क्या घोटाले की भी किसी को ज़रूरत हो सकती है? घोटाला ज़रूरत की चीज़ है या लोभ से पैदा होता है? सामान्य अनुभव यही बताता है कि लोभी, लालची लोग घोटाला करते हैं. भ्रष्ट लोग घोटाला करते हैं. घोटाला भ्रष्टाचार है, व्यभिचार है. इसीलिए हम लोग घोटालेबाज़ों से घृणा करते हैं. उन्हें भ्रष्ट मानते हैं. यह बात हालांकि पूरी तरह सच नहीं है. खासकर जब हम बड़े घोटालों की बात करते हैं जिसमें सरकार, नेता, अफसर आदि फंसे होते हैं, तो यह बात तकरीबन गलत होती है. ऐसे मामलों में घोटाला ज़रूरत से पैदा होता है और घोटाले के बाद का विरोध, आंदोलन आदि उसी ज़रूरत को इच्छित परिणाम तक पहुंचाने में मदद भी करता है. इस बात को समझने के लिए हम कोयला घोटाले से शुरुआत करेंगे, कोयला घोटाले पर ही बात को खत्म करेंगे लेकिन डेढ़ साल पहले हुए 2जी घोटाले तक जाएंगे.
कोयला घोटाला अखबारों, टीवी के माध्यम से घर-घर तक पहुंच चुका है. हमें बताया गया है कि नीलामी की प्रक्रिया को अपनाए बगैर मनमाने ढंग से कोयला ब्लॉकों का आवंटन सरकार ने कंपनियों को कर दिया जिससे उसे 1.86 लाख करोड़ का नुकसान हुआ. देश के सबसे बड़े अकाउंटेंट यानी घोटाले को अपनी रिपोर्ट में सामने लाने वाली सरकारी एजेंसी कैग (महालेखा परीक्षक और नियंत्रक) की मानें तो आयातित कोयले का दाम रखने पर यह घोटाला 18 लाख करोड़ का बन जाता है. वैसे भी मौजूदा आंकड़े पर यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला माना जा रहा है. ज़ाहिर है, सबसे बड़े घोटाले का दाग भी सबसे बड़ा होगा. इस बात को समझना मुश्किल नहीं है क्योंकि अब तक बेदाग और ईमानदार दिखाए जाते रहे हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम इसमें सीधे तौर पर आया है जिनके पास 2006 से 2009 तक कोयला मंत्रालय रहा था यानी उसी अवधि के दौरान (2005-2009) जब विवादित कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए. पहली बार पूरा का पूरा संसद सत्र विपक्ष के विरोध की भेंट चढ़ गया. संसदीय कार्य मंत्री ने खुद माना कि संसद की कार्यवाही न होने से 128 करोड़ का नुकसान हुआ है. ज़ाहिर है, दो लाख करोड़ के आगे सवा सौ करोड़ के नुकसान की औकात कुछ भी नहीं, हालांकि कांग्रेस को इसकी बहुत चिंता है. इसी दौरान दो घटनाएं और हुई हैं जिन्हें पहली बार घटा कहा जा सकता है. वॉशिंगटन पोस्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बेकार प्रधानमंत्री बताया है और न्यूज़वीक ने उन्हें ‘अंडरअचीवर’ यानी खराब प्रदर्शन करने वाला घोषित कर दिया है. यानी घरेलू राजनीति से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक सब कोई मनमोहन सिंह को निशाना बनाए हुए है. इसका मतलब यह हुआ कि यूपीए सरकार में ‘ईमानदारी’ के आखिरी प्रतीक के भी दिन लद गए. राष्ट्रीय सरकार के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी गई.
