‘आंदोलन’ और ‘क्रांति’ का जजंतरम…ममंतरम
Aug 13, 2011 | Pratirodh Bureauसारा का सारा देश (जो टीवी ग्रस्त है) पलकों में तीलियां फंसाए अपलक अपने अपने टीवी सेटों से चिपका बैठा था. सब के सब अचानक से भारतीय हो गए थे… राष्ट्रभक्ति और खेल भावना से भरे हुए. टीम इंडिया का खेल देखने में लोग यों जुटे कि टीआरपी के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए. इसी वर्ल्डकप विद इंडिया वैडिंग का रिसेप्शन शुरू हुआ पांच अप्रैल को, जंतर-मंतर पर. एक बुजुर्ग व्यक्ति गांधी टोपी और धवल वस्त्रों में सफेद चादर वाले मंच पर आसीन हो गए. इनके बगल में एक भगवा वस्त्रधारी स्वामी जी, एक मैग्सेसे प्राप्त पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और कुछ सामाजिक कार्यों के दक्ष मैनेजर. पीछे भारत माता, तिरंगा ध्वज लेकर चलती हुई. ऐसा लग रहा था जैसे आरएसएस के प्रकाशन का विमोचन मंच है और अन्ना मुख्य अतिथि हैं. खैर, अनशन का आगाज़ हुआ. अन्ना हजारे तकिया लेकर बैठ गए.
वैसे अन्ना जैसे कई बैठते हैं इस जगह पर. साल भर होते हैं प्रदर्शन, सत्याग्रह, धरने, रैलियां. ये धरने-प्रदर्शन अपनी नीयत और सवालों को लेकर ज़्यादा ईमानदार होते हैं. पर इसबार बात जन लोकपाल बिल की थी. अन्ना की मंडली का मानना है कि जन लोकपाल बिल आते ही भ्रष्टाचार इस देश से ऐसे गायब हो जाएगा जैसे डिटॉल साबुन से गंदगी. बाबा रामदेव के दिशा निर्देशन में पहले ही जन लोकपाल बिल का खाका बन चुका था. अब इसे सरकार को सौंपना था. सरकार इसे माने और वैसे ही माने जैसे कि अन्ना मंडली चाहती है, इसके लिए सीधा रास्ता तो कोई संभव नहीं था सो बात तय हुई अनशन की. सवाल उठा कि अनशन पर कौन बैठे… अन्ना या रामदेव. फिर लगा, गांधी टोपी की ओट में और एक उम्रदराज बुजुर्ग को सामने रखकर हित साधना सबसे आसान होगा. सो अनशन शुरू हुआ. वर्ल्डकप क्रिकेट के दौरान जन लोकपाल रुका रहा. विश्वकप क्रिकेट खत्म हुआ. इसके हफ्ते बाद आईपीएल था. सो मीडिया फिर से मशरूफ हो, उससे पहले ही मंच तान दिया गया. अनशन का मसनद मंच पर और अन्ना उसपर आसीन. अनशन का बस एक ही मुद्दा था कि सरकार इस मंडली को मान्यता दे. उसे लोकपाल बिल की सरकारी कमेटी का हिस्सा बनाए. सारी लड़ाई कमेटी की.
