Skip to content
Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Primary Menu Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us
  • Featured

ऊर्जा की राष्ट्रीय हवस के शिकार होते आमजन

Sep 15, 2012 | रोहित जोशी

चलिए हम आंख मूंदकर मान लेते हैं कि अबके उत्तरकाशी में और पिछले कुछ सालों से पूरे उत्तराखंड में लगातार प्राकृतिक आपदाओं ने जिस तरह जानलेवा होकर कहर बरपाया है, इनमें प्रदेश में जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बेतहाशा बनाई जा रही झीलों का कोई योगदान नहीं है. लेकिन जिस गति से पूरे प्रदेश में जलविद्युत परियोजनाएं और इनके लिए झीलें बनाई जा रही हैं इसी गति से प्राकृतिक आपदाएं भी साल दर साल खतरनाक होती जा रही हैं. ऐसे में इनके प्रभाव से हम कब तक आंखें मूंदे रह पाऐंगे?

 
पिछले दिनों उत्तरकाशी से ऊपर के इलाके में बादल फटने से भागीरथी और असीगंगा का जलस्तर पांच मीटर बढ़ गया और इससे पूरे उत्तरकाशी में भयंकर तबाही हुई. इसमें 300 से अधिक घर तबाह हो गए, 31 लोग मारे गए. 7 मोटरपुल ध्वस्त हो गए. ज्योश्याड़ा का महत्वपूर्ण झूला पुल भी टूट गया. 30 किमी की मुख्य सड़क पूरी तरह टूट गई. बाजार, पुलिस स्टेशन, फारेस्ट का फायर स्टेशन सब तबाह हो गया. मनेरी भाली परियोजना के फेज 2 में नदी के साथ बह कर आई लकडि़यों का झुण्ड भर गया जिससे परियोजना भी ठप पड़ गई. इसके बाद तो पूरे प्रदेश की सारी परियोजनाओं को एक दिन के लिए बंद कर देना पड़ा था.
 
पहाड़ में अब ये कोई नई बात नहीं रही. पिछले सालों में पूरे प्रदेश में बादल फटने की घटनाओं और इससे हुई तबाही में इस कदर बढ़ोत्तरी हुई है कि बरसात का मौसम पहाड़ों में दहशत का मौसम लगने लगा है. पूरे प्रदेश में ऐसा कोई जिला नहीं बच रहा है जहां इस मौसम में कोई बड़ी तबाही ना आई हो.
 
बादल फटना और भूस्खलन आदि बेशक अप्राकृतिक नहीं हैं. लेकिन जिस तरह पिछले समय में इन प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी हुई है यह सिर्फ प्राकृतिक नहीं है. दुर्लभ मानी जाने वाली बादल फटने की घटनाऐं, तबाही के वीभत्स मंजर के साथ इतनी आम हो चलीं हैं कि इसकी वजहों की पड़ताल की ही जानी चाहिए. बेशक मानावीय दखल ने ही इन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ाया है. कई हजार सालों से सिर्फ बहते रहने की अभ्यस्त हिमालयी नदियों को जगह-जगह जबरन रोक कर जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जब झीलें बना दी गई हों तो यहां के भूगोल और मौसम की ओर से कुछ प्रतिक्रियाएं तो स्वाभाविक ही हैं. तो हम ये क्यों ना मान पाएं कि प्रदेश भर में बादल फटने की बढ़ी घटनाओं और इनसे हुई तबाही के पीछे इन जलविद्युत परियोजनाओं का भी बड़ा हाथ है. 
 
बरसात और बरसात के बढ़कर ‘बादल फट’ जाने की स्थिति पैदा हो जाने को समझना राॅकेट साइंस की तरह जटिल नहीं है. हम बहुत शुरूआती कक्षाओं में विज्ञान की किताबों से इसे समझ सकते हैं. पानी के वाष्पन से बादल बनता है और फिर ये बादल बरस जाता है. यही बरसात है. और पहाड़ों में बादलों का भारी मात्रा में एक जगह जमा हो कर एक निश्चित इलाके में बेतहाशा बरसना बादल का फटना है. चंद मिनटों में ही 2 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है. बादल फटने की घटना पृथ्वी से तकरीबन 15 किमी की ऊंचाई पर होती है. भारी नमी से लदी हवा पहाडि़यों से टकराती है इससे बादल एक क्षेत्र विशेष में घिरकर भारी मात्रा में बरस जाते हैं. यही बादल का फटना है. क्या पहाड़ में अप्रत्याशित रूप से बादल फटने की बढ़ी घटनाओं में पिछले समय में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बनाई कई कृत्रिम झीलों से हुए वाष्पन और इससे पर्यावरण में आई कृत्रिम नमी का कोई योगदान नहीं समझ आता?
 
