उतर रही है अन्ना के आंदोलन की खुमारी
Apr 25, 2012 | आशीष महर्षितेरे इश्क की खुमारी जब उतरी तो हम कहीं के न रहे. तेरे पे इकबाल करके हम कहीं के न रहे. तुने हमें किया बर्बाद तो हम कहीं के न रहे. ऐसा ही कुछ इनदिनों अन्ना के आंदोलन के साथ हो रहा है. जिस आंदोलन पर करोड़ों ने आंख बंद कर के विश्वास किया. साथ दिया. हमसफर बने. आज वो खुद को ठगे हुए महसूस कर रहे हैं. लेकिन क्या यह सब अचानक हुआ? जवाब खोजेंगे तो उत्तर मिलेगा, नहीं.
आखिरकार वही हुआ, जिसका डर था. एक बार फिर टीम अन्ना का लोकतंत्र न्यूज चैनलों के सामने आकर झूम-झूम कर नाचा. इस बार मुफ्ती शामून काजमी के रूप में. यह कोई पहली बार नहीं हुआ. कई बार ऐसा हो चुका है. टीम अन्ना के कुछ सदस्यों पर आंदोलन पर पहले दिन से ही अलोकतांत्रिक और तानाशाही का आरोप लगता रहा है. लेकिन बड़े लक्ष्य के लिए लड़ी जा रही लड़ाई अब पूरी तरह इगो की लड़ाई बन गई है.
जिस आंदोलन ने देश के कन्फ्यूज युवाओं को रास्ता दिखाया था. जिस आंदोलन ने बूढ़ी आंखों में मर चुके ख्वाबों को फिर से जिंदा किया था. जिस आंदोलन ने पूरी दुनिया को दिखा दिया था कि अब हिंदुस्तान अंगड़ाई ले रहा है, वह अब धीमी मौत मरने को विवश हो चुका है. कारण सिर्फ यही है कि यह आंदोलन अब जन आंदोलन न होकर कुछ लोगों की बपौती बन गया है. लोकतांत्रिक तरीकों और पारदर्शिता को लेकर टीम अन्ना हमेशा विवादों में रही है.
केंद्र सरकार से मीटिंग की वीडियो रिकॉर्डिग की मांग करने वाली टीम अन्ना अपने ही एक सदस्य के द्वारा रिकॉडिंग किए जाने को जासूसी का आरोप लगाकर बाहर का रास्ता दिखलाना, कहीं न कहीं टीम अन्ना की पारदर्शिता पर भी सवाल उठाता है.
टीम अन्ना के पूर्व सदस्य तो शुरू से कहते आए हैं कि इस आंदोलन की कथनी और करनी में हमेशा से ही फर्क रहा है. यह आंदोलन अब देश को बनाने वाला नहीं, बल्कि तोड़ने वाला है. टीम अन्ना के पूर्व सदस्य और मैग्सेसे पुरस्कार के सम्मानित राजेंद्र सिंह कहते हैं कि आंदोलन में कथनी और करनी में फर्क तो है.
बाकी आंदोलन में भी होता है लेकिन इस तरह से नहीं होता है. पूरे आंदोलन में कहीं भी बराबरी नहीं है. यह आंदोलन लोकतांत्रिक नहीं है. इसलिए टीम के सदस्यों को लगता है कि वो जो फैसले ले रहे हैं, वो बाहर नहीं जाने चाहिए. इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि सरलता समानता के बिना जो भी आंदोलन चलता है वह देश को बनाने वाला नहीं बल्कि देश को बिगाड़ने वाला होता है. अब इस आंदोलन का कोई भविष्य दिखता दिख नहीं है. समझदार लोग इस आंदोलन से अलग होते जा रहे हैं. अब इसमें केवल बातों से बदलाव करने वाले लोग जुट रहे हैं. जमीनी बदलाव और बेहतरी के इसमें नहीं है. किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन का मतलब होता है, इसमें समता, सादगी, बराबरी, सबके हित का ध्यान रखा जाए. लेकिन इस आंदोलन में ऐसा कुछ भी नहीं है.
जब मैं पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था तो उस वक्त राजस्थान में सूचना के अधिकार और भोजन के अधिकार आंदोलन को बड़े करीब से देखने का मौका मिला. कई मीटिंगों में भाग लिया. सभी रणनीतिकारों को करीब से जाना. हर आंदोलन को शुरू करने से पहले गांव से शुरूआत की जाती रही. जयपुर में यदि कोई आंदोलन करना है तो दूर बैठे जैसलमेर, उदयपुर के लोगों की रायशुमारी और उनकी सक्रियता को तय किया जाता था. हर उस इंसान की राय ली जाती थी, जिसके लिए यह लड़ाई लड़ी जा रही है. कोर कमेटी में सिर्फ पांच छह लोग नहीं बल्कि पचासों की तादाद में लोग होते थे. इसमें पूर्व आईएएस से लेकर गांव का एक आम ग्रामीण तक एक साथ बैठते थे. आज भी यही होता है.
लेकिन अन्ना के आंदोलन में यह सब तत्व पूरी तरह से गायब रहे. जहां भी टीम अन्ना के सदस्य जाते थे, वहां वे एक सेलेब्रिटिज होते थे. लोग उन्हें सुनते कम थे, फोटो ज्यादा खिंचाते हैं. इस पूरे आंदोलन में ग्लैमर का तड़का अधिक दिखता है. टीम अन्ना को यह समझना होगा कि आज जो भी भीड़ जुटती है, वह सिर्फ और सिर्फ अन्ना के नाम पर. बाकी के बाकी सारे सदस्य की हैसियत सिर्फ जुगनूओं जैसी है. इसे जितनी जल्दी वो स्वीकार कर लें, उनके लिए उतना ही बेहतर है.