रुता है लेकिन एकमात्र रूप नहीं’. एम बी माओ के सूत्रीकरण से सहमत नहीं हैं और उनकी आलोचना करते हैं कि उन्होंने शत्रुता को विपरीतों के संघर्ष की एक अभिव्यक्ति या विपरीतों के संघर्ष का एक रूप कहकर शत्रुता की धारणा को कमजोर बना दिया है. इसके कारण वे यह कहने के लिए बाध्य हुए कि ‘वर्ग शत्रुता विपरीतों के संघर्ष का विशिष्ट रूप नहीं है’. इस कसरत को देखकर क्या समझा जाए? सिर्फ़ यह कि अंततः एम बी लेनिन की इस मान्यता का निषेध करते हैं कि विपरीतों की एकता और संघर्ष के बतौर विकास की धारणा सभी परिघटनाओं को समझने की कुंजी है.
दो पृष्ठ तक मार्क्स और मार्क्सवादी दर्शन की पाठ्यपुस्तक को उद्धृत करने के बाद एम बी अचानक एक विचित्र निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कोई अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण है अथवा गैरशत्रुतापूर्ण यह उस अंतर्विरोध की प्रकृति पर ही निर्भर है. लेकिन इस सूक्ति को ‘प्रमाणित’ करने के लिए उद्धरणों की कोई जरूरत नहीं थी. आखिरकार ‘शत्रुतापूर्ण’ और ‘गैरशत्रुतापूर्ण’ शब्द ही अंतर्विरोध की प्रकृति का परिचय देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. एम बी को साबित यह करना है कि शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध की प्रकृति ही शत्रुतापूर्ण होती है, विपरीतों के संघर्ष का एक खास रूप वह नहीं होता. उनके इस सूत्रीकरण का कोई सिर पैर समझने की कोशिश आप करना चाहें तो करें.
अंतर्विरोधों की प्रकृति के बारे में एम बी की धारणा और भी अधिक साफ होती है जब वे मार्क्स के उद्धरण की व्याख्या इन शब्दों में करते हैं ‘शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध में शत्रुता हमेशा मौजूद रहती है, चाहे वह प्रच्छन या सुप्त स्थिति में हो अथवा खुली और अनावृत स्थिति में.’  यह बात वे माओ की इस बात का विरोध करने के लिए कहते हैं कि ‘जब तक दो वर्गों के बीच का अंतर्विरोध एक खास हद तक विकसित नहीं होता तब तक वह खुली शत्रुता का रूप नहीं लेता और क्रांति में नहीं बदलता.’ अपनी आपत्ति एम बी निम्नांकित शब्दों में दर्ज करते हैं ‘इससे यह छाप पड़ती है कि ऊपर वर्णित वर्ग अंतर्विरोधों में शत्रुता अंतर्विरोध के खास हद तक विकसित होने पर अपने आपको प्रकट करती है.’ प्रकट होने का मतलब है खुला रूप लेना और अगर यह सुप्त या प्रच्छन्न है तो प्रकट नहीं है. क्या इसे समझना आसान नहीं है जिसे एम बी करने से इंकार करते हैं? क्या वे ऐसी किसी चीज की कल्पना करते हैं जो सुप्त या गुप्त स्थिति में हो और फिर भी अपने आपको प्रकट करे ? लेकिन अब भी जो महत्वपूर्ण सवाल है वह है: क्या इसकी जाँच एकदम फ़ालतू है कि शत्रुता छिपी हुई है या खुली? क्या संघर्षरत विरोधी वर्ग सहअस्तित्व की स्थिति में हैं या फिर उनका अंतर्विरोध खुली शत्रुता या क्रांति की अवस्था में पहुँच गया है? हमारा कहना है कि क्रांतिकारियों के लिए तो यह सबसे महत्वपूर्ण सवाल है लेकिन ऊँचे महलों में बैठे चिंतकों के लिए महत्वहीन.

शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का आपसी रूपांतरण

माओ कहते हैं ‘चीजों के ठोस विकास के अनुरूप कुछ अंतर्विरोध जो मूलतः गैरशत्रुतापूर्ण थे वे शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं जबकि कुछ अन्य जो शत्रुतापूर्ण थे वे गैरशत्रुतापूर्ण हो जाते हैं.‘
माओ से असहमत होते हुए एम बी मानते हैं कि अंतर्विरोध प्रकृतितः शत्रुतापूर्ण अथवा गैरशत्रुतापूर्ण होते हैं और उनकी प्रकृति कभी बदल नहीं सकती. वे वही रहेंगे जो वे जन्मना हैं चाहे जो भी ठोस स्थिति हो या उनके हल के लिए संघर्ष का जो भी रूप अपनाया जाए. यहाँ दो सवाल खड़े होते हैं: एक, क्या अंतर्विरोध की प्रकृति या उसका जन्मचिन्ह इतना अपरिवर्तनीय होता है; और दूसरे, क्या उसकी प्रकृति का उसे हल करने के लिए अपनाए जाने वाले रूप से कोई रिश्ता नहीं होता?
पहले हम किसी अंतर्विरोध की प्रकृति की अपरिवर्तनीयता के सवाल पर विचार करेंगे. एंगेल्स ने एंटी ड्यूहरिंग के दूसरे संस्करण की भूमिका में लिखा, ‘पुरानी कठोर शत्रुताएँ, तीखी अनुल्लंघनीय विभाजक रेखाएँ अधिकाधिक गायब होती जा रही हैं.‘ जो युगांतरकारी आविष्कार उस समय प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे थे उन पर टिप्पणी करते हुए एंगेल्स ने रूपांतरण की प्रक्रिया को ‘महान बुनियादी प्रक्रिया कहा, जिसका ज्ञान समूची प्रकृति का ज्ञान है’ और आगे यह भी जोड़ा ‘असल में ध्रुवांत शत्रुता को असमाधेय और अपरिवर्तनीय समझना और जबरिया थोपी गई विभाजन रेखाओं तथा वर्ग अलगावों को स्थिर मानना ही वह कारण है जिससे प्राकृतिक विज्ञान की आधुनिक सैद्धांतिकी का सीमित अधिभूतवादी चरित्र पैदा हुआ है’. जो बात प्रकृति पर लागू होती है वह समाज पर भी लागू होती है. अधिभूतवादी चिंतक ही शत्रुता पर अपनी मनोगतता, काल्पनिक अपरिवर्तनीयता और निरपेक्ष वैधता थोप देते हैं. असल में समाज में शत्रुता की महज सापेक्ष वैधता होती है.
एक ही समाज में हमें शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण दोनों तरह के अंतर्विरोध मिलते हैं. वे क्या विपरीत नहीं होते ? एक साथ क्या वे सयोगवश होते हैं ? या चूँकि वे एक ही समाज मे होते हैं इसलिए उनमें कोई द्वांद्वात्मक रिश्ता होता है ? एम बी इन दोनों एकदम स्थिर कोटियों को ध्रुवांत मानते हैं और इन कोटियों के बीच कोई अंतर्संबंध वे नहीं मानते. अगर एम बी सोचते हैं कि किसी भी वस्तु को उसके जन्म से जो गुण उसे मिल गये उन्हें वह बदल नहीं सकती तो उन्हें आधिकारिक तर्कशास्त्र की तरह ही विपरीतों के रूपांतरण के नियम को सिरे से खारिज कर देना चाहिए. लेकिन अपने लेख में चलते चलते उन्होंने माना है कि मार्क्सवादी द्वंद्वात्मकता में एक चीज है जिसे विपरीतों के रूपांतरण का नियम कहा जाता है हालाँकि इसे व्याख्यायित करने की जहमत उन्होंने नहीं उठाई है. देखिए वे क्या कहते हैं: विपरीतों—का मार्क्सवादी सिद्धांत (पृष्ठ 12). अगर विपरीत भी ‘प्रकृतितः’ विपरीत होते हैं तो वे एक दूसरे में कैसे बदल सकते हैं?  अगर विपरीतों की प्रकृति बदल सकती है तो यही बात अंतर्विरोध की प्रकृति पर क्यों नहीं लागू होती?
