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आधुनिक टेक्सटाइल उद्योग में ठेका मजदूरी या बंधुआगीरी-1

Apr 19, 2012 | Pratirodh Bureau
चंद वर्षों पहले तक अखबार की सुर्खियों से मजदूर गायब रहता था. यह सिलसिला टूट रहा है. यह और बात है कि इस खबर को कैसे छापा जाता है और छापने का उद्देश्य क्या होता है. पर, मजदूर वर्ग की गतिविधियों को टाल सकना अखबार मालिकों के लिए मुश्किल हो गया है. 
 
मार्च 2012 के महीने में गुड़गांव, हरियाणा में दो ऐसी घटनाएं हुईं जिसमें पुलिस के पीसीआर वैन को जला दिया गया, लाठी बरसाने गई पुलिस घायल हुई और उसे तत्काल भागना पड़ा. थोड़े से समय में हजारों मजदूर इकठ्ठा हो गए और अपने गुस्से का खुला इजहार किया. 
 
जब ये घटनाएं घट रही थीं उस समय संसद में बजट पेश किया जा रहा था और यह दावा किया जा रहा था कि देश में गरीबी घट रही है. इस बढ़ रही ‘संपन्नता’ को बचाने के लिए ही संसद में अब तक का सबसे बड़ा रक्षा बजट पेश किया गया और हथियार की खरीद में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया. मजदूरों का खून चूसने वाले शॉप फ्लोर को इतनी छूट देने का आश्वासन दिया गया कि विकास दर में भारत लगातार आगे बना रहे. 
 
कह सकते हैं कि मजदूर किसानों के खून चूसने की गति जितनी तेज होगी उतनी ही भारत के विकास की गति दर होगी. इसका यह भी तर्जुमा किया जाता कि विकास की मशीन जितनी तेजी से अधिक आदमी को अपने से बाहर फेंकती है वही देश की विकास दर है. यह फेंकना किसी भी रूप में हो सकता है. भाषाई, धार्मिक, क्षेत्रीय, समुदायिक,… और भी इसी तरह के पहचान वाले लोगों की सामुहिक हत्या से लेकर आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक तौर पर उन्हें बरबार करके भी. 
 
मार्च के महीने में ही अमेरीका की पत्रिका ‘टाइम’ फासिस्ट मोदी को ‘बिजनेस लीडर’ के पद से नवाजा. अमरीकी कारपोरेट जगत भारतीय शासक वर्ग के ‘मोदियों’ को ‘विकास’ के रास्ते पर और तेज गति से चलने का संकेत दे रहा था. 
 
‘मोदी अर्थात बिजनेस’ के इस नारे का क्या यह अर्थ साफ है, बिजनेस अर्थात हत्या. देश का विकास जिस रास्ते पर तेजी से बढ़ता जा रहा है वहां इसका यही अर्थ रह गया है. बिजनेस के लिए जमीन हथियाने के दौरान हत्या, बिजनेस में हत्या, मुनाफा कमाने और इस बढ़ाने में हत्या और इस मुनाफे पर विलास करने के लिए हत्या; मोदी का यह रोल मॉडल गुजरात से लेकर बस्तर व गुड़गावं तक फैला हुआ है. 
 
बहरहाल, गुड़गांव में फैक्टरी हो या रियल स्टेट वहां मजदूरों की मौत का साम्राज्य फैला हुआ है. सीधी मौत और धीमा मौत भी. उदारीकरण, नीजीकरण के इस तीसरे दशक की शुरुआत में जो दृश्य उपस्थित हो रहा है वह निश्चय ही काफी कुछ बदला हुआ है. यहां टेक्सटाइल उद्योग में काम करने वाले मजदूरों को जी सकने के न्यूनतम वेतन से इतना कम दिया जा रहा है जिसमें एक इन्सान का जीवित बने रहना भी एक ‘विशिष्टता’ है. मजदूरी में उसकी ‘कुल सामाजिक लागत’ की कोई गिनती ही नहीं है. उसके कुल उत्पादन में से उसे कितना हिस्सा दिया जाता है यह एक शोध का विषय है. ओरिएन्ट क्राफ्ट में ठेकेदार व मालिक के खिलाफ मजदूरों का फूट पड़ा गुस्सा इस बदलाव की हकीकत को काफी कुछ बयान करता है.
 
