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इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और टीआरपी का गोरखधंधा-1

Apr 3, 2012 | हिमांशु शेखर

जुलाई, 2011 में अचानक एक शाम बिहार की राजधानी पटना में केबल टेलीविजन पर दिखने वाले सारे खबरिया चैनल गायब हो गए. इस दौरान सिर्फ एक ही समाचार चैनल मौर्य टीवी वहां दिखा. शाम छह बजे से लेकर रात ग्यारह बजे तक कोई भी दूसरा खबरिया चैनल किसी केबल टेलीविजन पर नहीं दिखा. इन चैनलों का प्रसारण बंद होने के बाद स्वाभाविक ही था कि संबंधित चैनलों के लोग पटना में केबल नेटवर्क चलाने वाले लोगों से संपर्क साधते. संपर्क करने पर यह जवाब मिला कि कुछ तकनीकी बदलाव किए जा रहे हैं इसलिए एक-दो घंटे में दोबारा आपका चैनल दिखने लगेगा. पर रात के ग्यारह बजे तक दूसरे चैनल नहीं दिखे.

 
बजाहिर, ऐसे में दर्शकों के सामने खबर देखने के लिए कोई और विकल्प नहीं था. इस वजह से लोगों को मौर्य टीवी देखना पड़ा. इसका नतीजा यह हुआ कि उस हफ्ते बिहार में मौर्य टीवी रेटिंग के लिहाज से सबसे ज्यादा देखे जाने वाला चैनल बन गया. वहीं दूसरे चैनलों की रेटिंग में कमी आई. बताते चलें कि मौर्य टीवी बिहार और झारखंड में चलने वाला एक क्षेत्रीय समाचार चैनल है. ये पूरी कहानी बताई बिहार के लिए क्षेत्रीय समाचार चैनल चलाने वाले चैनल प्रमुखों ने. इनका तो यह भी आरोप है कि केबल नेटवर्क चलाने वालों के साथ मिलकर मौर्य टीवी को नंबर एक बनाने का यह खेल हुआ और इसमें हमारे चैनल को नुकसान उठाना पड़ा. एक तरह से देखा जाए तो सुनियोजित ढंग से टीवी से चैनलों का विकल्प गायब कर दिया गया और विकल्पहीनता का फायदा उठाकर एक खास चैनल को रेटिंग के मामले में शीर्ष स्थान पर काबिज होने की पटकथा तैयार कर दी गई.
 
इस घटना ने एक बार फिर नए सिरे से टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट तय करने की पूरी प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगाने का काम किया. यह उदाहरण 2011 का है. एक और उदाहरण लेते हैं दस साल पहले यानी 2001 का. उस साल हुआ यह था कि मुंबई के 625 घरों के बारे में यह बात सामने आ गई थी कि उन्हें टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में शामिल किया गया है. हालांकि, इन घरों की गोपनीयता बनाए रखने का दावा रेटिंग तैयार करने वाली एजेंसी करती थी. उस वक्त यह बात सामने आई थी कि इन घरों के दर्शकों को प्रभावित करने का काम एक खास चैनल के लोगों ने किया और इसमें कामयाब भी हुए. इन घरों के लोगों को खास कार्यक्रम देखने के बदले कुछ तोहफे देने का प्रस्ताव देने की बात भी सामने आई थी.
 
जब यह बात सामने आई तो हर तरफ हो-हल्ला मचा. विज्ञापनदाताओं ने भी सवाल उठाए और टेलीविजन चैनल के लोगों ने भी. रेटिंग तय करने वाली एजेंसी ने गोपनीयता का भरोसा दिलाया और कहा कि इस पूरी प्रक्रिया में कोई खामी नहीं है और जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधार लिया जाएगा. इसके बाद रेटिंग का कारोबार चलता रहा और तकरीबन दस साल बाद पटना की घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में किस-किस स्तर पर खामियां व्याप्त हैं. ऐसा नहीं है कि इस दस साल के दौरान टीआरपी की व्यवस्था पर सवाल नहीं उठे. बताते चलें कि 2001 के बाद से देश में समाचार चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ी और समय के साथ खबरों की परिभाषा बदलती चली गई. जनता से संबंधित या यों कहें कि लोगों की जिंदगी पर असर डालने वाली खबरों की जगह भूत-प्रेत और नाग-नागिन की खबरों ने ले लिया. खबरिया चैनल मनोरंजन चैनलों की राह पर चल पड़े. शायद ही कोई ऐसा खबरिया चैनल बचा जिस पर कॉमेडी के कार्यक्रम नहीं दिखाए गए हों. खबरों से सरोकार गायब होते गए और इनकी जगह सनसनी और मनोरंजन ने ले लिया. बदहाली का आलम यह हो गया कि किसानों की आत्महत्या खबर नहीं लेकिन भूत-प्रेत और फैशन शो राष्ट्रीय खबर बन गए.
 
