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इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और टीआरपी का गोरखधंधा-2

Apr 4, 2012 | हिमांशु शेखर

 अब इन खामियों को एक-एक कर समझते हैं. पहली और सबसे बड़ी खामी तो यही है कि 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय करने का काम टैम 165 शहरों में लगे महज 8,150 मीटरों के जरिए कर रही है. सहारा समय बिहार-झारखंड के प्रमुख प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है. आखिर सैंपल के इतने छोटे आकार के बूते कैसे सभी टेलीविजन दर्शकों की पसंद-नापसंद को तय किया जा सकता है.’ प्रबुद्ध राज जो सवाल उठा रहे हैं, वह सवाल अक्सर उठता रहता है. कुछ समय पहले केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा था, ‘टेलीविजन कार्यक्रमों की रेटिंग तय करने के लिए न्यूनतम जरूरी मीटर तो लगने ही चाहिए. 8,000 मीटर टीआरपी तय करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.’ यह बात सोनी ने तब कही थी जब अमित मित्रा समिति की टीआरपी रिपोर्ट नहीं आई थी लेकिन अब इस रिपोर्ट को आए सात महीने होने को हैं लेकिन अब तक समिति की सिफारिशों पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.

इस बारे में सिद्धार्थ दावा करते हैं, ‘8,150 मीटरों के जरिए हम तकरीबन 36,000 लोगों की पसंद-नापसंद को एकत्रित करते हैं. दुनिया में इतना बड़ा सैंपल किसी देश में टीआरपी के लिए इस्तेमाल नहीं होता. जिस तरह से शरीर के किसी भी हिस्से से एक बूंद खून लेने से यह पता चल जाता है कि ब्लड ग्रुप क्या है उसी तरह इतने मीटरों के सहारे टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद का अंदाजा लगाया जा सकता है.’ पहली बात तो यह कि टीआरपी की ब्लड ग्रुप से तुलना करना ही गलत है. क्योंकि इस आधार पर तो सिर्फ कुछ हजार लोगों की राय लेकर सरकार बन जानी चाहिए न कि पूरे देश में चुनाव कराया जाना चाहिए. जाहिर है कि सिद्धार्थ इस तरह के तर्कों का सहारा अपनी एजेंसी की खामियों पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं. सिद्धार्थ तो ये भी कहते हैं कि अगर अमित मित्रा समिति की सिफारिशों के मुताबिक मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 कर दी जाए तो भी क्या गारंटी है कि टीआरपी की पूरी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठेंगे. जाहिर है कि सवाल तो तब भी उठेंगे लेकिन टीआरपी की विश्वसनीयता निश्चित तौर पर बढ़ेगी.
 
इन मीटरों की संख्या ही केवल कम नहीं है बल्कि इसका बंटवारा भी भेदभावपूर्ण है. अब भी पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू कश्मीर में टीआरपी मीटर नहीं पहुंचे हैं. ज्यादा मीटर वहीं लगे हैं जहां के लोगों की क्रय क्षमता अधिक है. आशुतोष कहते हैं, ‘लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं. यह सही नहीं है. सबसे ज्यादा मीटर दिल्ली और मुंबई में हैं. जबकि बिहार की आबादी काफी अधिक होने के बावजूद वहां सिर्फ 165 मीटर हैं. पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर तो मीटर पहुंचे ही नहीं हैं. इससे पता चलता है कि टीआरपी की व्यवस्‍था कितनी खोखली है.’ एनके सिंह इस बात को कुछ इस तरह रखते हैं, ‘35 लाख की आबादी वाले शहर अहमदाबाद में टीआरपी के 180 मीटर लगे हुए हैं. जबकि 10.5 करोड़ की आबादी वाले राज्य बिहार के लिए सिर्फ 165 टीआरपी मीटर हैं. देश के आठ बड़े शहरों में तकरीबन चार करोड़ लोग रहते हैं और इन लोगों के लिए टीआरपी के 2,690 मीटर लगे हैं. जबकि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले 118 करोड़ लोगों के लिए 5,310 टीआरपी मीटर लगे हुए हैं.’ बताते चलें कि एनके सिंह ने ये हिसाब टीआरपी के 8,000 मीटरों के बंटवारे के आंकड़े के आधार पर लगाया है. अब टैम ने इसमें 150 मीटर और जोड़ दिए हैं.
 
मीटरों के इस भेदभावपूर्ण बंटवारे के नतीजे की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं, ‘आप देखते होंगे कि दिल्ली या मुंबई की कोई छोटी सी खबर भी राष्ट्रीय खबर बन जाती है लेकिन आजमगढ़ या गोपालगंज की बड़ी घटना को भी खबरिया चैनलों पर जगह पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. क्योंकि टीआरपी के मीटर वहां नहीं हैं जबकि मुंबई में 501 और दिल्ली में 530 टीआरपी मीटर हैं. टीआरपी बड़े शहरों के आधार पर तय होती है इसलिए खबरों के मामले में भी इन शहरों का प्रभुत्व दिखता है. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि खबर और टीआरपी के लिए चलाई जा रही खबर में फर्क है.’
 