सवाल उठता है कि क्या मनमोहन सिंह की इस देश को अब ज़रूरत नहीं रह गई? व्यक्ति के तौर पर उन्हें न लेते हुए उस अर्थशास्त्री और राजनेता के तौर पर उन्हें देखना ज़रूरी है जिसने सन बानवे में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को विदेशी कंपनियों के लिए खोला था. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के प्रणेता के रूप में मनमोहन सिंह को हमेशा भारत के आर्थिक इतिहास में नरसिंहराव के साथ याद किया जाएगा. आखिर मनमोहन सिंह अपनी बनाई नीति पर ही तो चल रहे थे. फिर गड़बड़ कहां हुई? सरकार के ही मंत्री चिंदबरम की मानें तो कोयला अब भी ज़मीन के भीतर है. पैसे की प्रत्यक्षतः कोई लूट तो हुई नहीं है. हां, ज़मीन बेच दी गई हैं लेकिन आवंटित खदानों के लाइसेंस को स्पेक्ट्रम की तरह रद्द कर के देश का खोया पैसा वापस पाया ही जा सकता है. इस मामले में 2जी घोटाले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला मिसाल माना जा सकता है. फिर आखिर कोयला घोटाले में ऐसा क्या है कि मनमोहन सिंह समेत पूरी कांग्रेस की हवा निकल गई है? ऐसी कौन सी चीज़ है जिसे पलट कर दुरुस्त नहीं किया जा सकता?
इसे समझने के लिए डेढ़ साल पीछे चलते हैं. 2जी घोटाले में याद करें कि जांच की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट को दी गई थी. उसी के निर्देश पर सीबीआई ने तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि की बिटिया कनिमोझी को जेल भेजा था. इनके साथ जेल जाने वाले कुछ दूरसंचार कंपनियों के आला अधिकारी भी थे. ऐसा पहली बार हुआ था, लेकिन चौंकाने वाली बात यह नहीं थी. पहली बार रतन टाटा और अनिल अम्बानी से छह-छह घंटा पूछताछ की गई, जिसके बाद रतन टाटा ने अपना ‘बनाना रिपब्लिक’ वाला मशहूर बयान दिया था. बस, गड़बड़ यहीं पर हो गई. जो सरकार, जो प्रधानमंत्री उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के सरमायेदारों की रखवाली करने के लिए कुर्सी पर बैठाया गया था उसके रहते देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों को पूछताछ के लिए तलब कर लिया गया और वह हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा. एक शेर शायद इसी वक्त के लिए कहा गया रहा होगा, ‘बाग़बां ने आग दी जब आशियाने को मेरे/जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे.’
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जिम्मेदारी अब सरकार पर मढ़ना जरूरी हो गया था. ध्यान रहे, सरकार यानी सत्तारूढ़ दल कांग्रेस. उसी दौरान कई अखबारों में निवेश का माहौल खराब होने की खबरें लगातार छपने लगीं. यह भी कहा गया कि सरकारी नीतियों का खामियाजा कॉरपोरेट अफसरों को भुगतना पड़ रहा है. इस दलील में यह बात छुपा ली गई कि जिन कंपनियों को लाइसेंस मिले थे, उन्हेंह प्रत्यक्षतः लाभ ही हुआ था. जल्दीबाजी में राजा और कनिमोझी को शिकार बनाया गया, लाइसेंस रद्द किए गए और अचानक लोकपाल बिल पास करवाने के लिए पूरे देश में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम अन्ना हजारे और उनके साथियों के नेतृत्व में शुरू हो गई. समूचे मीडिया ने इस आंदोलन को जयप्रकाश नारायण के बाद का सबसे बड़ा आंदोलन बताया और देश भर में कांग्रेस विरोधी माहौल बन गया, जिसकी झलक कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे में देखने को भी मिली. यह केंद्र की सरकार में बैठी पार्टी को भ्रष्ट बताने का पहला चरण था जो काफी हद तक सफल रहा. ध्यान रहे कि इस आंदोलन का समर्थन वाणिज्यिक चैम्बरों समेत टाटा, बजाज और कई उद्योगपतियों ने किया था.