यह पूरा खेल हुआ उस टीआरपी के नाम पर जिसकी पूरी व्यवस्था ही दोषपूर्ण है. खबरिया चैनलों को चलाने वाले लोग यह कुतर्क करते रहे कि समय के साथ खबरों की परिभाषा बदल गई है इसलिए आज किसान खबर नहीं बल्कि भूत-प्रेत ही खबर हैं. अब जब टीआरपी की पूरी प्रक्रिया की पोल धीरे-धीरे खुल रही है और चैनल प्रमुखों की नौकरी को टीआरपी ने चुनौती देना शुरू किया है तो ये भी टीआरपी की व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं. एक खबरिया चैनल के प्रमुख ने बताया कि कुछ महीने पहले उनके चैनल की जो पहली रेटिंग आई उस पर प्रबंधन को संदेह हुआ. इसके बाद जब दोबारा रेटिंग मंगवाई गई तो पहले के आंकड़ों और बाद के आंकड़ों में फर्क था.
 
आगे बढ़ने से पहले टीआरपी से संबंधित कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है. अभी देश में टीआरपी तय करने का काम टैम मीडिया रिसर्च नामक कंपनी करती है. यहां टैम का मतलब है टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट. रेटिंग तय करने के लिए एक दूसरी कंपनी भी है जिसका नाम है एमैप. हालांकि, कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई कि एमैप बंद हो रही है. इस बारे में कंपनी के प्रबंध निदेशक रविरतन अरोड़ा ने यह कहा कि हम अपना कारोबार समेट नहीं रहे बल्कि तकनीकी बदलाव के लिए चार महीने तक रोक रहे हैं. वैसे खबरों में यह बताया गया है कि इस कंपनी में काम करने वाले लोगों को यह कह दिया गया कि वे बाहर अपने लिए अवसर तलाशें क्योंकि कंपनी बंद होने वाली है.
 
2004 में शुरू होने वाली कंपनी एमैप अभी 7,200 मीटरों के जरिए रेटिंग तैयार करने का काम कर रही थी. वहीं 1998 में शुरू होने वाली कंपनी टैम के कुल मीटरों की संख्या 8,150 है. इनमें से 1,007 मीटर डीटीएच, कैस और आईपीटीवी घरों में हैं. जबकि 5,532 मीटर एनालॉग केबल घरों में और 1,611 मी‌टर गैर केबल यानी दूरदर्शन घरों में हैं. एक मीटर की लागत 75,000 रुपये से एक लाख रुपये के बीच है. मालूम हो कि इन्हीं मीटरों के सहारे टीआरपी तय की जाती है. ये मीटर संबंधित घरों के टेलीविजन सेट से जोड़ दिए जाते हैं. इनमें यह दर्ज होता है कि किस घर में कितने देर तक कौन सा चैनल देखा गया. अलग-अलग मीटरों से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर रेटिंग तैयार की जाती है और बताया जाता है कि किस चैनल को कितने लोगों ने देखा. टैम सप्ताह में एक बार अपनी रेटिंग जारी करती है और इसमें पूरे हफ्ते के अलग-अलग कार्यक्रमों की रेटिंग दी जाती है. टैम यह रेटिंग अलग-अलग आयु वर्ग और आय वर्ग के आधार पर देती है.
 