श्री श्री रविशंकर की ऑफिसियल इवेंट मैनेजमेंट टीम साउंड और टेंट लेकर जम गई. लंगर परंपरा को पापनाशक मानने वाले अभिजात्य, धनी लोग गाड़ियों में मिनरल वॉटर की पेटियां लेकर पहुंच गए. कई छोटी-बड़ी एनजीओ न्यौत दी गईं. बैनरों और कनातों की तादाद बढ़ती चली गई. नफीसा अली, फरहा खान, अनुपम खेर जैसे नकली चेहरे मौके की चाशनी पर मक्खियों की तरह आ कर भिनभिनाने लगीं. कुछ राज्यों की राजधानियों में भी 10-12 लोगों की टीम किसी आश्रम या एनजीओ से निकलकर सड़क पर अन्ना समर्थन में आ गईं. मीडिया में पहले से मज़बूत पैठ रखने वाले और सालाना जलसों में मीडिया को पुरस्कार देने वाले समाजसेवी मीडिया मैनेजमेंट में लग गए. दो बड़े मीडिया संस्थानों के मालिकों को एक पहुँचे हुए बाबा का फोन गया और उनके चैनल, अखबार अपने सारे पन्ने और सारे कैमरे लेकर इस अभियान में कूद पड़े. बाकी मीडिया संस्थान बिना खबरों वाले दिन में इस ग्रेट जस्टिस फॉर जेसिका अपार्चुनिटी को कैसे हाथ से निकलने देते… ओबी वैन एक के बाद एक… बड़ी बड़ी लाइटें, सैकड़ों कैमरे, हज़ारों टेप, मंडी के सड़े आलुओं की तरह सैकड़ों मीडियाकर्मी फैले पड़े थे. लगा कि लाइव-लाइव खेलते खेलते ही भ्रष्टाचार खत्म. अन्ना लाइव, अरविंद लाइव, सिब्बल लाइव, रामदेव लाइव, स्वामी लाइव, बेदी लाइव… आमजन के तौर पर इक्ट्ठा हुए सैकड़ों लोग भी लाइव में अपना चेहरा चमकाने के लिए हसरत भरी नज़रों से कैमरों की ओर देख रहे थे… कामातुर पुरुषों की तरह. एक कैमरा पैन हुआ.. और ये लीजिए, ज़ोर-ज़ोर से नारे लगने शुरू. भारत माता की जय, वंदेमातरम, भ्रष्टाचार खत्म करो. चेहरे पर तिरंगे, हाथ में तिरंगे, कपड़े तिरंगे, पर्चे तिरंगे, पोस्टर तिरंगे. जैसे युद्ध विजय हो. ये लोग भ्रष्टाचार को मिटाने आए थे. मंच से कमेटी के लिए लड़ाई चल रही थी. यानी एक जगह पर दो अलग-अलग मकसदों का संघर्ष… मंच पर कमेटी में शामिल होने का और मंच के सामने भ्रष्टाचार मिटाने का.
इससे पहले इसी जंतर मंतर पर दलितों की बड़ी रैलियां देखीं. भोजन और काम के अधिकार की लड़ाई के लिए देशभर से आए लोगों को देखा. नर्मदा बचाओ आंदोलन और भोपाल गैस पीड़ितों का संघर्ष देखा. सूचना के अधिकार की लड़ाई देखी. मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ प्रदर्शन देखे. किसानों की बड़ी रैलियां देखीं, वामदलों के और बाकी राजनीतिक दलों के भी बड़े प्रदर्शन देखे. अल्पसंख्यकों की रैलियां और परमाणु समझौता, अमरीका-परस्ती के खिलाफ लामबंद हुए लोगों का हुजूम देखा. इनमें से कई प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से शामिल रहा. पर एक अपारदर्शी, अधकचरे और बिना रीढ़ के अभियान को आंदोलन बनाकर पेश करने का और उसे एक इवेंट की तरह मैनेज करने का इतना बड़ा उदाहरण पहली बार देखा. और देखिए, क्या शानदार और सफल मैनेजमेंट है कि 20 लोगों का इंडिया अगेन्स्ट करप्शन और कुल 10 हज़ार की भ्रमित भीड़ का जनसमर्थन 121 करोड़ लोगों के लिए क़ानून बनाने का लाइसेंस बन गया.
मंच… हाँ मंच पर तो अन्ना थे. अन्ना बोले तो एक गांधीवादी बुजुर्ग, जो भ्रष्टाचार के लिए पिछले कई वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं. महाराष्ट्र में सरकारों को चुनौती देते और सफल होते आए अन्ना भ्रष्टाचार से लड़ रहे एक गांधीवादी के रूप में पहचाने जाते हैं. पर यह क्या, अन्ना और गांधीवादी. मंच से उनकी भाषा सुनकर तो ऐसा नहीं लगा. वैसे, मंच पर सज्जा से लेकर मौजूदगी तक सारे पहलू अन्ना के गांधीवाद पर सवाल उठा रहे थे पर लगा कि शायद भ्रष्टाचार की खातिर अन्ना कोई कड़वा घूंट पी रहे हैं. यह भ्रांति भी अन्ना का मुंह खुलते ही खत्म हो गई. फांसी जैसी सज़ा को खत्म करने पर जब पूरी दुनिया बहस कर रही है, अन्ना फांसी देने की वकालत कर रहे हैं. अन्ना भ्रष्ट लोगों को शाप दे रहे हैं कि उनके बच्चे पागल और शराबी होंगे. अरे, किसी बच्चे के बारे में ऐसी सोच और वो भी इसलिए कि उसका बाप भ्रष्ट है. अन्ना ने कहा, केवल गांधी से काम नहीं चलेगा. और साथ किसे बैठाया… राम माधव को. अन्ना बोले कि राजधर्म निभाना है तो नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की तरह निभाओ. अन्ना ने अपने अनुष्ठान के व्रत को खोलते हुए कहा कि सत्ता को गांव तक पहुंचाना है. ग्राम स्वराज लाना है. पर लाखों किसानों की आत्महत्या अपने ही राज्य में अन्ना देखते रहे. जिस तरह की बारात अन्ना ने अपने इर्द-गिर्द जुटाई, उससे तो अच्छा होता अगर अपने ही राज्य में लगभग एक दशक से आत्महत्या करने को मजबूर किसानों के लिए अन्ना अनशन करने दिल्ली आते. सरकार को विवश करते उस किसान को बचाने के लिए. लोगों के अधिकारों का लड़ाई लड़ रहे अन्ना ने एक बार भी बिनायक सेन के साथ सरकार के तानाशाही और बर्बर रवैये का न तो ज़िक्र किया और न ही उनकी रिहाई की मांग. कह दिया कि वो बिनायक गांधीवादी नहीं हैं…. अरे अन्ना, आप भी गांधीवादी कहां रह गए अब.