बड़े मौके पर मार्च 2012 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने कोयला ब्लॉक आवंटन पर पहली बार कैग की मसविदा रिपोर्ट को उजागर कर के बताया कि सबसे बड़ा घोटाला देश में हो चुका है. अप्रैल में एक बार फिर आंदोलन की नई रणनीति तय हुई और कोयला घोटाला की परतें खुलने के समानांतर अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की गति तेज़ हुई. एक-एक भ्रष्ट मंत्रियों के फाइल टीम अन्ना ने तैयार किए. नौ दिन के अनशन के बाद नई पार्टी बनाने का एलान हुआ और अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो गया. इस बार मीडिया ने दिखाया कि भीड़ नहीं जुट रही है. ‘रामदेव आए, भीड़ लाए’ इत्यादि खबरें चलीं. अनशन खत्म होते ही टीम अन्ना ने नई चुनावी पार्टी बनाने का एलान कर दिया, लेकिन तत्काल बाद टीम अन्ना को भंग किए जाने, किरण बेदी से मतभेद और अंततः 8 सितंबर को अन्ना के आए बयान से स्थिति साफ हो गई जिसमें उन्होंने कह डाला कि नई पार्टी नहीं बनानी है, अच्छे उम्मीदवारों को जिताना है. नई पार्टी बनाना कांग्रेस विरोधी पार्टी के वोटों को काटना होता और इसके लिए आंदोलन खड़ा नहीं किया गया था, यह बात और स्पष्ट हो गई. आंदोलन का एजेंडा पूरा हो चुका था. सबकी फाइलें जनता के सामने थीं. मीडिया ने इस बार आंदोलन की कवरेज को डाउनप्ले कर के मध्यैवर्ग के दिमाग में पिछले साल पैदा किए गए हाइप को भी संतुलित कर दिया. ज़ाहिर है, 2011 में यह आंदोलन मोटे तौर पर मीडिया की ही निर्मिति था, लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि मीडिया ने तब और अब जो किया, दरअसल उसे वही करना था. यह तय था.
बहरहाल, सिर्फ एक फाइल बची रह गई थी जिसका इंतजार इस देश के उद्योगपतियों को डेढ़ साल से था. मनमोहन सिंह की फाइल. उसे बीजेपी के लिए टीम अन्ना ने छोड़ दिया था क्योंकि उससे बड़ा पॉलिटिकल माइलेज और कुछ नहीं हो सकता था. संसद का मानसून सत्र ठप कर के बीजेपी ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे को हवा दी और पिछले दो साल से चला आ रहा भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचार विरोध का पूरा नाटक अपने क्लाइमैक्स पर तब पहुंचा जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने मनमोहन सिंह को नाकारा ठहरा दिया. आखिरी सांसें गिन रही यूपीए सरकार एक अखबारी रपट से निपटने में जी जान से जुट गई, जो कि आम तौर पर दुर्लभ बात है.
सारे फसाने में जिसका जिक्र नहीं हुआ, वे कौन थे? ज़ाहिर है, वे बड़े उद्योगपति जो देश की आर्थिक नीतियों को तय करते हैं. एक पत्रिका में छपी खबर के मुताबिक सीबीआई के एक अधिकारी ने खुद माना है कि उन्हें बड़ी मछलियों को हाथ नहीं लगाने को कहा गया है. मझोले आकार की पांच कंपनियों पर सीबीआई ने एफआईआर दर्ज कर लिया है. नवीन जिंदल, सुबोधकांत सहाय, अजय संचेती, विजय दरदा के बीच सबसे सॉफ्ट टारगेट विजय दरदा के खिलाफ एफआईआर हुई है. राजेंद्र दरदा का मंत्री पद से इस्तीफा असन्न है. संभव है एकाध लोग जेल भी चले जाएं, लेकिन अंततः दोषी कौन साबित हुआ? सरकार और सरकार की नीति. वह प्रधानमंत्री, जिसने इन्हीं उद्योगपतियों के लिए नीति बनाई थी.
दोष तय होने के बाद अगला स्वा्भाविक एजेंडा क्या होना चाहिए? इकनॉमिक टाइम्स में 7 सितंबर को उदारीकरण के घनघोर समर्थक अर्थशास्त्री विवेक देबरॉय का लेख देखें जिसकी आखिरी पंक्ति कहती है कि राष्ट्रीयकरण के मॉडल को ‘रोलबैक’ कर दिया जाना चाहिए. इसके लिए ज़रूरी है कि राष्ट्रीय सरकार की आखिरी गुंजाइश को भी खत्म कर दिया जाए. इसके लिए ज़रूरी हो जाता है कि अगली बार केंद्र में कांग्रेस या मनमोहन सिंह न आने पाएं. विकल्प तैयार है. भ्रष्टाचार, उदारीकरण, लूट के उसी दलदल में सना सांप्रदायिक अंतरराष्ट्री य पूंजी की पैदाइश दूसरा सुपुत्र बीजेपी, जिसके बहुप्रचारित नरेंद्रभाई मोदी ने मारुति को ‘माओवादी मजदूरों’ से और टाटा को ‘माओवादी किसानों’ से बचा लिया है.
