Skip to content
Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Primary Menu Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us
  • Featured

बथानी टोला: वे ख़्वाब जो ज़िंदा हैं

Apr 18, 2012 | सुधीर सुमन
(बिहार के बथानी टोला जनसंहार मामले में निचली अदालत द्वारा सज़ा प्राप्त सभी 23 अभियुक्तों को पटना हाई कोर्ट द्वारा बरी किए जाने पर तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जा रही हैं. जुलाई 2010 में बथानी टोला के शहीदों का स्मारक बनाया गया था. उसी मौके पर यह संस्मरणात्मक टिप्पणी समकालीन जनमत के लिए लिखी गई थी. 1996 में उस नृशंस कत्लेआम के लगभग एक माह बाद मैं बथानी टोला गया था और वहां से लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के नाम बथानी टोला की गरीब-मेहनतकश जनता द्वारा हस्ताक्षरित एक अपील लेकर आया था. लेकिन कई बड़े लेखकों ने जिस तरह जनता का साथ देने के बजाय सम्मान और पुरस्कार का पक्ष लिया था और उसके पक्ष में तर्क दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाया. इस टिप्पणी में यह जिक्र है कि 2010 में लोवर कोर्ट ने हत्यारों को सजा दी, लेकिन अभी चंद रोज पहले जिस तरह हाई कोर्ट ने तमाम अभियुक्तों को बरी कर दिया है और जिस प्रकार बिहार सरकार और उसकी पुलिस हत्यारों की मदद कर रही है, उससे मैं बेहद क्षुब्ध हूं. यह सरासर अन्याय है और इसका पुरजोर विरोध होना चाहिए. भाकपा-माले के कार्यकर्ता और समर्थक इस फैसले के खिलाफ सड़कों पर हैं, मैं भी इस विरोध में शामिल हूं. इस अन्यायपूर्ण फैसले पर जल्दी ही कुछ लिखूंगा, फिलहाल 2010 में लिखी यह टिप्पणी भेज रहा हूं. इस उम्मीद के साथ कि इस तरह के जो अन्यायपूर्ण फैसले सामने आ रहे हैं और इसमें सरकारों की जो भूमिका है, उसके खिलाफ साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी और लोकतंत्रपसंद नागरिक एकजुट होंगे)
 
बादल थे आसमान में. जिधर से हम गए थे उधर से सीधी कोई सड़क उस टोले में नहीं जाती थी तब, पगडंडियों से होते हुए बीच-बीच में घुटने भर पानी से गुजरकर हम वहां पहुंचे थे. शोक, दुख और क्षोभ गहरा था. पूरे माहौल में अभी भी कुछ दिन पहले हुए कत्लेआम का दर्दनाक अहसास मौजूद था. जले हुए घर और बची हुई औरतों की सिसकियां बाकी थीं. नौजवानों के तमतमाते चेहरे थे. वहां मैं देश के लेखकों के नाम उस अपील की प्रति लाने गया था, जिसमें जनसंहार में मारे गए लोगों के परिजनों ने उनसे बिहार सरकार के पुरस्कार को ठुकराने और बथानी टोला आने का आग्रह किया था. शाम करीब आ रही थी. देर से मैंने कुछ खाया न था, संकोच में किसी से कुछ कह नहीं पा रहा था. तभी एक साथी मुझे मिट्टी के दीवारों और खपड़ैल वाले एक घर में ले गए और खाने को मुझे रोटी-सब्जी दी गई. खाना खा ही रहा था कि किसी ने बताया कि पटना से कोई आया है. 
 
हाथ धोकर बाहर आया तो देखा कि राजधानी से एक सुप्रसिद्ध गांधीवादी लोगों को सांत्वना देने आए हैं, पता नहीं उन्होंने क्या कहा था कि एक नौजवान पार्टी कार्यकर्ता तेलंगाना किसान आंदोलन का हवाला देते हुए उनसे बहस कर रहे थे. उनके पास कार्यकर्ता के सवालों का कोई जवाब तो नहीं था, हां, मारे गए लोगों के प्रति सहानुभूति जरूर थी. लेकिन संवेदना और विवेक के दावेदार जिन लेखकों को वहां पहुंचना चाहिए था, वे नहीं आए. बथानीटोला के निवासियों के साथ-साथ देश भर में भी साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने यह अपील की थी कि ‘सरकारी सम्मान ठुकराकर, साहित्य का सम्मान बचाएं/ पुरस्कृत होने राजधानी नहीं, बथानी टोला आएं’. सीधा तर्क यह था कि बिहार की सरकार इस बर्बर सामंती-सांप्रदायिक-वर्णवादी रणवीर सेना को प्रश्रय देती रही है, इस नाते लेखकों को इसका विरोध करना चाहिए. इसके बावजूद हंस संपादक राजेंद्र यादव सहित कई लोगों ने बिहार सरकार से ‘शिवपूजन सहाय शिखर सम्मान’ लिया. मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि दलित-अल्पसंख्यक और महिलाओं के प्रति फिक्रमंद दिखने वाले राजेंद्र यादव की संवेदना को हो क्या गया था! सार्त्र जो उनके बड़े प्रिय है उन्होंने तो नोबेल जैसे पुरस्कार को सड़े हुए आलू का बोरा बताते हुए ठुकरा दिया था. मगर राजेंद्र जी से एक लाख रुपया भी ठुकराना संभव नहीं हुआ. 
 