घटना: 
 
‘गुड़गांव एक बार फिर उबला’- द इंडियन एक्सप्रेस, 20 मार्च 2012, के दिल्ली पेज की मुख्य खबर के साथ गाडि़यों के जलाने, लाठीचार्ज के लिए उतावली व घायल पुलिस और ओरिएन्ट क्राफ्ट फैक्टरी के टूटे हुए शीशे की कुल पांच फोटो लगाया गया था. आधे पेज से उपर के इस खबर में कांट्रेक्टर द्वारा मजदूरों से की गई मारपीट पर मुख्य जोर दिया गया था. 
 
हिन्दुस्तान टाइम्स से लेकर सारे अखबारों के गुड़गांव संस्करण में यह खबर मुख्य पेज पर था. यह खबर तीन दिनों तक छपती रही. 23 मार्च 2012 को एक बार फिर मजदूरों ने पुलिस की गाड़ी को जला दिया गया और साइट ऑफिस पर हमला किया. यह घटना सेक्टर 58 में घटी. इसी समय मारुती सुजुकी मोटरसाइकल प्रा. लि. में भी मजदूर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. चंद अखबारों ने दबे दबे स्वर में मजदूरों पर हो रही ज्यादतियों के बारे में कुछ रिपोर्ट भी छापा. इस विस्फोटक स्थिति पर हरियाणा श्रम व रोजगार मंत्रालय ने तुरंत चांज कमेटी बनाया और चंद दिनों बाद इसने रिपोर्ट भी दे दिया: ‘हालात बिगड़ने का कारण कांट्रेक्ट है. ओरिएन्ट क्राफ्ट को इनका लाइसेंस रद्द कर देना चाहिए.’
 
हीरो होंडा चैक के पास सेक्टर 37 में हाइवे के दोनों तरफ ओरिएन्ट क्राफ्ट की कंपनियां हैं. घटना इस कंपनी के 9 व 13 में घटी. अखबार व हमारे छानबीन के दौरान जो बात सामने आई उसमें इस घटना की तात्कालिक पृष्ठिभूमि फैक्टरी में रविवार यानी 18 मार्च 2012 को ठेकेदार द्वारा मजदूर को काम पर आने के लिए जोर देना है. इस दिन भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच था. और यह रविवार का दिन था जिस दिन अधिकारिक तौर पर छुट्टी रहती है. इस दिन कई सारे मजदूर काम पर नहीं आए. 19 मार्च को ठेकदार लवली सिंह ने अपने कमरे में न आने वाले मजदूरों को बुलाकर बुरा सलूक कर रहा था. एक अनुमान के अनुसार ऐसे मजदूरों की संख्या सौ थी. ऐसे ही न आने वाले मजदूरों में से एक नसीब और अनिल के साथ गाली गलौच करना शुरु कर दिया. इस कहा सुनी के दौरान लवली सिंह ने एक बड़ी कैंची से हमला किया और नसीम के हाथ में मार दिया. वह बुरी तरह घायल हो गया. वह खून से लथपथ जैसे ही बाहर हुआ व अन्य मजदूर उसके आसपास इकठ्ठा हुए ठेकेदार, मालिक व सुपरवाइजर सक्रिय हो गए और इन मजदूरों को गेट से बाहर कर दिया. फैक्ट्री के मजदूर तुरंत इकठ्ठा हुए और गेट खोलकर बाहर आ गए. मजदूरों ने फैक्ट्र गेट के बाहर खड़ी मालिक ठेकेदारों की गाडि़यों को जलाना शुरू कर दिया. ठेकेदारों ने पुलिस बुला लिया. पुलिस आमतौर पर जितनी तैयारी से पहुंचती है उतनी तैयारी से नहीं पहुंची. 
 