पिछले महीने, मैं उत्तरकाशी और टिहरी जिलों में घूम रहा था. ‘न्यू टिहरी शहर’, एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक शहर ‘टिहरी’ को डुबोकर तैयार की गई कंक्रीट की घिच-पिच. न्यू टिहरी में जाकर समझ आता है कि- एक शहर सिर्फ इमारतों का जखीरा भर नहीं होता, ‘कुछ और’ होता है जो उसे जिंदादिल शहर बनाता है. टिहरी झील ने इस ‘कुछ और’ को डुबो दिया है. और पुरानी टिहरी का जो कुछ बच रहा है वे न्यू टिहरी की बचकानी इमारतों के भीतर कसमसाता हुआ दम तोड़ रहा है. एक ग्रामीण कस्बाई शहर या गांव को उठाकर दूसरी जगह रख देना किसी मैट्रोपोलिटन शहर में एक फ्लैट या अपार्टमैंट से दूसरे में शिफ्ट कर जाने सरीखी सामान्य घटना नहीं है. शहर/गांव को उठाने की कोशिश में उसकी चासनी वहीं निथर जाती है और नई जगह रसहीन लोथड़ा ही पहुंच पाता है. न्यू टिहरी ऐसा ही सूखा शहर है. 
 
न्यू टिहरी में बरसात बहुत है. पुराने लोग बताते हैं कि जब टिहरी शहर था, वहां झील नहीं थी, तो इस झील के बगल की पहाड़ी में, जहां अब न्यू टिहरी शहर बना दिया गया है, बरसात बहुत कम होती थी. लेकिन 40 किमी की झील के बनने के बाद वहां इससे हुए वाष्पन से बादल बनता है और बहुत बरसात होती है. इस घटना को स्थानीय बोलचाल में ‘लोकल मानसून’ का उठना कहते हैं. यूं ही ढेर सारी प्राकृतिक झीलों वाले जिले नैनीताल में भी इसी तरह ‘लोकल मानसून’ से बारिश बहुत होती है. बेशक झीलों का पहाड़ों में बरसात को लेकर अपना रोल है. प्राकृतिक झीलों का तो अपना व्यवहार है, जो अक्सर संतुलित रहता है. लेकिन कृतिम झीलों के साथ प्रकृति अपना व्यवहार संतुलित नहीं बना पा रही है. इसका प्रतिफल बादल फटने और बादल फटने से हुए भूस्खलनों के रूप में दिखता है जिससे हर साल भीषण तबाही हो रही है. हिमालय दुनिया के सबसे ताजा पहाड़ों में है जिसकी चट्टानें अभी मजबूत नहीं हैं. एक तो यह वजह है और दूसरी वजह, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए टनल निर्माण में पहाड़ों को विस्फोटकों के प्रयोग से जिस तरह खोखला और कमजोर कर दिया गया है, इन दो वजहों से ना सिर्फ बादल फटने बल्कि सामान्य बरसात में भी भूस्खलन त्रासदी बन रहा है.
 
टिहरी जैसे दानवाकार बांध के साथ ही पूरे प्रदेश की 17 नदियों में तकरीबन 558 बांध प्रस्तावित हैं. इनमें से कुछ बन भी चुके हैं और कुछ निर्माणाधीन हैं. ये बांध अक्सर बड़े बांधों के निर्धारित मानक में ही आते हैं. इन बांधों के लिए पहाड़ों को खोखला कर 1500 किमी की सुरंगें बनाई जाएंगी. इन सुरंगों को बनाने में विस्फोटकों का प्रयोग होगा और इससे पहाड़ जितने कमजोर होंगे, सो अलग. 
 