अन्ना को रामदेव भ्रष्ट नहीं लगते. राजसत्ता की ओर ललचाई नज़रों से देखता, एक चैनल और चूरन की कई दुकानें चला रहा यह बाबा अन्ना को ईमानदार नज़र आ रहा है. रामदेव की योगपीठ सावन की दूब की तरह अपना कारोबार फैला रही है. इस काम में बाबा के साथ कौन-कौन से नेता, कौन-कौन से उद्योगपति, व्यापारी, भ्रष्ट और अपराधी खड़े हैं, यह अन्ना को नहीं दिखता है. अन्ना, आपको याद दिला दूं कि आपके राज्य में कर्ज से दबे और आत्महत्या को मजबूर किसानों में जीवन की आस जगाने के लिए और आत्महत्याएं रोकने के लिए आर्ट ऑफ लिविंग को भारी भरकम प्रोजेक्ट दिए गए थे. ये कैसे संत हैं और किस संत परंपरा से आते हैं जो समाज के काम को पैसा पाने के अवसर की तरह देखती है. शर्म आनी चाहिए हमें ऐसे भ्रष्ट और झूठे मठाधीशों पर… और आप इनके साथ मोमबत्ती जलाने चले हैं. दरअसल, वैचारिक रूप से, राजनीतिक रूप से, चारित्रिक रूप से, नैतिक रूप से और सांस्कृतिक रूप से भ्रष्ट, कुंठित और अपराधी मठाधीश आपको समर्थन के लिए संख्या और रोकड़ा जुटाने वाले स्रोत दिखते है. यहाँ एक बात और बताना चाहता हूं कि इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के जो 20 सूत्रधार उनकी वेबसाइट पर दिखाई दे रहे हैं, उनमें से 40 प्रतिशत तो धर्माचार्य हैं. अब यह समझ से परे हैं कि धर्म की अफीम में बौराए बाबाओं, मौलवियों और फादरों के भरोसे कौन सी क्रांति और किस तरह के क़ानून की तैयारी अन्ना कर रहे हैं. क्या ऐसा संभव है कि धर्म की दुकान चलाने वाले ठेकेदार लोकतंत्र को मज़बूत करने वाला क़ानून और आंदोलन खड़ा कर सकते है. बाबा रामदेव ने श्री श्री रविशंकर और अन्ना, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल के साथ 27 फरवरी, 2011 को दिल्ली में एक रैली की. विदेशों से काले धन को वापस लाने और भ्रष्टाचार के विरोध में. इस रैली के मंच से अरविंद ने लोगों से कहा कि पाँच अप्रैल से शुरू हो रहे अनशन को समर्थन देने के लिए ज़रूर आएं. अगर अनशन की तारीख पहले से ही तय कर ली थी तो इसके बाद प्रधानमंत्री को पत्र लिखने और एनएसी के साथ जन लोकपाल बिल के मसौदे पर काम करने की क्या ज़रूरत थी. अनशन से ठीक पहले तक एनएसी के साथ भी बैठे रहे और फिर अनशन पर भी बैठ गए. स्पष्ट है कि इस तरह से इस पूरे आंदोलन और कानून का क्रेडिट हाईजैक करने और एकाधिकार बनाने का षडयंत्र चल रहा था.