एक मजदूर संगठनकर्ता के अनुसार इसका कारण सिर्फ इतना था कि इन पुलिस वालों के लिए यहां काम करने वाले मजदूर ‘बिहारी’ थे. पुलिस व स्थानीय ठेकेदार आदि पंजाब व हरियाणा से बाहर के राज्यों से आने वाले सभी लोगों के लिए ‘बिहारी’ संबोधन ही प्रयोग करते हैं. जिस समय पुलिस ओरिएन्ट क्राफ्ट के 9 व 13 न. गेट पर पहुंची है मजदूर पूरे गुस्से में थे. उन्होंने पुलिस पर जमकर पथराव किया और पुलिस की जिप्सी को उलट कर फूंक दिया. कई पुलिस वाले घायल हुए.
 
कुल तीन घंटे तक मजदूरों ने वहां की सारी गतिवधि को अपने नियंत्रण में रखा. इस दौरान मजदूरों ने लवली सिंह पर मजदूरों ने हमला किया या नहीं, इस बात का खुलासा नहीं हो पाया. लेकिन फैक्ट्री का प्रंबंधक समूह सक्रिय हो गया और मजदूरों को अपने पक्ष कर लिया. सह. प्रबंधक ने ठेकेदार लवली सिंह के खिलाफ प्राथमिकी-एफआईआर दर्ज कराया. हालांकि उस पर दायर केस इतना कमजोर था कि उसे थाने से ही जमानत मिल गई. 7 मजदूरों पर अटेम्ट टू मर्डर-307 व दंगा फसाद करने का मुकदमा दर्ज हुआ. कुल 10 मजदूरों की गिरफ्तारी हुई. इसमें से पांच मजदूर एक ही मकान में रहने वाले हैं जिन्हें वहां से पकड़ा गया. ये सभी मोतीहारी जिले के हैं. इससे साफ पता चलता है कि गिरफ्तारी मनमाने तरीके से की गई.
 
घायल नसीम के परिवार, रिश्तेदार व क्षेत्र के जानने वाले लोग इकठ्ठा हो गए. एक अनुमान के अनुसार यह संख्या 150 से उपर थी. प्रबंधकों ने नसीम को अस्पताल में भर्ती करा दिया था. और इकठ्ठा हुए लोगों के साथ ‘समझौता’ हो गया. घटना की रात से ही नसीम ने अपना बयान कई बार बदला. कभी वह सीढ़ी से गिरकर शीशे से चोट खाने की बात कही तो कभी झगड़े के दौरान गिर जाने से चोट लगने का बयान दिया. नसीम भी मोतीहारी जिले से आता है. वह कपड़े का काम करने वाली मुस्लिम समुदाय से आता है. इस समुदाय के काफी बड़ी संख्या मंे गुड़गांव व दिल्ली में काम करते हैं. ‘बात आगे न बढ़ाने’ और ‘सारे मामले को पटरी पर ला देने’ के आश्वासन के साथ प्रबंधक ने तीन दिनों के भीतर मजदूरों को काम पर वापस बुला लिया. 24 मार्च 2012 को दोपहर में लगभग बीस लोगों की एक टीम दिल्ली से ओरिएन्ट क्राफ्ट के गेट पर इस उम्मीद में पहुंची कि मजदूरों से बातचीत कर यहां के हालात को जाना जाय और मजदूरों के साथ एक रिश्ता कायम किया जाय. उस मजदूरों को लंच के लिए बाहर आने नहीं दिया गया और रात में लगभग 9 बजे उन्हें काम से छोड़ा गया. एक बार फिर चार दिनों बाद गेट से थोड़ी दूरी पर खड़े हो चार सदस्यीय टीम ने मजदूरों से बातचीत का सिलसिला बढ़ाया. मजदूरों ने बातचीत किया लेकिन इस घटना से मजदूर कोई सबक निकाल सकने की स्थिति में नहीं थे. मजदूर इस घटना से इतना जान रहे थे कि ठेकेदार व प्रबंधक-मालिक पहले से कहीं अधिक ‘अच्छा व्यवहार’ करने लगे थे.