इस रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल पर उन्हें कितना विज्ञापन देना है. रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाताओं को यह पता चल पाता है कि वे जिस वर्ग तक अपने उत्पाद को पहुंचाना चाहते हैं वह वर्ग कौन सा चैनल देखता है. यह बात सबको पता है कि चैनलों की आमदनी का सबसे अहम जरिया विज्ञापन ही हैं. इस वजह से चैनलों के लिए रेटिंग की काफी अहमियत है. क्योंकि जिस चैनल की रेटिंग ज्यादा होगी विज्ञापनदाता उसी चैनल को अधिक विज्ञापन देंगे. इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि रेटिंग सीधे तौर पर चैनलों की कमाई से जुड़ी हुई है. जितनी अधिक रेटिंग उतनी अधिक कमाई. रेटिंग से ही चैनलों को यह पता चल पाता है किस तरह के कार्यक्रम को लोग पसंद कर रहे हैं और इसी आधार पर वे अपने चैनल द्वारा परोसी जा रही सामग्री में बदलाव करते हैं. खबरिया चैनलों की सामग्री के बदलाव में भी टीआरपी की प्रमुख भूमिका रही है.
 
अब अगर टीआरपी तय करने की पूरी व्यवस्था में कई खामियां व्याप्त हों तो जाहिर है कि सामग्री के स्तर पर होने वाला बदलाव सकारात्मक नहीं होगा. यही बात खबरिया चैनलों के मामले में दिखती है. टैम की शुरुआत से संबंधित तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि यह विज्ञापनदाताओं के लिए काम करने वाली एजेंसी है. यह भले ही दर्शकों के पसंद-नापसंद की रिपोर्ट देने का दावा करती हो लेकिन इसका मकसद सीधे तौर पर विज्ञापनदाताओं को अपने हितों को साधने में मदद करना है. ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज समूह के संपादक एनके सिंह के मुताबिक टीआरपी जिस तकनीकी बदलाव की नुमाइंदगी करती है उसका मकसद खपत के पैटर्न में बदलाव करना है. वे कहते हैं, ‘टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की है इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी. विज्ञापनदाताओं के लिए यह जरूरी है कि उनके उत्पाद के खपत में तेजी आए. इसके लिए वे टीआरपी का इस्तेमाल करते हैं. दरअसल, टीआरपी एक ऐसा औजार है जिसके जरिए बाजार में खपत के लिए माहौल तैयार किया जाता है. लोगों के लिए इसकी और कोई प्रासंगिकता नहीं है.’
 
टैम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (कम्युनिकेशंस) सिद्धार्थ मुखर्जी स्वीकार करते हैं, ‘टैम की शुरुआत विज्ञापनदाताओं को ध्यान में रखकर की गई थी. हमें यह काम दिया गया था कि हम ये बताएं कि किस कार्यक्रम को कितना देखा जाता है. ताकि इसके आधार पर विज्ञापनदाता अपनी रणनीति तय कर सकें. इसलिए हम दावा नहीं करते कि हम दर्शकों के लिए काम करते हैं. हमारा आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं है.’ सिद्धार्थ के मुताबिक, ‘टैम के आंकड़ों में तो टेलीविजन और विज्ञापन उद्योग से जुड़े लोगों और शोध करने वालों को ही दिलचस्पी रखनी चाहिए. दूसरों की दिलचस्पी का कारण मुझे समझ नहीं आता.’ हालांकि, दूसरी तरफ सिद्धार्थ यह दावा भी करते हैं कि टीआरपी सामाजिक दर्पण है क्योंकि इसके आंकड़े दर्शकों की पसंद-नापसंद के आधार पर तैयार किए जाते हैं. वे कहते हैं, ‘हमारा काम मीटर वाले घरों में देखे जाने वाले चैनलों की जानकारी एकत्रित करना और उसके आधार पर रेटिंग तैयार करना है. इसके बाद हम ये आंकड़े विज्ञापन एजेंसियों और टेलीविजन चैनलों को दे देते हैं. यहीं हमारा काम खत्म हो जाता है. हमने समाचार चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव कर दीजिए.’
सिद्धार्थ जितने सीधे तरीके से अपना पल्ला झाड़ रहे हैं खेल उतना सीधा है नहीं. क्योंकि टैम की रेटिंग पर ही यह तय होता है कि किस चैनल को किस दर पर विज्ञापन मिलेगा इसलिए ये आंकड़े महत्वपूर्ण है. सच्चाई तो यह है कि टैम का मालिकाना हक विज्ञापन एजेंसियों के पास होने और सिद्धार्थ की बातों से यह बात साबित होती है कि टैम की रेटिंग यानी टीआरपी का दर्शकों से कोई लेना-देना नहीं है.
 