वह पूरा दौर ऐसा था जब हिंदू पुनरूत्थानवाद से मुकाबले के लिए दलित-मुस्लिम और पिछड़ों की एकता की बात राजनीति में खूब की जा रही थी और कुछ लोग इस एजेंडे को साहित्य में भी लागू कर रहे थे, यहां तक की कहानियां भी इस समीकरण के अनुकूल लिखवाई जा रही थीं, पर जहां इन समुदायों की जमीनी स्तर पर वर्गीय एकता बन रही थी उसे साहित्य में आमतौर पर नजरअंदाज किया गया. बथानी टोला, बिहार के भोजपुर जिले का एक छोटा-सा टोला भर नहीं रह गया है अब, जहां अखबारों के अनुसार 11 जुलाई 1996 को गरीब-अल्पसंख्यक-दलित समुदाय के 8 बच्चों, 12 महिलाओं और 1 पुरुष  को एक सामंती सेना ने एक कम्युनिस्ट पार्टी के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया की लड़ाई में मार डाला था. उसके सवाल बहुत बड़े हैं और वे सवाल भारत के गांवों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे के जनतांत्रिक रूपांतरण की जरूरत से गहरे तौर पर जुड़े हुए हैं. 
 
रणवीर सेना और उसके सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह ने तब अखबारों में यह कहकर कि महिलाएं नक्सलाइट पैदा करती हैं, कि बच्चे नक्सलाइट बनते हैं, बथानी टोला सहित तमाम पैशाचिक जनसंहारों को जायज ठहराने का तर्क दिया था. लेकिन गोहाना, खैरलांजी और मिर्चपुर सरीखे जो जनसंहार अब तक जारी हैं, वे किन नक्सलाइटों के खात्मे के लिए हो रहे हैं? ग्रामीण समाज में जिस वर्णवादी-सांप्रदायिक-सामंती वर्चस्व को कायम रखने के लिए अब तक उत्पीड़न और हत्या का क्रूरतम खेल जारी है, वह कैसे रुकेगा? कांग्रेस-भाजपा तो छोडि़ए, क्या जद-यू, बसपा जैसी पार्टियां भी उस वर्चस्व को ही बरकरार रखने में शामिल नहीं हैं, क्या उनके शासन में जाति-संप्रदाय-लिंग के नाम पर उत्पीड़न और हत्याएं नहीं जारी हैं?
 
सेकुलरिज्म के नाम पर तमाम किस्म के अवसरवादी गठबंधन बनते हमने लगातार देखा है. साहित्य में भी खूब सेकुलरिज्म की बातें होती रही हैं. क्या इससे बड़ा सेकुलरिज्म कोई हो सकता है कि मान-मर्यादा और सामाजिक बराबरी के साथ-साथ इमामबाड़ा, कर्बला और कब्रिस्तान की जमीन को भूस्वामियों के कब्जे से मुक्त करने की लड़ाई में मुसलमानों के साथ दलित, अतिपिछड़े और पिछड़े समुदाय के खेत मजदूर और छोटे किसान भी शामिल हों? यही तो हुआ था भोजपुर के उस इलाके में और उस गांव बड़की खड़ाव में, जो लड़ाई वहां के भूस्वामियों को बर्दास्त नहीं थी. उन्हें किसी मुस्लिम का मुखिया बनना बर्दास्त नहीं था. नईमुद्दीन, जिनके छह परिजन बथानी टोला जनसंहार में शहीद हुए, वे बताते हैं कि बड़की खड़ांव गांव में जब रणवीर सेना ने मुस्लिम और दलित घरों पर हमले और लूटपाट किए, तब 18 मुस्लिम परिवारों सहित लगभग 50 परिवारों को वहां से विस्थापित होना पड़ा. उसी के बाद वे बथानी टोला आए. वहां भी रणवीर सेना ने लगातार हमला किया. जनता ने छह बार अपने प्रतिरोध के जरिए ही उन्हंे रोका. पुलिस प्रशासन-सरकार मौन साधे रही. आसपास तीन-तीन पुलिस कैंप होने के बावजूद हत्यारे बेलगाम रहे और सातवीं बार वे जनसंहार करने में सफल हो गए.
 