ओरिएन्ट क्राफ्ट: लूट का आधुनिक ढांचा:
 
अखबार की रिपोर्ट के अनुसार ओरिएन्ट क्राफ्ट लिमिटेड गुड़गांव, 1978, में अस्तित्व में आया. विदेशी बाजार व कंपनियों के लिए काम करने वाली इस गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग कंपनी की कुल 21 संस्थान हैं जिसमें 25 हजार मजदूर काम करते हैं. यहां चालीस फैशन ब्रांड कंपनियों जिसमें मार्क जैकब, मार्क स्पैंसर, एन टेलर आदि लेबल वालों के लिए सिलाई का काम होता है. ‘मनीकंट्रोल.काम’ के साइट के अनुसार 2004-2005 में इसका टर्नओवर 650 करोड़ रूपए का था. 2010 तक यह 850 करोड़ हो चुका था. यहां सिल्क, ऊनी, सूती, सिंथेटिक आदि कपड़ों पर काम होता है. यह निर्यात आधारित काम है. फोब्र्स पत्रिका के साथ 30 अप्रैल 2010 को बातचीत में कंपनी के निदेशक सुधीर ढींगरा के अनुसार प्रतिदिन 1,50,000 पीस का उत्पादन होता है. यहां 2000 तरह की डिजाइन पर काम होता है. डिजाइन, इंब्राइडरी, कट आदि के चलते मजदूर सामान्य मूल्य पर दुगुना यानी प्रति शर्ट 10 डालर का मूल्य जोड़ते हैं. उत्पादन बढ़ाने के लिए डिजाइन बनाने के लिए कम्युटराइज्ड टकएकाड नाम की तकनीकी का प्रयोग 2008 से शुरू किया गया. इससे कपड़ों के सिकुड़न और नाप को और अधिक सटीक करने के साथ साथ केवल नाप की फिडिंग से कपड़ों की कटाई में गति काफी तेज हो गई. स्टीचवल्र्ड.काम के अनुसार उत्पादकता में 40 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई. कंपनी के चेयरमैन व प्रबंध निदेशक सुधीर ढींगरा इस कंपनी को दुनिया की सबसे बड़ी पांच कपड़ा उद्योग में से एक बना देने की कोशिश में हैं. इन्होंने लिवाइस कंपनी के स्पेन स्थित एक प्लांट को खरीदा है. आंध्र प्रदेश के विशेष आर्थिक क्षेत्र में 300 करोड़ का प्लाॅट खरीदा है जिसमें 50 यूनिट के लिए 2000करोड़ रूपए का निवेश करने में लगे हुए हैं. इसी तरह गुड़गांव के मानेसर में 334 एकड़ का प्लाट खरीदकर कंपनी का विस्तार किया और 2011 में उत्पादन शुरू कर दिया. 6 बिलियन डालर वाली विदेशी कंपनी ली एंड फंग ने हाल में ओरिएन्ट क्राफ्ट को आउटसोर्स करने का निर्णय लिया है. गुड़गांव, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, ओखला और मानेसर में 20 से 21 प्रोडक्शन यूनिट काम कर रही हैं. यह सिर्फ टेक्सटाइल कंपनी ही नहीं है. यह अपने एसइजेड के साथ रियल स्टेट, होटल, अस्पताल, रेजिडेंसियल यूनिट्स बनाने में भी निवेश कर रही है. राजस्थान के भीलवाड़ा में ग्रीनहाउसिंग योजना पर इस कंपनी में काम करना शुरू किया है. 
 