जिस उत्तरकाशी में आज बादल फटने से भागीरथी उफान में आ गई है यहां मनेरी भाली बांध परियोजना (फेज-1 और फेज-2) की दो झीलें हैं (एक तो बिल्कुल शहर में और दूसरी इसी नदी में शहर से कुछ ऊपर). इसी नदी के सहारे आप तकरीबन 25-30 किमी नीचे उतरें तो चिन्यालीसौड़ में ‘विकास की महान प्रतीक’, 40 किमी लम्बी ‘टिहरी झील’ भी शुरू हो जाती है. स्थानीय लोगों के अनुसार पिछले समय में इस पूरे इलाके में बरसात काफी बढ़ी है. और ऐसे ही अनुभव हर उस इलाके के हैं जहां विद्युत परियोजनाओं के लिए कृत्रिम झीलें बनाई गई हैं.
 
चलिए हम एक बार फिर आंख मूंद लेते हैं, और मानने की कोशिश करते हैं कि अब तक जो प्राकृतिक आपदाऐं हुई हैं ये अपने सहज स्वरूप में ही हुई हैं और इसमें ‘मानवीय हस्तक्षेप’ का कोई हाथ नहीं है. लेकिन तो भी क्या भविष्य में बनने वाली 558 जल विद्युत परियोजनाओं की झीलें, हमारी उपरोक्त आशंकाओं पर हमें सोचने को मजबूर नहीं करती हैं? और यदि इस आशंका पर सोचना होगा तो स्वाभाविक ही इस बात पर भी सोचना होगा कि इन खतरनाक परियोजनाओं के लिए लालायित सरकारों और बांध बनाने वाली कंपनियों के वे कौन से हित हैं जो पहाड़ी समाज को इन तबाहियों में धकेलने को प्रेरित कर रहे हैं.  
 
 
पिछले दौर में पर्यावरण को लेकर वैश्विक स्तर पर चिंताएं बढ़ी हैं और अंतराष्ट्रीय संगठनों के विविध सम्मेलनों में पर्यावरणीय चिंताएं ही केंद्र में रही हैं. इन सम्मेलनों में मुख्य फोकस अलग-अलग देशों द्वारा  CO2  और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने को लेकर दबाव बनाने का रहा है. खासकर कम औद्यौगीकृत और विकासशील, तीसरी दुनिया के देशों पर यह दबाव ज्यादा है. क्योंकि ये देश इन गैसों का उत्सर्जन अपने औद्यौगिक विकासरत् होने के चलते अधिक करते हैं. इन्हीं देशों के क्रम में भारत भी है. भारत सबसे अधिक CO2 उत्सर्जित करने वाले देशों में पांचवे स्थान पर है और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में यह स्थान सातवां है.
 
जल विद्युत परियोजनाओं के बारे में माना जाता है कि इसमें कार्बन का उत्सर्जन कम होता है और प्राकृतिक जलचक्र के चलते पानी की बरबादी किए बगैर ही इससे विद्युत ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है. वहीं कोयले या अन्य ईधनों से प्राप्त ऊर्जा में मूल प्राकृतिक संसाधन बरबाद हो जाता है और कार्बन का उत्सर्जन भी अधिक होता है. इस कारण विश्व भर में पर्यावरणविद् ऊर्जा प्राप्त करने की सारी ही तकनीकों में से हाइड्रो पावर की वकालत करते हैं. यही कारण है कि भारत भी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर  CO2 और ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित करने के मामले अपनी साख सुधारने के लिए हाइड्रो पावर की ओर खासा ध्यान दे रहा है. पिछले समय में ऊर्जा आपूर्ति की कमी ही भारत की विकासदर को तेजी से बढ़ाने के लिए सबसे बढ़ी रूकावट रही है. एक अनुमान के अनुसार पिछले दो दशकों में भारत की ऊर्जा जरूरत 350 प्रतिशत बढ़ी है. इसका मतलब यह है कि भारत को अपनी ऊर्जा उत्पादन की वर्तमान क्षमता से तीन गुना अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है. सवाल यह है कि यह कहां से पूरी होगी? जब्कि यह आवश्यकता यहीं पर स्थिर नहीं है बल्कि लगातार बढ़ती जा रही है. 
 