किसी खौफनाक दुःस्वप्न से भी हृदयविदारक था जनसंहार का वह यथार्थ. 3 माह की आस्मां खातुन को हवा में उछालकर हत्यारों ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी थी. पेट फाड़कर एक गर्भवती स्त्री को उसके अजन्मे बच्चे सहित हत्या की गई थी. नईमुद्दीन की बहन जैगुन निशां ने उनके तीन वर्षीय बेटे को अपने सीने से चिपका रखा था, हत्यारों की एक ही गोली ने दोनों की जिंदगी छीन ली थी. 70 साल की धोबिन लुखिया देवी जो कपड़े लौटाने आई थीं और निश्चिन्त थीं कि उन्हें कोई क्यों मारेगा, हत्यारों ने उन्हें भी नहीं छोड़ा था. श्रीकिशुन चैधरी जिनकी 3 साल और 8 साल की दो बच्चियांे और पत्नी यानी पूरे परिवार को हत्यारों ने मार डाला था वे आज भी उस मंजर को भूल नहीं पाते और चाहते हैं कि उस जनसंहार के सारे दोषियों को फांसी की सजा मिले. 
 
हाल में सेशन कोर्ट द्वारा उस हत्याकांड के 53 अभियुक्तों में से 23 को सजा सुनाई गई है. जबकि लोग चाहते हैं कि सारे अभियुक्तों को सजा मिले. खासकर रणवीर सेना सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह को ऐसी सजा मिले ताकि वह भविष्य के लिए एक नजीर बन सके. लेकिन राजद की सरकार के बाद बिहार में जो जद-यू-भाजपा की सरकार आई है, वह भी रणवीर सेना के संरक्षकों को बचा रही है. नीतिश कुमार ने तो मुख्यमंत्री बनते ही अपना रुख जाहिर कर दिया था. सरकार में आते ही उन्होंने पहले अमीरदास आयोग को भंग किया जिसे आंदोलनों के दबाव में रणवीर सेना के राजनीतिक संरक्षकों की जांच के लिए बनाया गया था. बिहार में हाथ मिलाते हुए नीतिश और नरेंद्र मोदी की तस्वीर के छपने पर खूब हंगामा हुआ था. नीतिश बाबू गुजरात के कत्लेआम में बहे बेगुनाहों के लहू से अपने दामन को बचाने का नाटक कर रहे थे और बथानी टोला के वक्त रणवीर सेना को संरक्षण देने वाली राजद और दूसरी शासकवर्गीय पार्टियां नीतिश के खिलाफ बयानबाजी करके अपने को सेकुलर साबित करने की जी तोड़ कोशिश कर रही थीं. 
 
ब्रह्मेश्वर सिंह तो भाजपा का ही सदस्य रहा है. नीतिश के हाथ तो इस स्तर पर भी सांप्रदायिकता और वर्णवादी घृणा के पैरोकारों के साथ मिले हुए हैं. नीतिश बाबू बिहार में महिला जागरण के प्रतिनिधि के बतौर खुद को पेश करते हैं, उनसे एक सवाल बथानी टोला की उस राधिका देवी- जो सीने पर हत्यारों की गोली लगने के बावजूद जीवित रहीं और धमकियों के बावजूद गवाही दिया- की ओर से भी है कि क्या उन्हें हत्यारों के संरक्षकों को बचाते वक्त जरा भी शर्म नहीं आती? क्या नीतिश कुमार या कोई भी सरकार बड़की खड़ांव गांव से विस्थापित 50 दलित-अल्पसंख्यक परिवारों को उसी गांव में निर्भीकता और बराबरी के साथ रहने की गारंटी दे सकती है? सुशासन और जनतंत्र की तो यह भी एक कसौटी है. 
 
 बथानी टोला एक ऐसा आईना है जिसमें सभी राजनीतिक दलों की असली सूरत आज भी देखी जा सकती है. दिन रात संघर्षशील जनता को अहिंसा का उपदेश देने वाली तमाम राजनीतिक पार्टियां जहां अपने गरीब विरोधी चरित्र के कारण हत्यारों के पक्ष में चुप्पी साधे हुए थीं, वहीं प्रशासन के दस्तावेजों में उग्रवादी और हिंसक बताई जाने वाली भाकपा-माले ने उस वक्त बेहद संयम से काम लिया था. रणवीर सेना को भी एक अर्थ में सलवा जुडूम के ही तर्ज पर शासकवर्गीय पार्टियों का संरक्षण हासिल था. लेकिन रणवीर सेना की हत्याओं की प्रतिक्रिया में जिस संभावित बेलगाम प्रतिहिंसा के ट्रैप में भाकपा-माले को फंसाने की शासकवर्गीय पार्टियों की कोशिश थी उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली, बल्कि बिहार सहित पूरे देश में माले ने उस दौरान उस जनसंहार के खिलाफ जबर्दस्त जनांदोलन चलाया और सांप्रदायिक-जातिवादी ताकतों को अपनी खोह में लौटने को मजबूर किया. किस तरह मेहनतकश जनता के भीषण गुस्से को बिल्कुल नीचे तक राजनैतिक बहस चलाते हुए माले ने अराजक प्रतिहिंसा में तब्दील होने से बचाया और शासकवर्गीय चाल को विफल किया, वह तो एक अलग ही राजनैतिक संदर्भ है. 
 