ओरिएन्ट क्राफ्ट प्रा. लि. के लिंकेदिन प्रोफाइल के अनुसार कंपनी के तीन मालिक हैं. सुधीर ढींगरा इस कंपनी का चेयरमैन और प्रबंध निदेशक है. इसके नीचे प्रबंधक व चीफ एक्जीक्युटिव ऑफिसर हैं. इसके बाद सुपरवाइजरों की श्रेणी है. ये दो तरह के है: पहला, कंपनी की ओर से नियुक्त. दूसरा, ठेकेदारों की ओर से काम करने वाले. कंपनी अपना काम करने के लिए मजदूरों को दो तरह से नियुक्त करती है. पहले प्रकार में वह खुद सीधे तौर पर मजदूरों को भर्ती लेती है. इन मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों की संख्या का 5 से 7 प्रतिशत तक है. ये मजदूर जरूरी नहीं है कि नियमित हों. आमतौर पर इन मजदूरों को जिस लॉग बुक पर हस्ताक्षर करवाया जाता है वह दो से तीन सालों में बदल दिया जाता है. सेक्टर 37 के कंपनी संख्या 8 व 9-13 के कुछ ऐसे मजदूरों से बातचीत हुई जो वहां लगभग दस सालों से काम कर रहे हैं. लेकिन वे नियमित नहीं हैं. उनके काम को दो या तीन साल में रीन्यू-फिर से नियुक्ति के रूप में गिना जाता है. कह सकते हैं कि वहां वस्तुतः सीधी भर्ती में भी कोई नियमित मजदूर नहीं है. यदि हम मारुती सुजुकी जैसी आॅटोमोबाइल कंपनी के हालात को देखें तो वहां 5साल काम करने के बाद मजदूरों को किसी न किसी बहाने काम से निकालने की तैयारी शुरू हो जाती है. मानेसर में मजदूरों के आंदोलन में यह भी एक मुद्दा था.
 
ओरिएन्ट क्राफ्ट के 9-13 में लगभग 90 प्रतिशत मजदूर ठेकेदारों द्वारा नियुक्त किए गए हैं. इन ठेकेदारों में भी कई प्रकार हैं. प्रबंधक आमतौर मजदूर की उपलब्धता अधिकतम ठेकेदारों के द्वारा करते हैं. कुछ ठेकेदार ऐसे भी हो सकते हैं जिनके तहत 6 या 7 मजदूर हों तो दूसरी ओर 200 मजदूर हों. आज देश के लगभग सारे औद्योगिक क्षेत्र में पंजीकृत व गैरपंजीकृत ठेकेदारों की भारी संख्या है. गुड़गांव में ये हर गली में हैं और ये एक पूरी श्रृंखला चलाते हैं. ओरिएन्ट क्राफ्ट के इस कंपनी में मजदूरों से बातचीत करने पर ठेकेदारों के प्रकार ये थे: काम का ठेका लेकर फैक्टरी में अपने मजदूरों के साथ कमा करने वाला ठेकेदार, पीस रेट पर काम करने वाले मजदूरों को उपलब्ध कराने वाला ठेकेदार, सफाई व तकनीकी काम करने वाला और इसका काम करने वाले मजदूरों को उपलब्ध कराने वाला ठेकेदार, सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराने वाला ठेकेदार.
 