बौद्धिक दखल रखने वाले एक बड़े हिस्से को आखिर तक और कुछ को तो अभी तक समझ में नहीं आया है कि इस पूरे ड्रामे को किस तरह से लिया जाए. कुछ लोग इस भ्रम और अनिर्णय में मंच तक जा पहुंचे कि कहीं एक बड़ी लड़ाई में तब्दील होते इस सिविल सोसाइटी कैम्पेन से वो अछूते न रह जाएं. कहीं ऐसा न हो कि समाज और मीडिया उनसे पूछे कि जब इतना बड़ा यज्ञ हो रहा था तो आप अपनी आहुति की थाली लेकर क्यों नहीं पहुंचे. इस बौद्धिक समाज को नहीं दिखा कि बिनायक के सवाल को खारिज करके अन्ना मोदी भजन गा रहे थे. इस समाज को नहीं दिखा कि मीडिया कैम्पेन और मास कैम्पेन में क्या फर्क होता है. इस समाज को नहीं दिखा कि उनका समर्थन उन्हें केवल रेलगाड़ी का डिब्बा बना रहा है, इंजन नहीं. नेतृत्व और श्रेय की कटोरी तो अन्ना और उनकी भगवा मंडली के हाथ ही रही. यह सही है कि कुछ असहमतियों के बावजूद हम कई आंदोलनों के साथ खड़े होते रहे हैं ताकि एक बड़े हित के लिए एकजुट हो सकें पर इसकी भी परिधि तो निर्धारित करनी ही होगी कि किस हद तक हम असहमतियों को किनारे रखकर साथ चल सकते हैं. अन्ना के इस ताज़ा अभियान के सिर से पैर तक ऐसे तर्क भरे पड़े हैं जिनसे असहमत होना चाहिए.
कुछ समाजशास्त्री और विचारकों के लेख यह कहते भी मिले कि जिस तरह से ‘आम आदमी’ इस लड़ाई में कूदा है, इसका हिस्सा बना है, उसकी ताकत को तो समझना ही होगा और स्वीकारना भी. बिल्कुल समझें और स्वीकारें. पर ताकत को समझने की प्रक्रिया में इस ‘आम आदमी’ को भी पहचानते चलें. जंतर मंतर पर आए कई लोगों की भावनाओं और ईमानदार प्रयासों का मैं सम्मान करता हूं. पर अपनी आंखों से जो देखा, उससे पता चला कि यह तो विश्वकप की जीत का रिपीट टेलीकास्ट है. यह तो फोटो अपार्चुनिटी की मृग-मरीचिका है. आंखें क्रांति से ज़्यादा कैमरे खोजती नज़र आ रही थीं. यह नो वन किल्ड जेसिका कैम्पेन के इर्द-गिर्द तान दिया गया एक्टिविस्ट टूरिज़्म का तंबू लग रहा था जिसमें लोग – यू नो, दिस इस कॉल्ड रिवोल्यूशन- को लाइव एंड नेकेड देखने आ रहे थे. लोगों की निजी बातचीत और तैयारियां यही उद्घटित करती नज़र आ रही थीं. किसी को कुछ भी खबर नहीं… जन लोकपाल बिल क्या है, किसलिए है, क्या होगा, कैसे होगा, किन बातों को उसका हिस्सा बनाएं… मोटा-मोटा अनुमान भी नदारद. बस, एक धुन कि भ्रष्टाचार खत्म करो. ये लोग उस आम आदमी की पौध हैं जो य़ूथ फॉर इक्वेलिटी के बैनर तले आरक्षण के खिलाफ भी लड़ाई लड़ रहे हैं. जो कहते हैं कि बांधों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोग विकास विरोधी हैं. जो मानते हैं कि रक्षा बजट बढ़ाना चाहिए और अमरीका से दोस्ती और गहरी होनी चाहिए. जिन्हें मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों का बाज़ार सबसे ज़्यादा लुभावना सच लगता है. एक संकटग्रस्त सशंकित मध्यवर्ग… मेरा देश महान हो, आरक्षण खत्म हो जाए, मेरी नौकरी सदा सुरक्षित रहे, मुझे अपने काम के लिए रिश्वत न देनी पड़े, ऐसे ही हो जाए… भले ही मैं कन्या भ्रूणों को मारता रहूं, बेटे को ज़्यादा तरजीह देता रहूं. विज्ञान की कक्षा से निकलूं और सीधे ईश्वर की गोद में बैठ जाउं, बेटा आईआईटी से इंजीनियर बने और तत्काल अमरीका चला जाए किसी बड़े पैकेज पर. आरक्षण मेरे बेटे की तरक्की का रास्ता न रोके. शादी जाति में ही हो. मेरे बच्चे के स्कूल में गंदे बच्चे न हों और मेरी कॉलोनी के पास बसी झुग्गी उजाड़ दी जाए. मेरी पत्नी घर पर रहे और मेरी सेक्रेटरी सुंदर हो. किसानों, मजदूरों की ये रैलियां दिल्ली से बाहर हों ताकि मैं ऑफिस टाइम से पहुंचूं और मेरे भाई की फ्लाइट मिस न हो. अफसोस, मगर इसी पैरासाइट इंडियन के सहारे यह अभियान चलाया गया है और हम इसे जैनुइन क्राउड विद ग्रेट हार्ट मानकर चल रहे हैं.