ऐसे में यहां अहम सवाल यह है कि क्या टैम के अधिकारी के यह कह देने भर से कि वे दर्शकों के लिए काम नहीं करते टैम की रेटिंग का पाप धुल जाता है? टैम की टीआरपी के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है. यहां यह बताना जरूरी है कि बाजार में हर चैनल मुनाफा कमाने के लिए ही चल रहा है. ऐसे में तब जब विज्ञापन या यों कहें कि चैनलों की कमाई टीआरपी के आधार पर तय हो रही हो तो जाहिर है कि चैनल टीआरपी के हिसाब से अपनी सामग्री में बदलाव करेंगे. खबरिया चैनलों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों की सामग्री के मामले में भी भारत में यही हुआ. 2000 के बाद देश में तेजी से खबरिया चैनलों की संख्या बढ़ी लेकिन इंडिया टीवी ने इस खेल के सारे नियम बदल दिए. एक तरफ इंडिया टीवी ने भूत-प्रेत और सनसनीखेज खबरों के सहारे टीआरपी बटोरने की शुरुआत की तो दूसरी तरफ स्टार न्यूज ने ‘सनसनी’ जैसे कार्यक्रमों के जरिए खबरिया बुलेटिन का रंग-ढंग बदल दिया. अपराध की खबरों वाले इस बुलेटिन को एंकर करने काम किसी पत्रकार को नहीं बल्कि एक मंचीय अभिनेता को दिया गया. नतीजा यह हुआ कि उस समय नंबर एक पर रहने वाला चैनल ‘आज तक’ भी उस वक्त नंबर दो हो जाता था जब सनसनी का प्रसारण स्टार न्यूज पर होता था. इसी तरह से इंडिया टीवी के भूत-प्रेत का प्रयोग भी सफल रहा और यह चैनल आज तक को पछाड़ते हुए टीआरपी में चोटी पर काबिज हो गया.
 
ऐसे में दूसरे चैनलों के लिए बच निकलने का कोई रास्ता नहीं था. दूसरे चैनलों को भी इंडिया टीवी की गढ़ी खबरों की नई परिभाषा की तर्ज पर काम करना पड़ा क्योंकि सवाल टीआरपी बटोरने का था. क्योंकि जिसकी जितनी अधिक टीआरपी उसकी उतनी अधिक कमाई. टीआरपी के आधार ही विज्ञापन मिलने की मजबूरी ने सही खबर दिखाने वाले चैनलों को भी भटकाने में प्रमुख भूमिका निभाई और जो भटकने के लिए तैयार नहीं थे उनके लिए चैनल चलाने का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो गया. खबरिया चैनलों की दुनिया में काम करने वाले लोग ही बताते हैं कि टीआरपी नाम के दैत्य ने कई पत्रकारों की नौकरी ली और इसने कई संपादकों की फजीहत कराई. टीवी में काम करने वाले कई लोगों ने यह बताया कि टीआरपी को ही सब कुछ मान लेने का नतीजा यह हुआ कि गंभीर खबरें लाने वाले पत्रकारों की हैसियत कम होती गई और उन्हें अपमान का भी सामना करना पड़ा जबकि दूसरी तरफ अनाप-शनाप खबरें लाकर टीआरपी बटोरने वाले पत्रकारों का सम्मान और तनख्वाह बढ़ती रही. जब-जब खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने पर सवाल उठा तब-तब इन चैनलों के संपादक यह कहकर बचाव करते दिखे कि आलोचना करने वाले पुराने जमाने के पत्रकार हैं और वे नए जमाने को समझ नहीं पाए हैं. ये संपादक यह दावा करते रहे कि समाज बदला है इसलिए खबरों का मिजाज भी बदलेगा.
 