खैर! अंतर्राष्ट्रीय दबाव में भारत का फोकस अभी कार्बन का उत्सर्जन कम कर अधिकतम ऊर्जा प्राप्त कर लेने में है और इसके लिए हाइड्रो पावर परियोजनाएं ही मुफीद हैं. यही राष्ट्रहित में है. हमारे देश में नीतियों के स्तर पर यह कितना त्रासद है कि हमारा ‘राष्ट्रहित‘ जनता के हित से मेल नहीं खाता जब्कि  कॉरपोरट के हित ‘राष्ट्रहितों’ से एकदम मिलते हैं. ऐसा लगता है जैसे  कॉरपोरट हित ही राष्ट्रहित है और इसके लिए जनहितों की कुरबानी एक व्यवस्थागत् सत्य. इसलिए नदियों के जलागम में बसे समाजों की ओर से जबरदस्त प्रतिरोध का दमन करते हुए सरकारें देश भर की नदियों को बांध-बांध कर बांध परियोजनाऐं बनाती जा रही हैं. कार्बन के उत्सर्जन मामले में यह हाइड्रोपावर परियोजनाएं चाहे पर्यावरण पक्षधर दिखती हों लेकिन अनुभव और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए कई सर्वेक्षण बताते हैं कि इन बांध परियोजनाओं ने किस तरह से मानवीय त्रासदियों को तो जन्म दिया ही है साथ ही प्रकृति के साथ भी बड़ी छेड़छाड़ की है. इससे मानव सभ्यता के इतिहास में अहम रही कई नदियों के जलागम, पर्यावरण और जैवविविधताओं पर भी गहरा असर पड़ा है. इन नदियों के किनारे बसा इन्हीं पर निर्भर समाज भी अपने पूरे अस्तित्व के साथ संकट में घिर गया है. वल्र्ड कमिशन ऑफ डैम्स (डब्लु सी डी) की एक रिपोर्ट कहती है कि बांध जरूर कुछ ‘‘वास्तविक लाभ’’ तो देते हैं लेकिन समग्रता में इन बांधों के नकारात्मक प्रभाव ज्यादा हैं जो कि नदी के स्वास्थ, प्रकृति, पर्यावरण और लोगों के जीवन को बुरी प्रभावित करते हैं. इसी से प्रभावित करोड़ों लोगों की पीड़ा और तबाही के प्रतिरोध में बांधों के खिलाफ दुनिया भर में आंदोलन उभरे हैं. भारत में भी यह प्रतिरोध भारी है. खासकर पूरे हिमालय में जम्मू कश्मीर से लेकर उत्तरपूर्व तक जनता इन बांधों के खिलाफ आंदोलित है. सरकारी दमन चक्र, प्रतिरोध की तीक्ष्णता के आधार पर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तीव्रता से दमन चलाए हुए है. फिर भी अपने अस्तित्वसंकट से जूझ रही जनता का आंदोलन अनवरत जारी है. 
 
सरकार द्वारा भारत में बांध परियोजनाओं को महत्ता देने की उपरोक्त वजह के अलावा पावर प्रोजेक्टों का बेहिसाब मुनाफा वह दूसरी महत्वपूर्ण वजह है जिसके लिए पहाड़ी/प्रभावित समाज की अनदेखी कर सरकारें और बांध बनाने वाली कंपनियां बांधों को लेकर इतनी लालायित हैं. विद्युत ऊर्जा की मांग असीम है और पूर्ति सीमित. मांग और पूर्ति के सिद्धांत के अनुसार विद्युत ऊर्जा की मांग अधिक और पूर्ति कम होने के चलते इसका मूल्य अधिक है. और यह स्थिति स्थाई भी है. ऐसा कभी नहीं होने जा रहा कि विद्युत ऊर्जा की पूर्ति ज्यादा हो जाए और मांग कम रहे. यानि विद्युत उत्पादन उद्योग में निवेश बाजार की स्थितियों के अनुरूप बिना किसी जोखिम के मुनाफे का सौदा है. यही वजह है कि कंपनियां इसमें निवेश को लालायित हैं और दलाल सरकारें उन्हें भरपूर मदद पहुंचा रही हैं.
 