एनके सिंह ने जिन तथ्यों को रखा है वे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि टीआरपी कुछ ही शहरों के लोगों के पसंद-नापसंद के आधार पर तय किया जा रहा है. जबकि डीटीएच के प्रसार के बाद टीवी देखने वाले लोगों की संख्या छोटे शहरों और गांवों में तेजी से बढ़ी है. इसके बावजूद वहां तक टैम के वे मीटर नहीं पहुंचे हैं जिनके आधार पर टीआरपी तय की जा रही है. टीआरपी मीटर उन्हीं जगहों पर लगे हैं जहां की आबादी एक लाख से अधिक है. इसलिए बड़े शहरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को ही मजबूर छोटे शहरों और गांव के लोगों का पसंद-नापसंद मान लिया जा रहा है. इस बाबत स्थायी संसदीय समिति के सामने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, ट्राई, प्रसार भारती, प्रसारण निगम और इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन ने माना है कि ग्रामीण भारत को दर्शाए बगैर कोई भी रेटिंग पूरी तरह सही नहीं हो सकती है.
 
2003-04 में प्रसार भारती ने टैम से मीटर की संख्या बढ़ाने का अनुरोध किया था. ताकि ग्रामीण दर्शकों को भी कवर किया जा सके. टैम ने एक ही घर में एक से ज्यादा मीटर लगा रखे हैं. इस बाबत प्रसार भारती ने ये कहा था कि जिन घरों में दूसरा मीटर है उन्हें हटाकर वैसे घरों में लगाया जाना चाहिए जहां एक भी मीटर नहीं है. उस वक्त टैम ने ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर लगाने के लिए दूरदर्शन से पौने आठ करोड़ रुपये की मांग की. प्रसार भारती ये उस वक्त यह कहके इस प्रस्ताव को टाल दिया कि इस खर्चे को पूरे टेलीविजन उद्योग को वहन करना चाहिए न कि सिर्फ दूरदर्शन को. लेकिन निजी चैनलों ने इस विस्तार के प्रति उत्साह नहीं दिखाया. इस वजह से सबसे ज्यादा नुकसान दूरदर्शन का हुआ. दूरदर्शन के कार्यक्रमों की रेटिंग कम हो गई. क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत ज्यादा लोग दूरदर्शन देखते हैं.
 
गांवों में टीआरपी मीटर लगाने के सवाल पर सिद्धार्थ कहते हैं, ‘अब विज्ञापन एजेंसियां और टेलीविजन उद्योग गांवों के आंकड़े भी मांग रहे हैं इसलिए हमने शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ गांवों से की है. अभी यह योजना प्रायोगिक स्तर पर है. 60-70 गांवों में अभी हम अध्ययन कर रहे हैं. इसके व्यापक विस्तार में काफी वक्त लगेगा. क्योंकि गांवों में कई तरह की समस्याएं हैं. कहीं बिजली नहीं है तो कहीं वोल्टेज में काफी उतार-चढ़ाव है. इन समस्याओं के अध्ययन और समाधान के बाद ही गांवों में विस्तार के बारे में ठोस तौर पर टैम कुछ बता सकती है.’
 
टीआरपी मीटर लगाने में न सिर्फ शहरी और ग्रामीण खाई है बल्कि वर्ग विभेद भी साफ दिखता है. अभी ज्यादातर टीआरपी मीटर उन घरों में लगे हैं जो सामाजिक और आर्थिक लिहाज से संपन्न कहे जाते हैं. ये मीटर आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े हुए लोगों के घरों में नहीं लगे हैं. हालांकि, आज टेलीविजन ऐसे घरों में भी हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि संपन्न तबके की पसंद-नापसंद को हर वर्ग पर थोप दिया जा रहा है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर बक्से उच्च वर्ग के घरों में लगाए जाएं तो जाहिर है कि टीवी कार्यक्रमों को लेकर उस वर्ग की पसंद देश के आम तबके से थोड़ी अलग होगी ही. पर इसके बावजूद टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था में उसे ही सबकी पसंद बता दिया जाता है और इसी के आधार पर उस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ टीवी पर आ जाती है.
 