सबसे ज़्यादा अहम सवाल तो यह है कि ये मंडली नीतिगत बदलावों और मूलभूत नीतियों के बारे में कुछ बोलती या इस दिशा में प्रयास करती नज़र नहीं आ रही है. सारी लड़ाई बस क़ानून की बदौलत. बेशक, देश में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक सशक्त क़ानून की ज़रूरत है. पर क्या केवल जन लोकपाल बिल का बनना और लागू होना इस देश की जड़ों से लेकर शीर्ष तक, अंतिम व्यक्ति से लेकर प्रथम व्यक्ति तक और माइक्रो स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के सारे भ्रष्टाचार से निपट पाने में सक्षम होगा. क्या राशन की दुकानों के बंदरबांट से लेकर स्पैक्ट्रम जैसे सारे घोटालों की पुनरावृत्ति को इस क़ानून के आने भर से रोका जा सकता है. और फिर उस भ्रष्टाचार का क्या जो नीतियों के स्तर पर हो रहा है और देश की नसों में पीप की तरह बहने लगा है. परमाणु समझौता, खनिज संपदा का दोहन, वैज्ञानिक एवं तकनीक विकास में पिछड़ापन, गुणवत्ता के लिए आयात पर निर्भरता, विदेश नीति में पश्चिम की सेंध, जंगलों और कृषि योग्य भूमि के बर्बर आवंटनों तक का भ्रष्टाचार क्या इस क़ानून की परिधि में लाया और खत्म किया जा सकेगा. अगर इस बारे में इस नई मंडली की राय और दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है तो फिर इनके नेतृत्व में लड़ी जा रही भ्रष्टाचार की लड़ाई क्या अधूरी नहीं रह जाएगी. भ्रष्टाचार से त्रस्त आम आदमी के विश्वास की इन लोगों के हाथों हत्या मत होने दीजिए वरना आंदोलनों से लोगों का विश्वास हट जाएगा.
रामदेव कहते हैं कि भ्रष्टाचार खत्म करो और भारतीय होने का स्वाभिमान पैदा करो. देश को दिशा देने के लिए धार्मिक क्रांति लाओ और अगले चुनाव में उनकी पार्टी को वोट देना शुरू करो. ये बाबा और उनका स्वाभिमान हमें जनतंत्र की ओर नहीं, अंध राष्ट्रवाद के अंजाम पर पहुंचाता है. श्री श्री रविशंकर कहते हैं कि भ्रष्टाचार मिटाओ और मेरे शिविर में आ जाओ. आर्ट ऑफ़ लिविंग को समझो. जीवन संघर्ष नहीं, कला है और उसका अकेला गुर मेरे पास है. मंडली के बाकी कुछ लोग मंच लोलूप हैं… किसी राजनीतिक, वैचारिक समझ से परे हर मंच को सामाजिक कार्यों के तमगे की महान अपार्चुनिटी के तौर पर देखते हैं. इस मंडली में सबके अपने अपने स्वार्थ हैं. कोई सिविल सोसाइटी वाला है, कोई समानान्तर दक्षिणपंथ है, कोई शुद्ध दक्षिणपंथी है, कोई कन्फ़्यूज़ है और कोई अवसरपंथी है. ऐसी भ्रमित मंडली भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या से लड़ाई की सेनाध्यक्ष कतई नहीं बन सकती. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ और उसकी पोषक व्यवस्था के खिलाफ़ आम आदमी की लड़ाई का तो भविष्य है और वह भविष्य उजला है पर इस नेतृत्व का कोई भविष्य नहीं इसलिए इससे बचें.