भारत में शुरूआती दौर में बनी बांध परियोजनाओं का उद्देश्य सिर्फ विद्युत उत्पादन नहीं था. यह बहुउद्देश्यीय नदी घाटी परियोजनाएं थी. जिनका मकसद नदी के समग्र जलागम को, बाढ़ से बचाव, सिंचाई, मत्स्य पालन और जल पर्यटन आदि के लिए विकसित करना हुआ करता था. विद्युत उत्पादन इसका महज एक हिस्सा था. लेकिन पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में उदारीकरण के बाद से जिस तरह सभी क्षेत्रों में जनकल्याण की जगह मुनाफाखोरी ने ले ली है उसी तरह बांध परियोजनाएं भी इसकी ही भेंट चढ़ गई हैं. विद्युत उत्पादन ही बांध परियोजनाओं का एक मात्र मकसद हो गया है. बिना सरोकारों और सिर्फ मुनाफाखोरी के लिए बन रही इन परियोजनाओं का एक दूसरा संकट पर्यावरण संबंधी मानकों की अंदेखी कर काम की गुणवत्ता और सावधानियों के प्रति लापरवाही बरतना भी है. जिसके चलते कम जोखिम वाली मझोले और छोटे आकार की बांध परियोजनाएं भी खतरनाक हो गई हैं. क्योंकि सरकार और विपक्ष दोनों की ही ओर से इन परियोजनाओं को जैसा प्रश्रय मिला हुआ है उससे इस संदर्भ में किसी भी जांच और कार्यवाही का कोई सवाल ही नहीं उठता. रही बात कॉरपोरट  मीडिया की तो उसका चरित्र किससे छुपा है? इन कंपनियों के विज्ञापनों की बाढ़/आस में उसकी जुबान पहले से ही बंद है. लेकिन इधर हिमाचल हाईकोर्ट के, जेपी ग्रुप (जेपी एसोसिएट्स) के खिलाफ 100 करोड़ के हर्जाने के, लिए गए एक फैसले का संदर्भ इन कंपनियों की मुनाफा बटोरने के लालच की हद और धूर्तता को समझने के लिए लिया जा सकता है.
 
जेपी एसोसिएट्स, भारत की सीमेंट, हाइड्रो पावर और थर्मल पावर उत्पादन के क्षेत्र में प्रतिनिधि निजी कंपनी है. अलग-अलग परियोजनाओं में, हाइड्रो पावर में 1700 मेगावाट और थर्मल पावर में 5120 मेगावाट के लिए इसके द्वारा निर्माण कार्य कराया जा रहा है. साथ ही देश में सीमेंट उत्पादन में इसका चौथा स्थान है. हिमालयी राज्यों में भी जेपी के कई प्रोजेक्ट काम कर रहे हैं. हिमाचल हाईकोर्ट का यह फैसला एक जनहित याचिका के संदर्भ में आया है जिसमें याचिकाकर्ता द्वारा कंपनी पर उसके सोलन स्थित सीमेंट प्लांट में पर्यावरण नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था. कंपनी ने इस प्लांट के लिए पर्यावरण संबंधी कोई भी क्लियरेंस यह कहते हुए नहीं लिया था कि इस प्लांट में 100 करोड़ से कम निवेश है जबकि क्लियरेंस की जरूरत 100 करोड़ से ऊपर के निवेश में पड़ती है. बकायदा इस संदर्भ में जेपी की ओर से एक फर्जी शपथपत्र भी दायर किया गया था जिसमें प्लांट में 100 करोड़ से कम का निवेश होने की बात कही गई थी. लेकिन याचिकाकर्ताओं की ओर से कोर्ट के सामने यह साबित कर दिया कि यह प्लांट 100 करोड़ का नहीं जबकि 400 करोड़ का है. इसी पर फैसला देते हुए हिमांचल प्रदेश हाईकोर्ट की ग्रीन बैंच ने जेपी को फर्जी शपथपत्र के लिए फटकार लगाते हुए उस पर 100 करोड़ का हर्जाना भरने का आदेश दिया. साथ ही कोर्ट ने सोलन में ही स्थित जेपी के थर्मल पावर प्लांट को अगले तीन महीनों में बंद कर देने के आदेश दिए हैं क्योंकि ये प्लांट भी बिना किसी मान्य पर्यावरणीय क्लीयरेंस के ही बनाया गया है. निजी कंपनियों के लिए इस तरह की धोखेबाजी करना आम बात है. पर अफसोस की बात तो ये है कि लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका और जनता के साथ स्पष्ट धोखा करने के बावजूद भी बाजार में इससे जेपी की साख पर कोई फर्क भी नहीं पड़ने वाला. चाहे न्यायालय ने इस सब के लिए जेपी को 100 करोड़ का हर्जाना भरने की सजा सुना दी हो. लेकिन क्या इस धोखेबाजी की भरपाई महज इस सजा से हो सकती है? 
 
इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा है कि इतनी बड़ी अनियमितता बिना प्रशासनिक अधिकारियों की मिली भगत् के संभव नहीं हो सकती. कोर्ट ने इसकी जांच के लिए एक विशिष्ट जांच दल (एसआईटी) भी बिठाया है. देश भर में बांध परियोजनाएं ऐसी ही धोखेबाज कंपनियों के हाथों में हैं जो शासन और प्रशासन के लोगों को खरीद कर बिना किसी सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों के प्राकृतिक संसाधनों को सिर्फ अपने मुनाफे के लिए बुरी तरह लूट रही हैं. पर्यावरणीय नुकसानों के साथ ही इसकी कीमत स्थानीय जनता को अपने पूरे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अस्थित्व को दाव पर लगाकर चुकानी पड़ रही है.
 
अब सवाल यह उठता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर CO2 और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के दबावों और अपने विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने की समस्या से भारत कैसे उबरे? इसके दो जवाब हैं, पहला कि वैश्विक स्तर पर ऊर्जा के कम उपभोग की ओर कोई बहस करने को तैयार नहीं है. जब्कि हमें यह समझना चाहिए कि प्रकृति के पास सीमित संसाधन हैं, जिनका संभल कर उपयोग करना होगा. पूंजीकेंद्रित अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफा कमाने की होड़ के चलते लगातार ऊर्जा जरूरतें बढ़ रही हैं और इसके लिए दुनियाभर की सरकारें और औद्यौगिक घराने आंखमूंद कर हाथ पांव मार रहे हैं. इसकी चोट वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न क्षेत्रों पर पड़ रही है जहां कि अक्सर आदिवासी या तथाकथित पिछड़ा समाज, प्रकृति से साम्य बना कर बसा हुआ है. विकास की पूंजीकेंद्रित समझदारी उसे तबाह करते हुए अपनी जरूरतें पूरी कर लेना चाहती हैं. ऐसे में भारत को, किसी भी कीमत पर ऊर्जा हासिल कर लेने की वैश्विक होड़ में शामिल हुए बगैर, मानवकेंद्रित रवैया अपनाते हुए अपनी ऊर्जा जरूरतों को सीमित करने की ओर बढ़ना होगा. दरअसल पूरे विश्व को यही करने की जरूरत है.
 