लेनिन ने कहा था ‘प्रकृति में और समाज में सभी विभाजन तरल और कुछ हद तक पारंपरिक होते हैं’ (वामपंथी कम्युनिज्म एक बचकाना मर्ज). स्तालिन ने भी अपनी किताब ‘इकोनामिक प्रोब्लेम्स आफ़ सोशलिज्म इन यू एस एस आर’ में गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध में बदल जाने की संभावना देखी. यूएसएसआर जैसे समाजवादी समाज में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों के बीच अंतर्विरोध की मौजूदगी को मानते हुए उन्होंने कहा कि संचालक निकाय की सही नीतियों के कारण ही यह अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण नहीं हो पाता और दोनों के बीच टकराव का रूप नहीं ग्रहण करता.
सोवियत दार्शनिकों ने भी अनेक किताबों मे इस रूपांतरण को मानना है. उदाहरण के लिए 1974 में प्रकाशित ‘द फ़ंडामेंटल प्रोब्लेम्स आफ़ लेनिनिस्ट फिलासफ़ी’ में देखें ‘—इस तथ्य से आँख नहीं बंद रखनी चाहिए कि शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों में कुल फ़र्क के बावजूद उनके बीच कोई स्थिर खाई नहीं होती. लेनिन ने हमेशा इस तथ्य पर जोर दिया कि गलत नीति के कारण गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध भी गहरा और तीखा हो सकता है कुछ परिस्थितियों में शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध का रूप भी धारण कर सकता है—’. वी अफ़्नास्येव ने अपनी किताब ‘मार्क्सिस्ट फ़िलासफ़ी’ (प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1968) में कहा ‘आंतरिक और बाहरी, शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण, बुनियादी और गौण अंतर्विरोधों में कोई तय और अनुल्लंघनीय सीमा नहीं होती. असल में वे अंतर्ग्रथित होते हैं, एक दूसरे में बदल जाते हैं और विकास में विभिन्न भूमिकाएँ निभाते हैं.’
माओ ने कभी नहीं कहा कि सभी शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध महज सही रुख अपनाने से गैरशत्रुतापूर्ण हो जाते हैं और उनका उसी तरीके से हल किया जा सकता है. असल में चीजों के ठोस विकास पर यह निर्भर है और इसी तरीके से कुछ अंतर्विरोध अपनी प्रकृति बदल लेते हैं. माओ कोई गांधीवादी नहीं थे जो हृदय परिवर्तन का उपदेश देते. इसकी बजाय उन्होंने साफ कहा कि ‘इस बात को समझने के लिए यह समझना जरूरी है कि क्रांतियाँ और क्रांतिकारी युद्ध वर्गीय समाज में अनिवार्य होते हैं और उनके बगैर सामाजिक विकास के क्षेत्र में कोई भी छलांग असंभव है, प्रतिक्रांतिकारी शासक वर्गों को उखाड़ फेंकना असंभव है’ और व्यवहार में भी उन्होंने देशी और विदेशी प्रतिक्रांतिकारियों के विरुद्ध चीनी क्रांति का नेतृत्व किया जिसने चीनी जनता और साम्राज्यवाद तथा देशी शासक वर्ग के बीच शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध को हल किया.

भीतरी और बाहरी अंतर्विरोध

एम बी की द्वंद्वंवादी दुनिया में बाहरी अंतर्विरोधों के लिए कोई जगह नहीं है और हरेक चीज सिर्फ़ आंतरिक अंतर्विरोधों से ही विकसित होती है. अगर कोई चीज बाहरी और भीतरी कारकों में अंतःक्रिया के कारण बदलती है तो उनकी नजर में यह द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का मुजाहिरा नहीं करती. यह तो सीधे सीधे स्वतःस्फूर्तता का सिद्धांत है जो समाज को बदलने में कम्युनिस्ट पार्टी जैसे सचेतन कारक की भूमिका की अनदेखी करता है और उम्मीद करता है कि पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच अंतर्विरोध तीव्र होने के साथ हरेक बदलाव अपने आप आएगा.