इस देश में मेरी या किसी भी आम आदमी की भ्रष्टाचार के प्रति पीड़ा और आक्रोश इस पूरी जंतर-मंतर मंडली से कहीं अधिक है. विधवा पेंशन से लेकर पट्टा आवंटन तक भ्रष्टाचार सबसे प्रभावी अधिकारी की तरह चीज़ों को तय कर रहा है. दूसरी ओर नीतियों के स्तर पर बुनियादी हकों और मुद्दों से सरकारें खेल रही हैं. आम आदमी दोतरफा भ्रष्टाचार झेल रहा है. वो पीड़ित व्यक्ति जिसके हिस्से का राशन किसी नौकरशाह के जूते की खरीद में बिक गया है और जिसके अस्तित्व और संपदा को कुछ नीति निर्धारकों ने बाज़ार में कौड़ियों के मोल बेच दिया है, उसकी इस पीड़ा और आक्रोश को नेतृत्व चाहिए. एक स्पष्ट और मज़बूत नेतृत्व, जो इस लड़ाई को दूर तक ले जाए और क़ानून बनाने से लेकर नीतिगत बदलावों तक मज़बूत क़दम उठाने की दिशा में प्रयास करे. ऐसे प्रयास हो भी रहे हैं, वामदलों की ओर से और कुछ छोटे-बड़े समूह राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर इस लड़ाई को लड़ रहे हैं ताकि एक मज़बूत क़ानून भी बने और सरकार नीतिगत स्तर पर बड़े बदलाव करने को मजबूर भी हो. हमें इन संगठनों के साथ खड़ा होना होगा. उनकी ताकत और लड़ाई को मज़बूत बनाना होगा. इस लड़ाई के लिए एक राजनीतिक नेतृत्व की ओर बढ़ना होगा ताकि बड़े बदलाव की ओर यह देश बढ़े. इस अहम लड़ाई के लिए छद्म और अपरिपक्व, स्वार्थी समाजसेवियों की मंडली को नेतृत्व सौंपने की भूल मत कीजिए क्योंकि ये भ्रष्टाचार के खिलाफ आम भारतीय के दिलों में जल रही आग को अपनी रोटियां सेंकने के लिए इस्तेमाल करके उसे फिर से एक भ्रष्ट और चरमराते लोकतंत्र के सामने छोड़ देंगे. जिन बुनियादी मुद्दों के लिए हम वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर मुद्दों से इन लोगों का कोई सरोकार नहीं, बल्कि आपकी लड़ाई इन्हें अराजक, विकास विरोधी और पिछड़ी सोच नज़र आती है. हम लड़ें पर इस देश के किसानों के लिए, अल्पसंख्यकों के लिए, मजदूरों और भूमिहीनों के लिए, दलितों और पिछड़ों के लिए, जल, जंगल और ज़मीन के लिए, भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिए एक अच्छे और लोकतांत्रिक ढंग से लाए गए जन लोकपाल बिल के लिए… इस मध्यवर्ग के कंधे पर बैठकर चलाए जा रहे आर्थिक अभियानों के खिलाफ, संसाधनों के अवदोहन और बंदरबांट के खिलाफ, आम लोगों के खिलाफ इस्तेमाल होती सेना, पुलिस और व्यवस्था के खिलाफ़, फांसीवादी और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ़, सरकार की अमरीका परस्ती के खिलाफ़. ऐसे कई षडयंत्रों के खिलाफ़ जिसने बहुमत भारत की कीमत पर एक छोटी आबादी का हित देखा है.
ताज़ा परिस्थितियों में अन्ना और उनकी मंडली भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आम भारतीय की लड़ाई के नाम पर स्वांग ही कर रही है क्योंकि न तो यह मंडली जन लोकपाल बिल के प्रति ईमानदार है और न ही इस मंडली के लोगों पर भरोसा करके हम देश के लिए एक अहम क़ानून की रचना का दायित्व सौंप सकते हैं. समर्थन में खड़ी मेधा पाटकर और कमेटी में शामिल प्रशांत भूषण और ऐसे कुछ समझदार और मजबूत साथियों को इन बातों पर विचार करना चाहिए.