कुछ दिनों पहले अमेरिका में भारत की राजदूत निरुपमा राव ने झटके में एक बयान दे डाला था कि दुनिया भर से जितनी पूंजी भारत में आ रही है, उससे कहीं ज्यादा भारत से बाकी दुनिया में जा रही है. इसका अर्थ अब समझ में आता है. इसका अर्थ यह हुआ कि भारत की पूंजी वैश्विक पूंजी से सौ फीसदी हिलमिल चुकी है. जब पूंजी और पूंजीपति का वर्ग चरित्र राष्ट्रीय नहीं रह गया, तो सरकारों का चरित्र राष्ट्रीय बनाए रखना खतरे से खाली नहीं होगा. एक भी ऐसा व्यक्ति जो अंतरराष्ट्रीय पूंजी के रखवालों की हिफाज़त ना कर सके, यदि वह सरकार में रहा तो ‘निवेश का माहौल’ प्रभावित होगा. इस देश में हर अगली आने वाली सत्ता का मूल मंत्र यही है. इस लिहाज से कोयला घोटाले और 2जी घोटाले ने अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ मिलकर दो महत्वपूर्ण काम किए हैं. पहला, इसने जनता के मानस में किसी राष्ट्रीय सरकार, उसकी बनाई नीति, राष्ट्रीयकृत संसाधन आदि की अवधारणा के खिलाफ एक माहौल तैयार किया है. ठीक इसी के बरक्स इन्होंने विशाल पूंजीपतियों को लूट से ज़मानत दे दी है जिसका मध्यवर्गीय तर्क यह है कि जब सरकार की नीति ही गड़बड़ है, तो पूंजीपति को क्या दिक्कत (वो तो मुनाफा कमाने आया ही है). इस तरह अब एक बात तय हो गई है कि कोई बड़ा उद्योगपति सींखचों के पीछे नहीं जाएगा. उससे कोई पूछताछ नहीं होगी. ठीकरा जरूर फूटेगा, लेकिन उनके सिर जो इस वैश्विक खेल में अदने खिलाड़ी हैं.
कोयला घोटाले पर लिखी अंतिम राजनीतिक इबारत भी पढ़ लें. कांग्रेस के रहने या न रहने से अंतरराष्ट्रीय पूंजी की सेहत पर तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता जब तक निवेश का माहौल सुरक्षित है. चूंकि मनमोहन सिंह में ‘पीएम मैटीरियल’ (सुशील मोदी से शब्द उधार लेकर, जो उन्होंने नरेंद्र मोदी के लिए कहे थे) अपेक्षित नहीं था, और अब यह साबित हो गया है, लिहाजा उन्हें जाना होगा. अगले चुनावों में अगर नरेंद्र मोदी का नाम सेकुलरवाद के नाम पर वाम ताकतों, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी आदि को फिर से एक कर देता है और मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस के पक्ष में हो जाता है (जो एक संभावना है), तो भी बगैर मनमोहन सिंह के केंद्र में कांग्रेस चलेगी. अंतरराष्ट्रीय पूंजी के हितों के लिए सबसे सुरक्षित रास्ता यह होगा कि मोदी का नाम प्रधानमंत्री के तौर पर घोषित न करके उनके बरक्स अब उदार छवि के स्वातमी बन चुके लालकृष्ण आडवाणी को (जो अटल बिहारी वाजपेयी के बरक्स कट्टर छवि के थे इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बन पाए) अंतिम बार आज़माया जाए. वरिष्ठता का तकाज़ा, लंबा इंतज़ार (पीएम इन वेटिंग का दर्द), पिछले लंबे समय से विवादमुक्त रहने का कौशल और संसद ठप करने के रणनीतिकार होने के तौर पर (यह योजना आडवाणी के घर पर ही बनी थी) वे प्रधानमंत्री पद के सर्वस्वीकार्य उम्मीदवार होंगे (इसीलिए ऐन इसी वक्त नरोदा पाटिया पर आया फैसला एक संदेश लिए हुए है मोदी के लिए).