इसके बाद काम करने वाला मजदूर आता है जिसकी पीठ पर पूरा फैक्ट्री चलती है और मुनाफा कमाने में देश की अग्रणी कंपनियों में से एक बनने का दावा कर रही है. मजदूरों से आम तौर पर सुबह 8.30 से रात 9.30 तक काम कराया जाता है. कई बार यह रात के एक बजे तक चलता रहता है. पर आमतौर पर दो-तीन घंटे अधिक काम करा लेना एक आम बात है. इसका ओवरटाइम देने में काफी कोताही बरती जाती है. अतिरिक्त कुल काम का बमुश्किल 30 से 40 प्रतिशत हिस्से का ही भुगतान किया जाता है. यहां काम करने वाले मजदूरों के प्रकार निम्न हैं: मास्टर, चेकर, फिनिशर्स, इंब्राइडर वर्कर, टेलर्स, हेल्पर, तकनीकी चालक, सफाई कर्मी. इन सब पर लगातार नजर रखने वाला सुपरवाइजर होता है जो ठेकेदारों व प्रबंधकों के लिए काम करता है. मास्टर डिजाइन बनाने, पास करने आदि का काम करता है. इसे तकनीकी काम में महारत होनी चाहिए. कंपनी तकनीक का प्रयोग इसी के माध्यम से करती है. चेकर इस डिजाइन पर काम हो जाने के बाद पीस का नाप जोख कर पास करता है. आमतौर पर यह बहुत से काम को रिजेक्ट कर मजदूरों पर दबाव बनाए रखता है जिससे मजदूरों के प्रति पीस का भुगतान कम रहे. यह गलत सिलाई को रद्द कर देता है या उसे फिर से सिलने के लिए बाध्य करता है. टेलर्स सिलाई का काम करता है. इसी के बदौलत उत्पादन की गति तेज या कम होती है. 
 
ये आमतौर पर पीस रेट पर काम करते हैं जो 45 से 65पैसे प्रति पीस पर काम करते हैं. इससे उन्हें 6000 से 8 या 9 हजार रूपए तक की प्रति महीने आय हो जाती है. हालांकि इसमें काम की उपलब्धता का भी योगदान होता है. काम का सबसे अधिक दबाव इन्हीं पर होता है. प्रतिपीस काम करने की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि वह अपने हिस्से का काम किया और चल दिया. यह स्वतंत्रता प्रतिपीस की है जिस पर उसे भुगतान होना है. काम के घंटे या छुट्टी के मसले पर उससे कोई छूट नहीं होती. उनसे जोर जबरदस्ती की जाती है. काम की गति कम होने पर उनसे मारपीट, गाली गलौच किया जाता है. उनके भुगतान को रोक लिया जाता है कि अगले काम में जोता जा सके. मजदूर के प्रतिपीस आय में ठेकेदार 3 प्रतिशत का हिस्सा बंटाता है. इसके बाद हेल्पर आता है जो धागा, काटे गए कपड़ों को मशीनों की लाइन में सिलाई कर रहे मजदूरों को पहुंचाता है और सिले गए कपड़ों को मास्टर, चेकर तक ले जाता है. सबसे कम तनख्वाह इनकी होती है. मजदूरों से बातचीत के आधार पर यह अधिकतम 4500 रूपए था. सफाईकर्मी मूलतः ठेका पर काम करते हैं और इनकी आय हेल्पर के आस पास थी. मास्टर व चेकर की आय के बारे में मजदूर केवल अनुमान ही लगा रहे थे जो 12 से 13 हजार के आस पास था. इन मजदूरों की श्रृंखला में निश्चय ही आयरन करने वाले मजदूर हांेगे. संभव है यह काम आउटसोर्स किया जा रहा हो. इनके बारे में पता नहीं चल सका. कुल मिलाकर मजदूरों की श्रेणी में आने वालों की प्रति माह आय 4500 से लेकर अधिकतम 15000 हजार रूपए तक है.
 