अपने सूत्रीकरण को समझाने के लिए माओ ने बम विस्फोट का लोकप्रिय उदाहरण दिया था. लेकिन एम बी कहते हैं ‘बम का उदाहरण और यह कहना कि इसके दो पक्ष तब तक सुप्त और मृत पड़े रहते हैं जब तक तीसरा पक्ष “इग्नीशन” का प्रवेश नहीं होता, द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध की धारणा को स्पष्ट नहीं कर पाता.’ आखिर क्यों ? ‘क्योंकि विस्फोट न तो बम में रखे हुए दो अलग अलग तत्वों के आंतरिक टकराव का परिणाम होता है, न ही इन दोनों अलग अलग तत्वों में कोई अंतर्निहित एकता होती है.’ और ‘तीसरे बाहरी तत्व (इग्नीशन) के बगैर वह ऐसे ही पड़ा रहता है. उसमें न आंतरिक प्रगति होती है, न विस्फोट होता है.’
कहना न होगा कि बम के बारे में एम बी का ज्ञान उतना ही संदिग्ध है जितना द्वंद्ववाद के बारे में. अगर बम में रखे दो अलग अलग तत्वों के बीच कोई अंतर्निहित एकता नहीं होती तो उसमें विस्फोट ही क्यों होता? जब इग्नीशन मिले भी तो पत्थर की तरह क्यों नहीं पड़ा रहता?
एम बी का सोचना है कि बम लीब्नित्स के मोनाड की तरह कोई बंद प्रणाली है. इसका बाहरी दुनिया से कोई अंतर्संबंध नहीं. लेकिन फिर पानी के भाप बनने को वे कैसे व्याख्यायित करेंगे? आग तो पानी के बर्तन के बाहर रहती है. पानी क्या अपने आंतरिक अंतर्विरोध के कारण भाप बनता है या फिर यह भी द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का उदाहरण नहीं है? तब तो इस गफ़लत के लिए एंगेल्स ही जिम्मेदार हैं.
एम बी की सुविधा के लिए हम बताते हैं कि देशी बम कैसे काम करता है. बम का अर्थ है उसकी खोल और भीतर रखी सामग्री के बीच अंतर्विरोध. भीतर रखी सामग्री भी कुछ चीजें हैं (दो ही जरूरी नहीं) जो आक्सिडाइजर और आक्सिडाइज्ड के बीच अंतर्विरोध को व्यक्त करती हैं. कुछ बाहरी स्थितियों में बम बेकार हो जा सकता है उसी तरह जैसे सड़ता हुआ अंडा. कुछ अन्य स्थितियों मसलन इग्नीशन या वातावरण की गर्मी से आक्सिडेशन की प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है और भीतर रखी सामग्री तेजी से फैलकर खोल को फाड़ देती है. इसे ही विस्फोट कहते हैं जो अंडे से चूजे के बाहर आने की तरह होता है. द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का यह उदाहरण नहीं है?

अंतर्विरोध के विरोधी पहलू

एम बी माओ द्वारा अंतर्विरोध के पहलुओं को प्रभावी और अप्रभावी, प्रमुख और गौण आदि कहने का विरोध करते हैं जो माओ के मुताबिक किन्हीं ठोस स्थितियों में एक दूसरे में बदल जाते हैं. इसकी बजाय वे इन पहलुओं को सकारात्मक और नकारात्मक, संरक्षणात्मक और विध्वंसात्मक आदि कहना पसंद करते हैं और इस बात पर कायम रहते हैं कि किसी भी स्थिति में उनकी भूमिकाएँ बदल नहीं सकतीं. माओ के जिस सूत्रीकरण पर उन्हें सबसे अधिक आपत्ति है वह यह कि ‘किसी भी वस्तु का चरित्र अंतर्विरोध के प्रमुख पहलू, अर्थात उस पहलू से निर्धारित होता है जिसकी स्थिति प्रभावी हो.’