2007 के जनवरी में साहित्‍यिक पत्रिका ‘हंस’ ने खबरिया चैनलों पर विशेषांक निकाला. इसमें ‘आज तक’ के समाचार निदेशक क़मर वहीद नक़वी ने लिखा, ‘लोग आलोचना बहुत करते हैं कि न्यूज चैनल दिन भर कचरा परोसते रहते हैं, लेकिन सच यह है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं. कुछ तमाशा हो, कुछ ड्रामा हो, वह जितनी बार दिखाया जाए, उतनी बार दर्शकों की भारी तादाद उसे देखने खिंची चली आएगी. जिसे देखो वही कहता फिरता है कि आप लोग क्या-क्या वकवास दिखाते रहते हो? समझ में नहीं आता कि जब कोई यह बकवास देखना ही नहीं चाहता तो फिर इस बकवास के दर्शक कहां से आते हैं?’
 
स्टार न्यूज के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रहे और अभी पूरे स्टार इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी उदय शंकर तो समाचार चैनलों की आलोचना को प्रिंट मीडिया की खीझ का नतीजा मानते हैं. उनके मुताबिक, ‘इस देश में एक तबका है जिसका काम ही है न्यूज चैनलों को गाली देना. लोग बार-बार टीआरपी की बात करते हैं. कहते हैं हम टीआरपी के पीछे भाग रहे हैं और सबसे अधिक ये बातें प्रिंट मीडिया वाले करते हैं, तो भाई साहब, क्या आप अपने सर्कुलेशन के पीछे नहीं भागते? आप क्या अंधविश्वास और सनसनी फैलाने वाली अपराध की खबरें नहीं छापते?’ वे आगे कहते हैं, ‘टीआरपी को इतना गंदा और हेय दृष्‍टि से क्यों देखा जाता है? निश्‍चित रूप से टीआरपी सब कुछ नहीं हो सकता, लेकिन बहुत बड़ा सच है कि हम बाजार में हैं और हमारा दर्शक जो देखना चाहेगा वो हम दिखाएंगे. हम कोई चैरिटेबल संस्‍था या एनजीओ तो चला नहीं रहे हैं. हमें इसे चलाने के लिए पैसे चाहिए.’
 
सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई को यह अहसास था कि टीआरपी के पीछे भागने से दर्शक ही एक दिन खबरिया चैनलों को खारिज करने लगेंगे इसलिए सूझबूझ से चलने की जरूरत है. उन्होंने लिखा, ‘बिना मतलब और कम महत्‍त्व की चीजें न्यूज चैनलों का हिस्सा बनती जा रही हैं और असल व अहमियत वाली हार्ड न्यूज कम होती जा रही है. नंबर वन बनने की इसी होड़ ने स्क्रीन पर लंबे समय तक नाग-नागिन का नाच कराया, बिना ड्राइवर की कार चलवाई और भी न जाने क्या-क्या. ऐसी ही बात है तो फिर सीधे ब्लू फिल्म ही चला दी जाए, वह भी नंबर वन हो जाएगी. लेकिन ऐसा कब तक चलेगा. दर्शक हमसे नफरत करने लगेगा?’
 