वरिष्ठ पत्रकार और हाल तक भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य रहे परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘भारत के संविधान में 22 भाषाओं की बात की गई है. देश में जो नोट चलते हैं उनमें 17 भाषाएं होती हैं. ऐसे में आखिर कुछ संभ्रांत वर्ग के लोगों के यहां टीआरपी मीटर लगाकर उनके पसंद-नापसंद को पूरे देश के टीवी दर्शकों पर थोपना कहां का न्याय है.’ वे कहते हैं, ‘टीआरपी की आड़ लेकर चैनल भी अनाप-शनाप दिखाना शुरू कर देते हैं. सवाल उठाने पर ये कहते हैं कि जो दर्शक पसंद कर रहे हैं वही हम दिखा रहे हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर किसी सर्वेक्षण में यह बात सामने आ जाए कि दर्शक पोर्नोग्राफी देखना पसंद करते हैं तो क्या चैनल वाले ऐसी सामग्री भी दिखाना शुरू कर देंगे.’
 
टीआरपी तय करने की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि समय-समय पर टीआरपी में आंकड़ों में हेर-फेर के आरोप भी लगते रहे हैं. अगर ऐसी किसी गड़बड़ी की वजह से किसी खराब कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ जाती है तो खतरा इस बात का है कि दूसरे चैनल भी ऐसे ही कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगेंगे. ऐसे में एक गलत चलन की शुरुआत होगी. हिंदी खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने को इससे जोड़कर देखा और समझा जा सकता है. प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल पाक साफ नहीं कहा जा सकता है.’
 
नौ चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके प्रबुद्घ राज अपने अनुभव को आधार बनाकर कहते हैं, ‘राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है कि चैनलों की रैंकिंग में कोई खास फर्क नहीं होता है. चोटी के तीन चैनल हर हफ्ते अपना स्थान बदल लेते हैं लेकिन शीर्ष पर यही तीन चैनल रहते हैं. ऐसा नहीं होता कि पहले नंबर का चैनल अगले सप्ताह छठे या सातवें स्थान पर चला जाए. जबकि बिहार बाजार में ऐसा खूब हो रहा है. इस सप्ताह जो चैनल पहले पायदान पर है वह अगले सप्ताह छठे स्थान पर पहुंच जाता है और छठे-सातवें वाला पहले पायदान पर. ऐसा नहीं है कि बिहार के दर्शकों की पसंद इतनी तेजी से बदल रही है बल्कि कहीं न कहीं यह टीआरपी की प्रक्रिया में व्याप्त खामियों की ओर इशारा करता है.’
 
प्रबुद्ध राज अचानक होने वाले इस तरह के बदलाव को लेकर जिन खामियों की ओर इशारा कर रहे हैं, वे दो स्तर पर संभव हैं. पहली बात तो यह है कि बिहार के जिन घरों में मीटर लगे हुए हैं उन घरों से मिलने वाले आंकड़ों के साथ टैम में छेड़छाड़ होती हो. बताते चलें कि टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में आंकड़ों से छेड़छाड़ के आरोप टैम पर लगते रहे हैं. ऑफ दि रिकॉर्ड बातचीत में कई खबरिया चैनलों के संपादक ऐसा आरोप लगाते हैं लेकिन खुलकर कोई इसलिए नहीं बोलता कि इसी टीआरपी के जरिए उनके चैनल के दर्शकों की संख्या भी तय होनी है.
 
दूसरी संभावना यह है कि जिन घरों में टैम के मीटर लगे हुए हैं वे रेटिंग को प्रभावित करने वाले तत्वों के प्रभाव में हों. 2001 में जब मीटर घरों की जानकारी सामने आ गई थी तो उस वक्त यह बात सामने आई थी कि इन घरों को खास चैनल देखने के लिए गिफ्ट दिए जा रहे थे. एक खबरिया चैनल के संपादक ने बताया कि आज भी यह प्रवृत्ति जारी है. अमित मित्रा समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है उसके सामने कुछ ऐसे मामले लाए गए जिनमें यह कहा गया कि गिफ्ट देकर मीटर वाले घरों को प्रभावित करने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी शिकायतें भी आई हैं जिनमें यह कहा गया है कि चैनलों के एजेंट मीटर घरों के मालिकों को देखने के लिए अपनी ओर से एक टीवी दे देते हैं और जिस टीवी में मीटर लगा होता है उस पर अपने हिसाब से चैनल चलाकर रेटिंग को प्रभावित करते हैं.
 
तीसरी बात थोड़ी तकनीकी है. टैम के मीटर में देखे जाने वाले चैनल का नाम नहीं दर्ज होता बल्कि यह दर्ज होता है कि किस फ्रिक्वेंसी वाले चैनल को देखा जा रहा है. बाद में इसका मिलान उस फ्रिक्वेंसी पर प्रसारित होने वाले चैनलों की सूची से कर लिया जाता है. इसमें खेल यह है कि जिस चैनल की टीआरपी गिरानी हो तो केबल ऑपरेटर उस चैनल की फ्रीक्वेंसी बार-बार बदलते रहेंगे. आसान शब्दों में समझें तो आपके टेलीविजन में जो चैनल पांच नंबर पर दिखता है उसे उठाकर 165 नंबर पर दिखने वाले चैनल की जगह पर रख देंगे.
 