उनकी आपत्ति को निरस्त करने के लिए हम सबसे पहले एम बी ने अपने लेख में जो उद्धरण दिए हैं उन्हीं का सहारा लेंगे. ‘टेक्स्टबुक आफ़ मार्क्सिस्ट फ़िलासफ़ी’ का उद्धरण कहता है:
शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का समाधान—एक छ्लांग द्वारा होता है जिससे पहले का प्रभावी वैपरीत्य खत्म हो जाता है और नया अंतर्विरोध पैदा होता है. इस अंतर्विरोध में पूर्ववर्ती अंतर्विरोध का गौण विपरीत प्रधान विपरीत हो जाता है जिसमें उसकी विशेषताएँ सुरक्षित रहती हैं लेकिन नए अंतर्विरोध के रूप से निर्धारित होती हैं.
दूसरा उद्धरण मार्क्स का : सर्वहारा और संपत्ति विपरीत होते हुए भी अखंड संपूर्ण का निर्माण करते हैं. वे दोनों ही निजी पूँजी की दुनिया के अलग अलग रूप हैं—. तब सर्वहारा समाप्त होता है और उसके साथ ही उसे निर्धारित करने वाला उसका विपरीत, निजी पूँजी, भी खत्म हो जाती है.
अगर वस्तु की प्रकृति प्रधान पहलू से तय नहीं होती, जो इस प्रकरण में निजी पूँजी है, तो आप इसे निजी पूँजी की दुनिया क्यों कहते हैं? क्यों नहीं इसे ‘सर्वहारा की दुनिया’ कहते? विजयी सर्वहारा क्रांति के बाद पूँजीपति, वर्तमान शासक, शासित हो जाते हैं और सर्वहारा, वर्तमान  शासित, शासक बन जाता है. इन दो वर्गों की भूमिका के उलट जाने के अलावा इसे आप क्या कह सकते हैं?
मार्क्स ने सर्वहारा और पूँजीपति को एक खास अंतर्विरोध के संपूर्ण समाधान के संदर्भ में संरक्षणात्मक और विध्वंसक कहा था. लेकिन माओ ने सर्वहारा बनाम पूँजीपति के लिए ‘प्रधान’ और ‘गौण’ शब्दों का प्रयोग दोनों विरोधी पहलुओं की शक्ति में विकास की असमानता को दिखाने के लिए तथा इस अंतर्विरोध के अंतिम समाधान की समूची प्रक्रिया में वस्तु के चरित्रांकन के लिए किया था. और यहीं ‘प्रत्येक पहलू की शक्ति में बढ़ती और घटती’ का सवाल आता है. सर्वहारा और पूँजीपति के बीच का अंतर्विरोध अगर अंतिम तौर पर हल हो जाता है और दोनों पक्ष समाप्त हो जाते हैं, साम्यवादी समाज स्थापित हो जाता है तो प्रमुख पहलू के दूसरे द्वारा स्थान लेने का सवाल ही नहीं रह जाता. लेकिन हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस अंतर्विरोध के विभिन्न चरणों में विकास की प्रक्रिया को समझने का है. क्योंकि इसी बीच के समय में कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत पड़ती है और सर्वहारा की रणनीति और कार्यनीति को निर्देशित करने में द्वंद्ववाद की भूमिका को समझा जा सकता है.

संघर्ष के रूप और अंतर्विरोध को हल करने के तरीके

एम बी कहते हैं ‘बहरहाल अंतर्विरोध को उसके अंतर्निहित चरित्र के आधार पर नहीं बल्कि उसे हल करने के लिए जरूरी संघर्ष के रूप के आधार पर उसे शत्रुतापूर्ण अथवा गैरशत्रुतापूर्ण कहने की प्रवृत्ति आम है.’ उनकी नजर में यह गलत है.