हमने जितने भी मजदूरों से बात की उनमें से सभी ने बताया कि उन्हें ईएसआई, पीएफ मिलता है. तनख्वाह का भुगतान ठेकेदार करता है. इसका पेस्लीप मिलता है. कानूनन भुगतान के लिए मालिक ही जिम्मेदार है. पर यह काम ठेकेदार अपनी सुविधा के अनुसार करता है. काम की खोज में आने वाले मजदूरों के पास न तो बैंक अकाउंट होता है और न ही कंपनी की ओर से जारी नौकरी का कार्ड. इसका पूरा फायदा ठेकेदार उठाता है. काम हासिल करने व छोड़ने-जिसका सिलसिला मजदूरों को झेलना ही पड़ता है, के चलते पीएफ में कटा हुए पैसा करना एक टेढ़ी खीर है जिसे आमतौर पर ठेकेदार अपने हिस्से में कर ही लेता है. इसी तरह शुरूआती महीनों आय के नगद भुगतान में कटौती कर लेता है. सेक्टर 37 में ओरिएन्ट क्राफ्ट की कुल पांच कंपनियां हैं जिसमें लगभग दस हजार मजदूर हैं. इन मजदूरों की कमाई की लूट का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. और निश्चय ही इसमें और भी सरकारी, गैर सरकारी तत्व अपना खेल खेल रहे हैं.
 
कंपनी में काम करने वाले मजदूरों की उम्र 18 से 35 के बीच है. आंख पर दबाव बनाने वाले इस काम में इसके बाद काम करने वालों की संख्या घटती जाती है. कहने को यहां सप्ताह में एक छुट्टी होती है. यह छुट्टी काम के दबाव में काट दिया जाता है. ठेकेदार उत्पादन पर जोर देने के लिए लगातार दबाव बनाए रखता है जिससे काम का घंटा बढ़ता जाता है. कोई भी ऐसा मजदूर नहीं मिला जिसने काम के घंटे को दस से कम बताया हो और इस अतिरिक्त काम का भुगतान हासिल किया हो. देर रात तक काम करने के बाद ही मजदूरों के सम्मिलित दबाव से ठेकेदार नानुकर के साथ कुछ देने के लिए तैयार होता है. फैक्ट्री के भीतर कैंटीन है जिसमें भुगतान कर चाय व भोजन लिया जा सकता है. यहां काम करने वाले मजदूर आस पास के शेष रह गए गांवों में एबेस्टस या पत्थर की पटिया वाले मकान में रहते है. आज भी ऐसे गांव की गलियां कच्ची हैं और गलियों में बिजली के तार झूलते हैं. पानी की सप्लाई नहीं है. बोरवेल- जमीन का निकाला हुआ निहायत ही खारा पानी पीने के लिए उपलब्ध है. यू आकार में बने मकान में कमरों की संख्या जितनी बन सकती है उतना बनाया जाता है. आठ दस कमरों पर एक लैट्रीन रूम होता है. एक कमरे में तीन लोग रहते हैं. इसमें हवा जाने का रास्ता दरवाजा और दरवाजे के उपर एक छोटा सा मोखा होता है. दिन में भी यहां अंधेरा रहता है. इन कमरों में यदि मकान मालिक चैथा आदमी पकड़ लेता है तो मजदूरों पर जुर्माना लगा देता है. इन रहने वाले मजदूरों के सामने मकान मालिक की शर्त होती है कि उस ‘लाॅज’ के कमरे में उसके द्वारा खोले गए परचून की दुकान से ही सारी खरीददारी करेगा. एक कमरे का किराया 1500 से लेकर 2500 रूपए प्रति महीना तक है. 
 