दूसरा जवाब यह है कि ऊर्जा जरूरतों को सीमित कर देने के बाद जिस ऊर्जा की जरूरत हमें है, उसे जुटा लेना भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न देश के लिए मुश्किल नहीं होगा. वर्तमान परिदृश्य में हाइड्रो पावर के अलावा पर्यावरण सम्मत कोई विकल्प नजर नहीं आता (इसकी वजह यह भी है कि निहित स्वार्थों के चलते ऊर्जा के कई सुलभ, पर्यावरणपक्षीय और कम खतरनाक स्रोतों के क्षेत्र में कोई भी शोध/अध्ययन नही के बराबर हो रहे हैं). ऐसे में यदि हमें हाइड्रोपावर से ही ऊर्जा जुटानी होगी तो, जरूरत है कि हाइड्रो पावर परियोजनाओं को अधिकतम् जनपक्षीय और पर्यावरणसम्मत बनाया जाय. इस क्षेत्र को निजी कंपनीयों को मुनाफा कमाने के लिए खुली छूट के तौर पर नहीं दिया जा सकता. यह जरूर तय करना होगा कि हाइड्रो पावर उत्पादन में नदियों के किनारे बसा स्थानीय समाज, पहाड़ों का भूगोल और पर्यावरण तबाह ना हो जा रहा हो. इसके साथ प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक उस समाज का ही होना चाहिए जिसने कि इस भूगोल को उसकी सम-विषम परिस्थितियों के साथ, अपने जीने के लिए चुना है. ऐसे में पहाड़ों में किसी भी किस्म की जल विद्युत परियोजनाओं में पहाड़ी समाज की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी. डब्लु सी डी की रिपोर्ट भी यही कहती है. बांधों के निर्माण के लिए बड़ी सामाजिक कीमत ना चुकानी पड़े इसके लिए डब्लूसीडी की रिपोर्ट में कुछ निर्देश दिए हैं जो कि बांध निर्माण संबंधी निर्णयों को कुछ विशिष्ठजनों द्वारा लिए जाने के बजाय प्रभावित जनता के साथ भागीदारी का रवैया बनाने की वकालत करती है. इसी तरह के कुछ प्रयोग, बड़ी और गैरजनपक्षीय बांध परियोजनाओं का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों ने उत्तराखंड में करने की कोशिश की है. यहां जनभागीदारी से छोटी जल विद्युत परियोजनाएं बनाने के क्षेत्र में काम किया जा रहा है. इन आंदोलनकारियों ने इन परियोजनाओं के लिए एक बजट मॉडल भी विकसित किया है. जिसके अनुसार 1 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना की लागत 4 करोड़ रूपये होगी. इस धन को आसपास के गांवों के 200 लोगों की सहकारी समिति बनाकर बैंक लोन आदि तरीकों से जुटाया जाएगा. इस सहकारी समिति के 200 सदस्य ही इस परियोजना के शेयरधारक होंगे. बजट के अनुसार 1 मेगावाट की विद्युत इकाई से यदि सिर्फ 800 किलोवाट विद्युत का उत्पादन भी होता है तो वर्तमान बिजली के रेट 3.90 रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से एक घण्टे में 3120.00 रूपये, 24 घण्टे में 74,880.00 रूपये और एक माह में 22,46,400.00 रूपये की आमदनी होगी. इसी तरह यह आंकडा, सालाना 2,69,56,800.00 रूपये हो जाएगा. ढाई करोड़ से ऊपर की इस सालाना कमाई से इन गांवों की आर्थिकी सुदृढ़ हो सकती है. ये गांव स्वावलम्बी बन सकते हैं. बजट के अनुसार लोन की 4 लाख प्रतिमाह की किस्तों को भरने के अलावा, परियोजना के 10 से 15 लोगों के स्टाफ की 3.25 लाख प्रति माह तन्ख्वाह, मेंटेनेंस के 2.50 लाख के साथ ही 200 शेयर धारकों को 5000 से 8000 रूपया प्रतिमाह शुद्ध लाभ भी होगा. एक बार हाइड्रो पावर परियोजनाओं का निर्माण कार्य पूरा हो जाय तो उसके बाद इससे ऊर्जा प्राप्त कर लेना बेहद सस्ता होता है. नदियों में बहता पानी इसके लिए सहज प्राप्य कच्चा माल होता है. पहाड़ी गांवों में यदि इस तरह की परियोजनाएं जनसहभागिता से स्थापित हो जाएं तो यह विकास का स्थाई/टिकाऊ तरीका हो सकता है.
 
लेकिन इस तरह की परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के कोई भी प्रयास ‘ऊर्जा प्रदेश’ की सरकार नहीं कर रही है. उसके सपनों में तबाही फैलाते बड़े डैम हैं और मध्य एशिया के देशों के ‘पैट्रो डॉलर’ की तर्ज पर इन डैमों से बरसता ‘हाइड्रो डॉलर’. उल्टा सरकारें इन परियोजनाओं को हतोत्साहित करने में तुली हुई हैं. दो साल पहले उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के सीमांत गांव रस्यूना में सरयू नदी में इसी तरह की एक मेगावाट की एक परियोजना के लिए शोध करने गए, गांधीवादी, आजादी बचाओ आदोलन से जुड़े इंजीनियर और एक कार्यकर्ता को पुलिस ने माओवादी बताकर गिरफ्तार कर लिया. मार-पीट/पूछताछ के बाद कुछ प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों की पहल पर उन्हें छोड़ा गया. यह उदाहरण है कि किस तरह कॉरपोरट के फायदे के इतर वैकल्पिक मॉडलों पर काम कर रहे लोग दमन का सीधा शिकार हो रहे हैं. इस तरह के वैकल्पिक मॉडल खड़े हो जाना सरकार और मुनाफाखोर निजी कंपनियों को मंजूर नहीं हैं.
 