राष्ट्रीय राजनीति से इतर कोयला घोटालेने तीन इबारतें और लिखी हैं. इन्हेंप पढ़ना होगा. पहली, अन्ना के आंदोलन की ज़रूरत अब खत्म हो चुकी हैं. अगर फिर से पड़ी भी, तो अपने सीमित दायरे में मध्यवर्ग को लक्षित कर के वह कुछ समय के लिए हो सकता है उभर जाए. दूसरी बात, कोयला घोटाले या किसी और मामले में मीडिया वही करेगा जो पूंजी के हित होगा (ध्यान रहे कि मुकेश अम्बानी का 23 चैनलों में पैसा लगा है), इसलिए उससे नाहक अपेक्षाएं पालने का कोई मतलब नहीं है. तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आने वाला वक्तग इस देश के आम लोगों यानी किसानों, मजदूरों, असंगठित क्षेत्र के कर्मियों के लिए पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल साबित होने जा रहा है. तेल और सिलिंडर के दाम बढ़ने की खबरें आ चुकी हैं. असम के निचले इलाकों में ‘अवैध बांग्लादेशी’ के बोडो नारे को राष्ट्रीय बनाया जा चुका है जिसकी आंच मुंबई और बेंगलुरु में हमने देख ही ली है. पाकिस्तान से ‘हिंदुओं के पलायन’ का मामला इसी दौरान जिस तरह से अतिरंजित किया गया, यह सब मिलकर बीजेपी के उभार के लिए सामाजिक पृष्ठभूमि का काम करेगा. और चूंकि नए दौर की यह सांप्रदायिकता वैश्विक पूंजी की पीठ पर सवार होकर आ रही है (और 1999 के मुकाबले इस बार कहीं ज्याकदा कमर कस कर आ रही है), इसलिए उन इलाकों में नई कब्रगाहें भी खोदी जाएंगी जहां-जहां जमीन के भीतर पूंजी की संभावनाएं हैं. याद करते चलें कि नवीन जिंदल जिस 1500 मिलियन मीट्रिक टन खदान के अवैध आवंटन में फंसे हैं, यह ओडिशा के अंगुल वाली वही ज़मीन है जहां जनवरी में जिंदल स्टील प्लांट का विरोध कर रहे किसानों का खून जिंदल के गुंडों और स्थानीय पुलिस ने मिलकर बहाया था.
यह तीसरी इबारत जरा विस्तार की मांग करती है. कोयला घोटाले वाला कोयला अभी खोदा नहीं गया है. किसी भी आवंटी पर पैसे कमाने का आरोप नहीं है. सरकार की ओर से नीलामी प्रक्रिया वाली बात को छोड़ दें, तो कंपनियों पर कुल जमा सवाल यह है कि जिन सरकारी/निजी कंपनियों को ब्लॉक दिए गए, उन्होंने वहां अब तक खनन क्यों नहीं किया. ज़ाहिर है, कोई भी आवंटी प्रत्यक्षतः यह तो नहीं कहेगा कि उसने ब्लॉक इसलिए खरीदा था कि उसे बाद में भारी दाम पर बेच दे. तो खनन न कर पाने की संभावित आसान वजहें क्या गिनाई जा सकती हैं? बिल्कुल वही वजह जो इन्हीं खनिज संपन्न इलाकों में लंबे अरसे से स्टील प्लांट आदि शुरू करने में देरी के लिए गिनाई जाती रही है- स्थानीय लोगों का विरोध. अब ज़रा सरकार की तर्क पद्धति भी देख लें. विरोध कहां हो रहा है? खनिज संपन्न इलाकों में, यानी झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र से लगे मध्यप्रदेश के इलाकों में, इत्यादि. लब्बोलुआब ये कि जहां खदानें हैं, वहां विरोध है. विरोध करने वाले कौन हैं? आदिवासी. और आदिवासी क्या होता है? माओवादी. चिंदबरम साहब का ‘बक’ यहीं पर ‘स्टॉप’ हो जाएगा (द बक स्टॉप्स हियर). यह तर्क पद्धति पिछले कुछ साल से इस देश की तमाम सरकारें अपनाती आ रही हैं. अब कम से कम शहरी मध्यवर्ग में तो यह बात स्थापित की जा चुकी है कि आदिवासी और माओवादी एक-दूसरे का पर्याय हैं. तो फैसला यह हुआ कि नीति के स्तर पर सरकार दोषी है और खनन में देरी के लिए माओवादी. एक बार फिर देखिए कि किस तरह कॉरपोरेट को पूरे मामले में ज़मानत मिल रही है.