हरियाणा इंडस्ट्रीयल डेवेलेपमेंट की एक अघोषित नीति है जिसके तहत स्थानीय लोगों को कंपनियां नौकरी पर नहीं रखती और गांव को पहले के अधिकारों के साथ बनाए हुए भी है. इसके चलते मजदूरों की भाषाई, क्षेत्र व सांस्कृतिक स्तर पर स्थानीय लोगों के साथ साफ विभाजन हो जाता है. यह विभाजन काफी खतरनाक हद तक लगातार काम करता रहता है. इन गांवों में रहते हुए मजदूर अलगाव के साथ सिर्फ ’रहता ’ है. ठेकदारी प्रथा के चलते खुद मजदूरों के बीच एक विभाजन की स्थिति रहती है. इससे जीवन काफी दुरुह हो जाता है. ठेकेदार ही नहीं मकान मालिक तक मजदूर के इस हालात का काफी फायदा उठाते हैं. ऐसे में मजदूर गांव-जंवार के रिश्ते, भाषाई व सांस्कृतिक पहचान के आधार पर अपनी जमीन तलाशत रहता है. जरूरत होने पर इससे सहयोग भी लेता है. ओरिएन्ट क्राफ्ट में घटी घटना के दौरान हरियाणा पुलिस का रवैया उतना आक्रामक नहीं रहा जितना आमतौर पर होता है लेकिन इसके तीन दिन बाद सेक्टर 58 में घटी घटना में पुलिस, स्थानीय निवासियों ने ‘बिहारियों को सबक’ सिखाने के लिए सम्मिलित हमला किया. मजदूरों को अधमरा होने तक मारा, पैसा-मोबाइल छीन लिया और 250 लोगों को पकड़ा जिसमें से लगभग 50 पर केस दर्ज कर पुलिस ने अन्य को 4 से 5 हजार रूपए तक लेकर छोड़ दिया.
 
रिहाइश व काम के इस हालात में मजदूर अपनी आय का किसी 60 प्रतिशत हिस्सा बचाता है. जिसे वह अपने गांव भेज देता है. गांव में ये पैसे घर बनाने, खेत के लिए बीज खाद, परिवार के सदस्य की शादी या दवा, परिवार चलाने आदि में खर्च हो जाता है. कोई भी ऐसा मजदूर नहीं मिला जो गुड़गांव या दिल्ली में रहने का ख्वाब देखता हो. सच्चाई यह है कि इन क्षेत्रों में 20 हजार रूपए तक की कमाई करने वाला व्यक्ति भी अपने पूरे परिवार के साथ बसने की सोच नहीं सकता. जाहिर है मजदूर यहां बस सकने की स्थिति में नहीं है. वह यहां के जिन रिहाइशों में रह रहा है वह उसे जिस स्तर के अलगाव में ले जाता है जिसके चलते न केवल काम की अस्थिरता साथ ही ठहराव की अस्थिरता भी बन जाती है. नोएडा, ओखला, गुड़गांव, फरीदाबाद, साहिबाबाद-गाजियाबाद के विशाल औद्योगिक फैलाव में रियल इस्टेट का कारोबार इतना बड़ा बन चुका है जिसमें मजदूरों को ठहरने के लिए भी जगह नहीं है. यह एक ऐसी औद्योगिक संरचना है जिसमें मजदूर करोड़ों की संख्या में- अनुमान के अनुसार 20 करोड़, लगातार आवाजाही कर रहा है. इस आवाजाही व मजदूर ‘होने’ पर भाषा, संस्कृति, धर्म और रिश्तेदारी का भार नीति निर्माताओं ने डाल रखा है. एक तरफ वे ‘मुक्त’ करने के लिए जनता के खिलाफ लगातार युद्ध लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर ‘बस जाने के अधिकार’ से भी वंचित करने की नीति पर बड़े पैमाने पर अमल किया जा रहा है. शेष काम औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाली नीतियां कर ही दे रही हैं. जो बच जाता है उसे न्यायालय के आदेश पूरा कर दे रहे हैं. एक मजदूर से बातचीत के दौरान जब मैंने उसके सामने यह स्थिति रखी कि गांव में खेती-मजदूरी घाटे की है और यहां शहर में कंपनी में काम करने पर भी जितना मिलना चाहिए उससे भी काफी कम मिलता है. तो यहां काम करना भी घाटे का है, इन दोनों में से आप किसे चुनेंगे? उनका जवाब था: ‘‘शहर में जब तक काम है हाथ में पैसा है, भले ही कम मिलता है. पर यहां रहने में स्थिरता नहीं है. गांव में कुछ भी है वहां स्थिरता है. वहां कोशिश करने पर घर दुआर जमीन तो अपना बना रहता है.
 
(इस लेख को आगे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें. दो भागों में समाप्त)

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