बारहवी पंचवर्षीय योजना, 2012-2017 के दौरान भारत ने अपनी ऊर्जा क्षमता में एक लाख मेगावाट का अतिरिक्त इजाफा करने का लक्ष्य रखा है. यह जनपक्षीय और पर्यावरणसम्मत् दृष्टि से बिल्कुल असंभव है. और 1 मेगावॉट सरीखी छोटी परियोजनाएं तो इस लक्ष्य को पाने में नगण्य भूमिकाएं ही अदा करेंगी. तो सरकारों का फोकस स्वाभाविक ही मझोली और बड़ी परियोजनाओं की ओर जाना तय है. ऐसे में मझोली परियोजनाएं तो बनेंगी ही साथ ही अतीत की चीज मान ली गई बड़ी बांध परियोजनाओं की दुबारा से भयंकर शुरूआत होगी. और यदि ऊर्जा उत्पादन के इस लक्ष्य को भारत को किसी भी कीमत पर पा ही लेना है तो इसका एकमात्र रास्ता प्रभावित समाजों के प्रतिरोधों का बर्बर दमन करते हुए मनमानी ऊर्जा परियोजनाओं को खड़ा करना ही होगा. भारत का विकास रथ जिस ओर बढ़ रहा है, प्राकृतिक संसाधन संपन्न क्षेत्रों की ओर उसका जो रवैया है ऐसे में यह बर्बर दमन अकल्पनीय नहीं है. जनता और आंदोलनकारियों को कमर कस लेनी चाहिए.

Continue Reading

Previous Do stand by truth: Koodankulam women
Next Anti-KNPP protests get more support

More Stories

  • Featured

‘Bidhuri Made Mockery Of PM’s Sabka Saath, Sabka Vishwas Remarks’

10 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Why This Indian State Has A Policy To Prioritise Pedestrians

13 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

The Reasons Why Humans Cannot Trust AI

13 hours ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • ‘Bidhuri Made Mockery Of PM’s Sabka Saath, Sabka Vishwas Remarks’
  • Why This Indian State Has A Policy To Prioritise Pedestrians
  • The Reasons Why Humans Cannot Trust AI
  • Is Pursuing The ‘Liberal Arts’ A Luxury Today?
  • The Curious Case Of The Killings In Canada
  • Shocking! Excavating Farmlands For Highways
  • Health Must Be Fast-Tracked For 2030
  • What Are ‘Planetary Boundaries’ & Why Should We Care?
  • Ramesh Reminds Shah Of Gujarat’s ‘Reality’
  • Why Are Intense Storms, Erratic Rainfall Events More Frequent Now?
  • Coal-fired Contradictions: Why Climate Action Needs A Circuit Breaker
  • Solar-Powered Looms Boost Income And Safety For Silk Weavers
  • ‘Govt Intention Something Else, Publicising Bill In View Of Polls’
  • A Probe Finds The UN Is Not Carbon Neutral
  • Empowering Teachers Is Key To A Sustainable Future
  • Genocide Fears In Sudan Attract Little Attention
  • Disaster Resilience In The Built Environment
  • “Unite And Overthrow Dictatorial Govt To Save Democracy”
  • NASA Report Finds No Evidence That UFOs Are Extraterrestrial
  • Why Locals Are Resisting Small Hydro Projects In Darjeeling

Search

Main Links

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us

Related Stroy

  • Featured

‘Bidhuri Made Mockery Of PM’s Sabka Saath, Sabka Vishwas Remarks’

10 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Why This Indian State Has A Policy To Prioritise Pedestrians

13 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

The Reasons Why Humans Cannot Trust AI

13 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Is Pursuing The ‘Liberal Arts’ A Luxury Today?

13 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

The Curious Case Of The Killings In Canada

1 day ago Shalini

Recent Posts

  • ‘Bidhuri Made Mockery Of PM’s Sabka Saath, Sabka Vishwas Remarks’
  • Why This Indian State Has A Policy To Prioritise Pedestrians
  • The Reasons Why Humans Cannot Trust AI
  • Is Pursuing The ‘Liberal Arts’ A Luxury Today?
  • The Curious Case Of The Killings In Canada
Copyright © All rights reserved. | CoverNews by AF themes.