जाहिर है कि ऐसे में जब आपको पांच पर आपका चैनल नहीं मिलेगा तो आप उसे खोजते-खोजते 165 तक नहीं जाएंगे और पांच नंबर पर दिखाए जाने वाले चैनल को भी नहीं देखेंगे. ऐसी स्थिति में पांच नंबर वाले चैनल की रेटिंग गिर जाएगी. चैनल के वितरण से जुड़े लोगों के प्रभाव में आकर यह खेल अक्सर स्थानीय स्तर पर केबल ऑपरेटर करते हैं. हालांकि, टैम का कहना है कि वह फ्रीक्वेंसी में होने वाले इस तरह के बदलावों पर नजर रखती है और उसके हिसाब से रेटिंग तय करती है. पर इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि व्यावहारिक तौर पर यह संभव नहीं है कि केबल ऑपरेटर द्वारा हर बार फ्रिक्वेंसी में किए जाने वाले बदलाव को टैम के लोग पकड़ सकें.
 
सवाल यह भी है कि जो मीटर किसी घर में लगाए जाते हैं वे कितने समय तक वहां रहते हैं और मीटर लगने वाले घरों में बदलाव की क्या स्थिति है? इस बाबत टैम ने कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी. वैसे टैम यह दावा करती है कि हर साल वह 20 फीसदी मीटर घरों में बदलाव करती है. टैम ने गोपनीयता का वास्ता देते हुए यह बताने से भी इनकार कर दिया कि किन घरों में मीटर लगे हुए हैं. टैम के अधिकारी उन घरों का पता बताने के लिए भी तैयार नहीं हुए जहां पहले मीटर लगे हुए थे लेकिन अब हटा लिए गए हैं. हालांकि, अमित मित्रा समिति ने इस बात की सिफारिश जरूर की है कि टीआरपी की प्रक्रिया में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए जरूरी उपाय किए जाएं.
 
अगर किसी व्यक्ति या संस्था को रेटिंग एजेंसियों के कामकाज पर संदेह है तो वह इन एजेंसियों के खिलाफ अपनी शिकायत तक नहीं दर्ज करा सकता. अभी तक भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इन एजेंसियों के खिलाफ कहीं शिकायत दर्ज करवाई जा सके. इस बदहाली के लिए स्थायी संसदीय समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को आड़े हाथों लेते हुए कहा है, ‘डेढ़ दशक से सरकार अत्याधिक हिंसा और अश्लीलता के प्रसार और भारतीय संस्कृति के क्षरण को इस निरर्थक दलील के सहारे मूकदर्शक बनकर देखती रही कि अभी तक रेटिंग प्रणाली विनियमित नहीं है और कोई नीति/दिशानिर्देश इसलिए नहीं बनाए गए हैं क्योंकि रेटिंग एक व्यापारिक गतिविधि है और जब तक आम आदमी के हित का कोई बड़ा सवाल न हो तब तक सरकार किसी व्यापारिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करती है. मंत्रालय यह सोच कर आराम से बैठा रहा कि इसे अधिक व्यापक आधार वाला और प्रतिनिधिक बनाने का काम खुद उद्योग करेगा. भारत में टीवी प्रसार को देखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा है कि प्रचलित रेटिंग केवल और केवल एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है.’
 
मीडिया के कुछ लोग टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को दोषपूर्ण मानते हुए इसमें सरकारी दखल की मांग करते रहे हैं. हालांकि, कुछ समय पहले तक सरकार यह कहती थी सर्वेक्षण के काम में वह दखल नहीं दे सकती क्योंकि यह अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मामला है. इस सरकारी तर्क को एनके सिंह यह कहते हुए खारिज करते हैं, ‘यह बात सही है कि संविधान के अनुच्छेद-19(1)(जी) के तहत हर किसी को अपनी इच्छा अनुसार व्यवसाय करने का अधिकार है लेकिन अनुच्छेद-19(6) में यह साफ लिखा हुआ है कि अगर कोई व्यवसाय जनता के हितों को प्रभावित करता है तो सरकार उसमें दखल दे सकती है. टीआरपी से देश की जनता इसलिए प्रभावित हो रही है क्योंकि इसके हिसाब से खबरें प्रसारित हो रही हैं और जनता के मुद्दे बदले जा रहे हैं.’ अमित मित्रा समिति ने भी इस ओर यह कहते हुए इशारा किया है कि रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व में में प्रसारकों, विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों की हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए ताकि हितों का टकराव नहीं हो.
 
केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक अखबार को दिए साक्षात्कार में इस बात की ओर इशारा किया कि सरकार दखल के विकल्प पर विचार कर रही है. उन्होंने कहा, ‘सरकार तब तक इस प्रक्रिया में दखल नहीं देना चाहती जब तक यह सामग्री को नहीं प्रभावित करती हो. यह सरकार की जिम्मेदारी है कि लोगों को सही चीजें देखने को मिलें. दूसरी बात यह है कि विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है तो ऐसे में आखिर लोग यह कैसे कह सकते हैं कि सरकार इस मामले में पक्षकार नहीं है. देश का सबसे बड़ा चैनल दूरदर्शन भी सरकारी है.’ अंबिका सोनी की बात उम्मीद बंधाने वाली लगती तो है लेकिन टीआरपी समिति की सिफारिशों का हश्र देखकर निराशा ही पैदा करती है.
 
एक बात तो साफ है कि टीआरपी मापने की मौजूदा प्रक्रिया टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसलिए हर तरफ यह बात उठती है कि टीआरपी मीटरों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए. पर सैंपल विस्तार में बढ़ोतरी नहीं होने के लिए मीटर की लागत को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अमित मित्रा समिति ने टीआरपी की प्रक्रिया में सुधार के लिए मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने की सिफारिश की है. गांवों का प्रतिनिधित्व सुनिश्‍चित करने के लिए समिति ने इनमें से 15,000 मीटर गांवों में लगाने की बात कही है. समिति के मुताबिक इस क्षमता विस्तार में तकरीबन 660 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है.
 
इस बारे में सिद्धार्थ कहते हैं, ‘हम इस बात के लिए तैयार हैं कि मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस काम को करने के लिए पैसा कौन देगा. अगर विज्ञापन और टेलीविजन उद्योग के लिए हमें इसके लिए पैसा देने या फिर सब्सक्रिप्शन शुल्क बढ़ाने को तैयार हो जाते हैं तो हम मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए तैयार हैं.’ गौरतलब है कि विज्ञापन एजेंसियां और खबरिया चैनल टैम से मिलने वाले टीआरपी आंकड़ों के लिए सब्सक्रिप्शन शुल्क के तौर पर चार लाख रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च करती हैं. जो जितना अधिक पैसा देता है उसे उतने ही विस्तृत आंकड़े मिलते हैं. वैसे सिद्घार्थ की इस बात में दम इसलिए भी नहीं लगता कि 29,700 करोड़ रुपये के टेलीविजन उद्योग को हर साल 10,300 करोड़ रुपये के विज्ञापन मिलते हैं. इसलिए सही और विश्वसनीय आंकड़े हासिल करने के लिए 660 करोड़ रुपये खर्च करने में इस उद्योग को बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए.
 
ठाकुरता कहते हैं, ‘टेलीविजन उद्योग के पास पैसे की कमी नहीं है. मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए होने वाला खर्च यह उद्योग आसानी से जुटा सकता है. पर यहां मामला नीयत का है. अगर टैम की नीयत ठीक होती तो मीटरों की संख्या बढ़ाने या इसमें हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की बात चलती लेकिन अब तक ऐसा होता नहीं दिखा. जब भी मीटरों की संख्या बढ़ी है तब यह देखा गया है कि ऐसा विज्ञापनदाताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया गया. इससे साबित होता है कि टैम जो टीआरपी देती है उसका दर्शकों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है.’
 
भारत में टीआरपी के क्षेत्र में मची अंधेरगर्दी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां रेटिंग करने वाली कंपनियों के पंजीकरण के कोई निर्धारित प्रणाली नहीं बनाई गई. यह बात खुद सूचना और प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती ने संसदीय समिति के समक्ष स्वीकार की. संसदीय समिति ने इस बात की सिफारिश की है कि रेटिंग प्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए स्वतंत्र, योग्य और विशेषज्ञ ऑडिट फर्मों द्वारा रेटिंग एजेंसियों की ऑडिटिंग करवाई जाए. अमित मित्रा समिति ने भी यह सिफारिश की है. ऐसा करने से यह सुनिश्चित हो सकेगा की आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी नहीं हो रही है. हालांकि, टैम यह दावा करती है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से आंतरिक ऑडिटिंग करवाती है.
 
ठाकुरता कहते हैं, ‘अगर टैम चाहती है कि टीआरपी पर लोगों का भरोसा बना रहे तो उसे कई कदम उठाने होंगे. सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह अपने मीटरों की संख्या बढ़ाए. मीटर हर वर्ग के घरों में लगाए जाएं. गांवों तक इनका विस्तार हो और पूरे मामले में जितना संभव हो सके उतनी पारदर्शिता बरती जाए. कोई ऐसी व्यवस्‍था भी बननी चाहिए जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्‍ध हो.’
 