यह अनायास नहीं है. इसके पीछे की कहानी तक सिर्फ एक सिरा पकड़ कर पहुंचा जा सकता है. इस देश में खनन और स्टील प्लांट लगाने के लिए कुख्यात कंपनी वेदांता से हमारे पूर्व गृह मंत्री चिदंबरम कभी लाखों रुपए तनख्वाह लिया करते थे. ये वही दौर था जब खनन कंपनियां इस देश के सत्ता प्रतिष्ठान में घुसने की पुरज़ोर कोशिश कर रही थीं. वित्त मंत्रालय में भी वे वेदांता के लिए ही काम करते हैं. पिछले दिनों वेदांता द्वारा सेसा गोवा के अधिग्रहण में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई थी. विडम्बना देखिए कि दो बार देश का ग्रिड इस गर्मी में फेल करने के जिम्मेदार सुशील कुमार शिंदे आज गृह मंत्रालय के मुखिया हैं. इस गर्मी में बिजली इसलिए जाती रही क्योंकि पर्याप्त कोयला नहीं था और कोयला इसलिए नहीं था क्योंकि कोयला खदानों वाले इलाके में माओवादी थे. मतलब बिजली और कोयले का मामला सीधे तौर पर आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था से जाकर जुड़ता है. तो जो शख्स इस देश को बिजली नहीं दे पाया, वह दरअसल उसी का इंतज़ाम करने गृह मंत्रालय में आया है. उस इंतज़ाम के लिए जो भी पैसा चाहिए, उसके लिए वित्त मंत्री चिदंबरम मौजूद हैं ही. कोयला कांड के बाद और 2014 में लोकसभा चुनाव के पहले तक यह जुगलबंदी कई रंग दिखाएगी. कोयला कांड के बाद इनके हाथ अलबत्ता और खुल गए हैं क्योंकि इन्हें बांधने वाला कैबिनेट का मुखिया कमज़ोर हो चुका है. या कहें लोगों की नज़र में उसकी छवि दागदार बना दी गई है.
कोयला घोटाला भले देश का सबसे बड़ा घोटाला हो, लेकिन उसकी इस देश-दुनिया के पूंजीपतियों को सख्त जरूरत थी. लूट-खसोट और गरीब-गुरबों की हत्या के अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट में तेजी लाने के लिए पैदा की गई यह महान जरूरत कौन सी राजनीतिक शक्ल लेगी, यह 2014 में ही सामने आएगा. लेकिन फिलहाल इस कोयले ने राडिया कांड और उत्तर 2जी काल में गंदी हो चुकी सफेद कॉरपोरेट कॉलर को फिर से चमका दिया है. अब कालिख उन पर है जिन्हें जनता ने चुना है. ज़ाहिर है, एक नई जरूरत अब जनता को यह बताए जाने की आन पड़ी है कि उसे कैसे लोगों को चुनना है. इसके लिए खुद जनता की सफाई भी जरूरी है. अन्ना हज़ारे इस काम को करने के लिए पहले से तैयार बैठे हैं (8 सितंबर का बयान देखें).
सब कुछ योजना के मुताबिक ठीक चल रहा है. यह एक विशाल सफाई अभियान है. पूंजी को न स्पीड ब्रेकर मंज़ूर हैं, न गंदगी. यह कोयला घोटाला नहीं, वास्तव में ‘कोलगेट’ है जो दिखाने के दांतों को चमकाएगा और खाने के दांतों को और पैना करेगा. इसे कोयला समझने की भूल मत करिएगा. यह ऑक्सीजन है जो भारत के नंगे, बेशर्म और लुटेरे पूंजीवाद में नई जान फूंकेगा.