यहाँ एक बात पर ध्यान देना जरूरी है कि एम बी ने अपने तर्क को सही साबित करने के लिए दुर्भावनापूर्वक माओ के वक्तव्य को तोड़ा मरोड़ा है. माओ कहते हैं ‘अंतर्विरोध और संघर्ष तो सार्वभौमिक और निरपेक्ष हैं लेकिन अंतर्विरोध को हल करने के तरीके, अर्थात संघर्ष के रूप, अंतर्विरोध की प्रकृति के अनुरूप अलग अलग हो जाते हैं.’ (एम बी द्वारा उद्धृत)
चलिए संघर्ष के रूपों और अंतर्विरोध को हल करने के तरीकों के बारे में एम बी के नुस्खे को देखते हैं. वे कहते हैं ‘—दूसरे शब्दों में अलग अलग तरह के, अर्थात शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण, अंतर्विरोधों को हल करने के लिए संघर्ष के अलग अलग रूपों का विचार ही गलत है. किसी भी सामाजिक अंतर्विरोध को हल करने के लिए, चाहे वह शत्रुतापूर्ण हो या गैरशत्रुतापूर्ण, संघर्ष के रूप ठोस स्थितियों पर निर्भर होते हैं.’ और तब वे माओ पर अंतर्विरोध की प्रकृति और उसे हल करने के तरीकों तथा संघर्ष के रूपों के बीच सीधा संबंध स्थापित करने का आरोप लगाते हैं.
पाठक को भ्रमित करने के लिए एम बी उद्धरणों का अंबार लगा देते हैं लेकिन अपने बेतुके सूत्रीकरण की बुनियाद नहीं बिठा पाते. उलटे उनके द्वारा ‘ए टेक्स्टबुक आफ़ मार्क्सिस्ट फ़िलासफ़ी’ से उद्धृत एक अंश उनके दावे को खंडित कर देता है. उसके मुताबिक ‘किसी भी वर्ग समाज में बुनियादी वर्गों का अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण होता है और शत्रुतापूर्ण रूप में ही उसे हल किया जाता है. (असल में एम बी ने इस उद्धरण में ’रूप’ शब्द का अर्थ गलत समझा)
बहरहाल हम एम बी के सूत्रीकरण पर विचार करेंगे क्योंकि लगता है वे इसके बारे में गंभीर हैं. वे जानते हैं कि शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों को बलपूर्वक हल किया जाता है और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों को शांतिपूर्वक. बहरहाल एम बी का कहना है कि अंतर्विरोधों की प्रकृति का कोई माने मतलब नहीं उसके हल करने का तरीका केवल ‘ठोस स्थितियों’ पर निर्भर है. उनके कहने का मतलब कि उत्पीड़क और उत्पीड़ित के बीच, साम्राज्यवाद और उपनिवेश के बीच, सामंती मालिक और किसान के बीच, सर्वहारा और पूँजीपति के बीच- सभी शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध शांतिपूर्वक हल किए जा सकते हैं अगर ठोस स्थितियाँ ऐसा करने की अनुमति दें. और तब वे ‘अंतर्विरोध संबंधी माओ के सूत्रीकरण से’ वर्ग संघर्ष पर पड़ने वाले ‘खतरनाक असर’ से हमें सावधान करते हैं.
गुप्त रूप से एम बी ख्रुश्चेव के सिद्धांत को सही ठहराने की दबी इच्छा जाहिर करते हैं. आखिरकार ख्रुश्चेव ने भी अपने संशोधनवादी कचरे को चलाने के लिए दूसरे विश्व युद्ध के बाद की ‘ठोस’ स्थितियों और शक्तिशाली समाजवादी खेमे की स्थापना के तर्क का ही सहारा लिया था और ऐसी तस्वीर पेश की थी मानो साम्राज्यवाद को रक्षात्मक और निष्क्रिय स्थिति में ढकेल दिया गया हो. मार्क्सवादी के लिए शांतिपूर्ण सत्ता दखल अपवाद ही है जो अब तक एक बार भी घटित नहीं हुआ है. और अगर ऐसा कभी हुआ भी तो यह शब्दशः ‘शांतिपूर्ण’ कभी नहीं होगा. अगर पूँजीवादी बिना वास्तविक प्रतिरोध के समर्पण करता है तो भी वह ऐच्छिक नहीं जबरिया ही होगा. इस समर्पण में उतनी ही अनिच्छा, हिचक और घृणा होगी जितनी युद्ध में समर्पण करते हुए सेना में होती है. ऐसा अक्सर अत्यंत बेढंगी स्थिति में फँस जाने पर होता है. सिर्फ़ अत्यंत अनुकूल शक्ति संतुलन (सैन्य बल समेत) ही सर्वहारा को वास्तविक युद्ध छेड़े बगैर राजसत्ता को दखल करने में सक्षम बना सकत

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