सुधार की बाबत एनके सिंह कहते हैं, ‘पिछले दिनों ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के बैनर तले कई खबरिया चैनलों के संपादको की बैठक हुई. इसमें यह तय किया गया कि हम टीआरपी की चिंता किए बगैर खबर दिखाएंगे.’ पर विज्ञापन और आमदनी के दबाव के बीच क्या संपादक ऐसा कर पाएंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘यह काफी कठिन काम है क्योंकि बाजार का दबाव हर तरफ है लेकिन अब ज्यादातर समाचार चैनलों के संपादक इस बात पर सहमत हैं कि टीआरपी की चिंता किए बगैर अपना चैनल चलाना होगा. क्योंकि टीआरपी संभ्रांत वर्ग की पसंद-नापसंद को दिखाता है न कि हमारे सभी दर्शकों की रुचि को.’
 
आशुतोष कहते हैं, ‘ऐसा बिल्कुल संभव है कि खबरिया चैनल टीआरपी पर ध्यान न देते हुए खबरों का चयन करें. इसके लिए संपादक और प्रबंधन दोनों को अपने-अपने स्तर पर मजबूती दिखानी होगी. यह समझना होगा कि टीआरपी किसी भी खबरिया चैनलों का मापदंड नहीं हो सकता.’ वे कहते हैं, ‘अगर आप पिछले डेढ़ साल में समाचार चैनलों में सामग्री के स्तर पर आए बदलाव को देखेंगे तो पता चलेगा कि सुधार हो रहा है. यह सुधार रातोंरात नहीं हुआ है. बल्‍कि टीवी चैनलों पर सिविल सोसायटी, सरकार और सबसे अधिक दर्शकों का दबाव पड़ा है. दर्शक चैनलों को गाली देने लगे और समाचार चैनलों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया. इसके बाद बीईए बना और आपस में समाचार चैनलों के संपादक बातचीत करने लगे और सुधार की कोशिश की गई. इस बीच न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी आत्मनियमन की दिशा में काम किया. इसका असर अब दिख रहा है और समाचार चैनलों में हार्ड न्यूज एक बार फिर से लौट रहा है. मैं यह दावा नहीं कर रहा कि सभी चैनलों में सुधार आया है. कुछ चैनल अब भी टीआरपी के लिए खबरों को फैंटेसी की दुनिया में ले जाकर दिखा रहे हैं. इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है. लेकिन समय के साथ वे भी सुधरेंगे.’
 
अमित मित्रा समिति ने यह भी कहा है कि हर रोज और हर हफ्ते रेटिंग जारी करने से चैनलों पर अतिरिक्त दबाव बनता है इसलिए इसे 15 दिन में एक बार जारी करने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही बात आशुतोष भी कहते हैं, ‘या तो टीआरपी की व्यवस्‍था को पूरी तरह से बंद किया जाए. अगर ऐसा संभव नहीं हो तो हर हफ्ते टीआरपी के आंकड़े जारी करने की व्यवस्‍था बंद हो. हर छह महीने पर आंकड़े जारी हों. इससे दबाव घटेगा और खबरों की वापसी का रास्ता खुलेगा. टीआरपी के मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए और इसका बंटवारा आबादी के आधार पर हो. साथ ही हर क्षेत्र के मीटर को बराबर महत्व (वेटेज) दिया जाए.’ इस बीच एनबीए ने टैम मीडिया रिसर्च से आंकडे जारी करने की समय-सीमा में बदलाव की मांग की है. एनबीए का कहना है कि टीआरपी आंकड़े जारी करने की अवधि को साप्ताहिक से मासिक कर दिए जाने से यह मीडिया के लिए ज्यादा लाभप्रद रहेगा. एनबीए द्वारा टैम से यह बातचीत पिछले कुछ दिनों से हो रही थी लेकिन अब एनबीए ने टैम को लिखित तौर पर पत्र देकर टीआरपी जारी करने की अवधि में बदलाव करने की गुजारिश की है.
 