एनडीटीवी के समाचार निदेशक रहे दिबांग मानते हैं, ‘टीआरपी की होड़ में चैनल कई बार गैरजिम्मेदार हो जाते हैं. हालांकि उनके पास अपने तर्क भी हैं, लेकिन जस्टीफिकेशन तो हर किसी के पास होता है. जो किसी का मर्डर करके आता है, वह भी कहता है कि मैंने उसे अपनी बीवी के साथ देखा था. मेरे सिर पर भूत सवार हो गया और मैंने उसे मार डाला. ऐसे जस्टीफिकेशन कितने असरदायक होंगे और कहां तक आपके काम आएंगे, यह समझा जा सकता है. दरअसल, टीआरपी के दबाव में हताशा ज्यादा दिखती है. टीआरपी एक लंबी लड़ाई है. इसे सही ढंग से लड़ना होगा.’
खबरों के नाम पर अनाप-शनाप दिखने का पूरा खेल चला टीआरपी के नाम पर. उस टीआरपी के नाम पर जिसकी पूरी व्यवस्था ही खामियों से भरी है. यह बात अब साबित होने लगी है. अधिक टीआरपी हासिल करने के लिए कुछ समय पहले तक समाज बदलने के आधार पर खबरों के मिजाज बदलने की बात खबरिया चैनलों के संपादक करते थे. लेकिन अब कई खबरिया चैनलों के संपादक खुद ही टीआरपी पर सवाल उठा रहे हैं. आईबीएन-7 के संपादक आशुतोष ने एक अखबार में लेख लिखकर यह मांग की कि टीआरपी की व्यवस्‍था को फौरन बंद किया जाए. वे कहते हैं, ‘टीआरपी का पूरी व्यवस्‍था दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की. लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं और ऐसे में विकास की दौड़ में अब तक पीछे रहे लोगों और क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है. खबरों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों में खबरों को लेकर भटकाव के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार टीआरपी है. अच्छी खबरों की टीआरपी नहीं है. कोई चैनल किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय खबर दिखा रहा हो या‌ फिर राष्ट्रीय महत्व के किसी खबर को उठा रहा हो लेकिन उसकी टीआरपी नहीं आती लेकिन भूत-प्रेत दिखाने वाले चैनल की अच्छी टीआरपी आ जाती है.’
 
बकौल आशुतोष, ‘एक अदना सा लड़का भी जानता है कि टीवी में तीन सी, यानी क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा बिकता है और प्रस्तुतीकरण जितना सनसनीखेज होगा उतनी ही टीआरपी टूटेगी. और टीआरपी माने विज्ञापन, विज्ञापन माने पैसा, पैसा माने प्रॉफिट, प्रॉफिट माने बाजार में जलवा. जिस हफ्ते टीआरपी गिर जाती है उस हफ्ते एडिटर्स को नींद नहीं आती, उसको अपनी नौकरी जाती हुई नजर आती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, वो न्यूज रूम में ज्यादा चिल्लाने लगता है. और फिर टीआरपी बढ़ाने के नए-नए तरीके इजाद करता है.’
 
इस व्यवस्था पर सवाल सरकारी स्तर पर भी उठ रहे हैं. स्थायी संसदीय समिति ने भी टीआरपी की व्यवस्था को दोषपूर्ण बताते हुए एक रपट संसद में दी. इस समिति को दी गई जानकारी में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी यह स्वीकार किया है कि एजेंसियों द्वारा तैयार की टीआरपी में कई कमियां हैं. प्रसार भारती के मुताबिक, ‘नमूने के आकार और गैर प्रतिनिधिस्वरूप के अतिरिक्त टैम आंकड़े की विश्वसनीयता के प्रभावित करने वाले कई कारक हैं. इसमें साप्ताहिक आधार पर आंकडे़ जारी करना, घरों की चयन पद्धति में पारदर्शिता की कमी और पैनलबद्ध घरों के नामों की गोपनीयता शामिल हैं. इसके अलावा टैम द्वारा आंकड़ों से छेड़खानी की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. क्योंकि यह रेटिंग स्वतंत्र लेखा परीक्षा के तहत नहीं तैयार की जाती है.’ वहीं दूसरी तरफ भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने भी इस व्यवस्था को गलत बताया.
 
अभी हाल ही में फिक्की के पूर्व महासचिव और पश्चिम बंगाल के मौजूदा वित्त मंत्री अमित मित्रा की अध्यक्षता में सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित टीआरपी समिति की रिपोर्ट आई है. इसमें भी बताया गया है कि टीआरपी की पूरी व्यवस्था में कई खामियां हैं. इसके बावजूद टीवी और मनोरंजन उद्योग इन्हीं की रेटिंग के आधार पर अपने व्यावसायिक फैसले लेते हैं. कहा जा सकता है कि इस उद्योग की बुनियाद ही ऐसी व्यवस्था पर टिकी हुई है जिसमें जबर्दस्त खामियां हैं.
 
(इस लेख का शेष हिस्सा अगले भाग में. आपकी राय का इंतज़ार रहेगा)

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