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एफ़ वन कार रेसः इतिहास कौन रच रहा है…?

Nov 16, 2011 | Panini Anand

दिल्ली से सटे नोएडा में एफ वन कार रेस का नशा उतर ही नहीं रहा है. बार-बार पुनरावृत्ति इसी बात की कि देश ने इतिहास रच दिया. अब तक केवल खेल के चैनलों पर देखते थे, अबकी बार हूबहू अपनी आंखों से देखा. देश के हर कोने में बैठा अभिजात्य इसकी तारीफ करता नहीं थक रहा. अपने देश के फिसड्डी भी खेल के बाज़ीगर की तरह पेश किए जा रहे हैं.

 
सोचिए, कैसा लगता है जब खेतों तक जाने का रास्ता न दे पाने वाला देश खेतों को रौंदकर तैयार किए गए ट्रैक्स पर फर्रांटा रेस देखता है. अब लोग इसे मेरे विकास विरोधी होने का उदाहरण कहेंगे, कुछ कहेंगे कि कुछ लोगों को हर अच्छी चीज़ पर रोने की आदत होती है और कुछ कहेंगे कि चलिए, ऐसा देश बनाएं जहाँ विकास के और रास्ते भी बनें और फर्राटा रेस के भी.
 
इनकी नस्लों की पहचान स्वार्थी और लंपट लोलूप मध्य वर्ग, पूंजीवाद में गहरी आस्था रखनेवाले अपार्चुनिस्ट, फासीवादी शैली के राष्ट्रवादी और एनजीओवादी या तू भी रह, मैं भी रहूं के पेज-थ्री लोगों के तौर पर की जा सकती है. ऐसा ये इसलिए भी कहेंगे क्योंकि एफ वन के टिकट या पास के लिए ऐसे कई लोगों को गिड़गिड़ाते, मिनमिनाते भी देखा और जुगाड़ खोजते भी. बहरहाल, इनके बारे में ज़्यादा बात नहीं. अभी बात इतिहास बनाने की.
 
इस रेस से ठीक पहले दो बातें ऐसी हैं जिनकी ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा. पहली यह कि मानव विकास रिपोर्ट ने देश में समेकित विकास की जो कलई खोली है, उसे किसी (खासकर हिंदी के समाचार पत्र व चैनल) मुख्यधारा के समाचार चैनल या अखबार ने उस तरह से प्रस्तुत नहीं किया जैसा कि किया जाना था. ऐसा नहीं है कि कवर नहीं हुआ पर अपनी अपनी सोच, एजेंडे के मुताबिक. इस रिपोर्ट में कुछ आंकड़ों के बारे में अपनी अपनी व्याख्याएं भी दी गईं. इन व्याख्याओं में सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही तरह के सामाजिक परिवर्तनों की चर्चा हुई. विकास के भेदभावपूर्ण सच को भी सामने लाया गया. कई अहम पहलुओं को गोल भी कर दिया गया और निहायत सरकारी व्याख्याएं भी छपीं.
 
इसको अभी कुछ दिन ही बीते थे कि द हिंदू अखबार में पी साइनाथ की रिपोर्ट छपी.- देश में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा पिछले 16 डेढ़ दशक में ढाई लाख की संख्या को लांघ गया है. यह आंकड़ा सरकारी रिपोर्ट पर आधारित था. चिंताजनक यह है कि हममें से किसी को (सिवाय साइनाथ के) यह रिपोर्ट नहीं दिखी और दिखी भी तो तब जब साइनाथ ने इस तथ्य को उजागर किया.
 
इस रिपोर्ट में आत्महत्याओं के और भी कई पहलू हैं. इनकी पड़ताल करने के लिए भी न तो समाचार चैनलों के पास वक्त है और न ही धैर्य. जो मर गया, उसकी भला क्या बात करें. जो है, उसे देखो और मज़ा लो. नश्वर जगत में कहाँ कौन सदा टिका है. किसान मरा तो क्या, एफ वन ट्रैक लाइव है. देखो, वहां कोई एक्सीडेंट होता है या नहीं. होगा तो कार कितने गुलाटे खाएगी. कितनी बार झपकेगी पलक जब कार एक कोने से दूसरे कोने पहुंच चुकी होगी.
 
हम सब इस बात को सुन चुके हैं और सहमत भी हैं कि इतिहास गरीबों, शोषितों का नहीं होता. पर कबतक इतिहास के इसी स्वभाव के साथ हम जीना चाहते हैं. केवल इस पंक्ति को उचारिए और इतिहास बनने की उन्हीं आर्हताओं पर विश्वास करते चलिए जो कि पारंपरिक हैं और वर्ग विशेष के प्रति किंकर्तव्यविमूढ़ हैं.
 
ऐसे इतिहास को मैं लानत भेजता हूं. जिसने किसान को मौतों के शर्मनाक इतिहास से नज़र चुरा ली है और एफ वन के लिए आंखें मटकाता धूम रहा है. ऐसे इतिहास को मैं लानत भेजता हूं जो असली, चुनौतीपूर्ण और बहुमत से जुड़े सच को नकारता हुआ आगे बढ़ रहा है.
 
मैं खोद देना चाहता हूं आत्महत्या कर चुके किसानों के हलों से उस ट्रैक को जिसपर भारत के अभिजात्य ने, अमीर ने और उसके द्वारा वित्तपोषित मीडिया ने इतिहास लिखा है. मैं तो़ड़ता हूं उन घुघरुओं को जो ज़मीदार की बेटी के बियाहे पर गांव भर पैर में बांधकर नाचता फिरता है. वही ज़मीदार जो शामियाने के भीतर आने की कोशिश में लगे गंदे मैले कुचैलों के लिए लठैत तैनात करता है और जिसने गांवभर का दबाकर शोषण किया है.
 
ये कहानियां बदली नहीं हैं. केवल पात्र बदल गए हैं. पोशाकें बदली हैं और शामियाने का डिज़ाइन, पैटर्न.

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