टीआरपी का सफर
 
इस पर बात आगे बढ़ाने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर इस टीआरपी की व्यवस्था की शुरुआत किस वजह से और कैसे हुई. भारत में टेलीविजन प्रसारण की शुरुआत 15 सितंबर 1959 को दूरदर्शन के जरिए हुई थी. एक सरकारी चैनल से शुरू हुआ टेलीविजन देश में आज एक बहुत बड़े उद्योग का शक्ल अख्तियार कर चुका है. इसमें भी निजी चैनलों में जो विस्तार दिख रहा है वह पिछले सिर्फ दो दशकों का ही नतीजा है. क्योंकि इसके पहले देश में केबल टेलीविजन नहीं था और सिर्फ दूरदर्शन के सहारे ही टीवी पर सूचनाओं  और मनोरंजन आधारित कार्यक्रमों का संप्रेषण हो पाता था.
लंबे समय तक दूरदर्शन के पास भी कोई ऐसा साधन नहीं था जिसके आधार पर वह अपने कार्यक्रमों की लोकप्रियता का पता लगा सके. न ही विज्ञापनदाताओं के पास कोई ऐसा साधन था जिसके आधार पर उन्हें पता चल सके कि किस कार्यक्रम को ज्यादा देखा जा रहा है और किसे कम. मीडिया विशेषज्ञ वनिता कोहली खांडेकर ने अपनी किताब ‘दि इंडियन मीडिया बिजनेस’ में लिखा है कि भारत में टेलीविजन कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने का काम 1983 में शुरू हुआ. उस वक्त एक विज्ञापन एजेंसी थी हिंदुस्तान थॉम्पसन एसोसिएट्स. इसकी सहयोगी सर्वे एजेंसी इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो (आईएमआरबी) ने उस वक्त दूरदर्शन के कार्यक्रमों का सर्वेक्षण करके यह बताया कि कौन सा कार्यक्रम लोग देखते हैं और किस समय देखते हैं.
हालांकि, सुनियोजित तौर पर दूरदर्शन के कार्यक्रमों की रेटिंग तय करने का काम 1986 में तब शुरू हुआ जब तीन सर्वे एजेंसियों आईएमआरबी, एमआरएस-ब्रुक और समीर ने इसके लिए हाथ मिलाया. उस वक्त आईएमआरबी ने देश के आठ शहरों में कुल 3,600 डायरी वितरित किए.
 
ये डायरी उस वर्ग के लोगों तक पहुंचाए गए जिनकी राय विज्ञापनदाता जानना चाहते थे. टीवी देखने वालों से यह आग्रह किया गया कि वे टीवी पर कम से कम पांच मिनट तक जो कार्यक्रम देखें उसे इस डायरी में दर्ज करें. उस दौर में हर घर में टेलीविजन होता नहीं था. बहुत सारे ऐसे लोग भी थे जो दूसरे के घरों में जाकर टेलीविजन देखते थे. ऐसे लोगों को भी डायरी दी गई. इन डायरियों में दर्ज जानकारियों के आधार पर भारत में रेटिंग की विधिवत शुरुआत हुई.
 
इसके बाद देश में केबल टेलीविजन की शुरुआत हुई और सीएनएन, स्टार और एमटीवी जैसे चैनल आए. इसे देखते हुए रेटिंग में इनके कार्यक्रमों को भी शामिल किया गया और डायरी में इन चैनलों के कार्यक्रमों का विकल्प भी दर्ज किया गया. हालांकि, शुरुआती दिनों में दूरदर्शन अपने कार्यक्रमों की लोकप्रियता जानने के लिए खुद की दूरदर्शन ऑडिएंस रिसर्च टेलीविजन रेटिंग चलाता था. इसके लिए आंकड़े दूरदर्शन के दर्शक अनुसंधान इकाईं द्वारा अपने 40 केंद्रों और 100 आकाशवाणी केंद्रों द्वारा एकत्रित किए जाते थे.
 
इसके बाद कुछ ही सालों में केबल चैनलों की बढ़ती संख्या और लोकप्रियता को देखते हुए सर्वे एजेंसियों को यह लग गया कि अब डायरी से काम नहीं चलेगा और अब तो मीटर लगाना ही पड़ेगा. उस वक्त विज्ञापनदाताओं, सर्वे एजेंसियों और चैनलों के प्रतिनिधियों की एक साझा समिति बनी और तय हुआ कि मीटर लगाकर रेटिंग की व्यवस्था शुरू की जाएगी. इसी बीच आईएमआरबी ने एसी नीलसन के साथ समझौता किया और यह प्रस्ताव दिया कि वे रेटिंग का काम टैम के जरिए करने के लिए तैयार हैं. साझा समिति ने 1996 के जुलाई में इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया लेकिन पैसे की कमी की वजह से टैम शुरू नहीं हो पाया. पर इस बीच ओआरजी-मार्ग ने इनटैम के जरिए रेटिंग की शुरुआत कर दी.
 
टैम ने पैसे जुटाने के बाद 1998 से रेटिंग का काम शुरू किया. टैम को शुरू करने का श्रेय इंडियन सोसाइटी ऑफ एडवरटाइजर्स, इंडियन ब्रॉडकास्ट फाउंडेशन और एडवरटाइजिंग एजेंसिज एसोसिएशन ऑफ इंडिया को जाता है.
 
2002 में एसी नीलसन का अधिग्रहण ओआरजी-मार्ग की प्रमुख कंपनी वीएनयू ने कर लिया. इसका परिणाम यह हुआ कि इनटैम का टैम का विलय हो गया और नई कंपनी बनी टैम मीडिया रिसर्च. उस वक्त यह भारत में रेटिंग देने वाली इकलौती कंपनी थी लेकिन 2004 में एक और कंपनी एमैप ने यह काम शुरू कर दिया. अभी टैम नीलसन कंपनी और कंटर मीडिया रिसर्च के संयुक्त उपक्रम के तौर पर काम कर रही है.


सुधार की ओर
 
टेलीविजन रेटिंग व्यवस्था को दुरुस्त करने के मकसद से प्रसारकों और विज्ञापन क्षेत्र की बड़ी कंपनियों ने मिलकर कुछ महीने पहले ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल यानी बार्क का गठन किया है. बार्क कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 25 के तहत गठित की गई है और यह एक गैर लाभकारी संस्था होगी. जब बार्क का गठन किया गया था तो कहा गया था कि यह ब्रिटेन की ब्रॉडकास्टर्स ऑडिएंस रिसर्च बोर्ड यानी बार्ब के मॉडल को अपनाएगी. हालांकि, अब तक बार्क की कोई उल्लेखनीय गतिविधि दिखी नहीं है.
 
भारत की परिस्थितियों में बार्ब की कार्यपद्धित को सबसे उपयुक्त बताया जा रहा है. इसके पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं. पहली बात तो यह कि इसके पैनल का डिजाइन समानुपातिक है और किसी भी भौगोलिक और जनसांख्यिकीय अनुपातहीनता को दूर करने के लिए इसमें पर्याप्त ध्यान दिया जाता है. इसके पैनल में समाज के सभी आयु वर्ग और सामाजिक वर्ग का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया है. बार्ब 52,000 साक्षात्कारों के आधार पर अपना सालाना सर्वेक्षण करता है. इस सर्वेक्षण की रूपरेखा इस तरह तैयार की गई है कि साक्षात्कार के लिए ब्रिटेन के किसी भी घर को चुना जा सकता है. बार्ब ने अपने हर काम के लिए एक अलग एजेंसी या कंपनी के साथ अनुबंध कर रखा है. इससे आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ की संभावना कम हो जाती है. बार्ब हर रोज भी आंकड़े मुहैया कराती है और साप्ताहिक स्तर पर भी.
 
अमेरिका में टेलीविजन रेटिंग जारी करने का काम मीडिया रिसर्च काउंसिल (एमआरसी) करती है. यह एजेंसी जो आंकड़े एकत्रित करती है उसकी ऑडिटिंग प्रमाणित लोक लेखा एजेंसियां करती हैं. इसके बाद काफी विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाती है. इस रेटिंग में जनसां‌ख्‍यिकीय आधार पर नमून एकत्रित किए जाते हैं. इसमें मीटर के अलावा डायरी और साक्षात्कार का भी सहारा लिया जाता है. कनाडा में रेटिंग का काम ब्यूरो ऑफ ब्रॉडकास्ट मेजरमेंट (बीबीएम) करती है. यह एजेंसी नमूनों के चयन के लिए टेलीफोन डायरेक्टरी का सहारा लेती है और साल में तीन बार सर्वेक्षण करती है. ये नमूने हर बार बदलते रहते हैं. इस सर्वेक्षण के लिए जिन घरों का चयन किया जाता है उन्हें एक डायरी दी जाती है और इसमें उन्हें हफ्ते भर तक यह दर्ज करना होता है कि वे कौन सा चैनल किस समय देख रहे हैं. इस सर्वेक्षण में हर बार नमूनों में बदलाव होने से ज्यादा लोगों की राय दर्ज रेटिंग में शामिल हो पाती है.
 
रोचक तथ्य
 
607 देश में कुल टेलीविजन चैनलों की संख्या
250 नए चैनल खोलने के लिए आवेदन पड़े हैं सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास
13.8 करोड़ भारतीय घरों में पहुंच गया है टेलीविजन
60 करोड़ लोग देश भर में देखते हैं टेलीविजन
10.3 करोड़ घरों में केबल और डीटीएच के जरिए देखा जा रहा है टीवी
8,150 मीटरों के जरिए तय कर दी जा रही है टीआरपी, गांवों में मीटर नहीं
30,000 मीटरों की संख्या बढ़ाकर करने की सिफारिश की है अमित मित्रा समिति ने
15,000 मीटर ग्रामीण इलाकों में है लगाने का प्रस्ताव
660 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है मीटरों की संख्या बढ़ाने में
29,700 करोड़ रुपये का है भारत में टेलीविजन क्षेत्र का कारोबार
63,000 करोड़ रुपये का हो जाएगा भारतीय टेलीविजन उद्योग 2015 तक
10,300 करोड़ रुपये सालाना आमदनी टेलीविजन उद्योग को

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