हमारे तथाकथित संवेदनशील और विचारवान साहित्यकारों और शासकवर्गीय पार्टियों के लिए भले ही वे पराए थे, लेकिन संघर्षशील जनता और भाकपा-माले के लिए तो वे शहीद हैं. भाकपा-माले ने 14 साल बाद बथानी टोला में उन शहीदों की याद में स्मारक का निर्माण किया है. युवा मूर्तिकार मनोज पंकज द्वारा बनाया गया यह स्मारक कलात्मक संवेदना की जबर्दस्त बानगी है. इससे गरीब-मेहनतकशों के स्वप्न, अरमान, जिजीविषा और अदम्य ताकत को एक अभिव्यक्ति मिली है. इसमें पत्थरों को तोड़कर उभरती शहीदों की आकृति नजर आती है. केंद्र में एक बच्चा है जिसने अपने हाथ में एक तितली पकड़ रखी है, जिसके पंखों पर हंसिया-हथौड़ा उकेरा हुआ है. स्मारक पर शहीदों का नाम और उनकी उम्र दर्ज है, जो एक ओर कातिलों के तरफदारों को सभ्य समाज में सर झुकाने के लिए बाध्य करेगा, वहीं दूसरी ओर संघर्षशील जनता को उत्पीड़न और भेदभाव पर टिकी व्यवस्था को बदल डालने की प्रेरणा देता रहेगा. यही तो कहा था भोजपुर के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के नायक का. रामनरेश राम ने शहीदों के परिजनों और इलाके के हजारों मजदूर-किसानों के बीच स्मारक का उद्घाटन करते वक्त कि एक मुकम्मल जनवादी समाज का निर्माण ही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. जाहिर है दलित-उत्पीडि़त-अल्पसंख्यक-महिला-बच्चों के प्रति संवेदना का दावा करने वाला साहित्य भी इस जिम्मेवारी से भाग नहीं सकता. उसे पक्षधर तो होना ही होगा.
 
खैर, सत्ताओं के इर्द गिर्द नाचते साहित्य का जो हो. मुझे तो 14 साल बाद जून की तपती गर्मी में बथानी टोला पहुंचने और वहां पहुंचते ही संयोगवश पूरे प्राकृतिक मंजर के बदल जाने का दृश्य याद आ रहा है. जैसे ही हम वहां पहुंचे, वैसे ही उसी जमीन पर 10 मिनट जोरदार बारिश हुई, जहां बेगुनाहों का खून बहाया गया था और खौफ के जरिए एक अंतहीन खामोशी पैदा करने की कोशिश की गई थी वहां जीवन का आह्लाद था, पक्षियों का कलरव था और आम के पेड़ के इर्द गिर्द बारिश में भिगते- नाचते बेखौफ बच्चे थे. कल्पना करता हूं कि स्मारक के शीर्ष पर मौजूद बच्चे के हाथ में मौजूद तितली उन्हें खूबसूरत ख्वाबों की दुनिया में ले जाती होगी, वैसे ख्वाब जिसमें हम तमाम आतंक, असुरक्षा, अन्याय और अभाव को जीत लेते हैं, जो ख्वाब साहित्य की भी ताकत होते हैं.

Continue Reading

Previous An assault on freedom
Next खलः सर्सप मात्राणि, पर छिद्राणि पश्यन्ति

More Stories

  • Featured

Dealing With Discrimination In India’s Pvt Unis

2 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

‘PM Modi Wants Youth Busy Making Reels, Not Asking Questions’

18 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

How Warming Temperature & Humidity Expand Dengue’s Reach

22 hours ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • Dealing With Discrimination In India’s Pvt Unis
  • ‘PM Modi Wants Youth Busy Making Reels, Not Asking Questions’
  • How Warming Temperature & Humidity Expand Dengue’s Reach
  • India’s Tryst With Strategic Experimentation
  • ‘Umar Khalid Is Completely Innocent, Victim Of Grave Injustice’
  • Climate Justice Is No Longer An Aspiration But A Legal Duty
  • Local Economies In Odisha Hit By Closure Of Thermal Power Plants
  • Kharge Calls For Ban On RSS, Accuses Modi Of Insulting Patel’s Legacy
  • ‘My Gender Is Like An Empty Lot’ − The People Who Reject Gender Labels
  • The Environmental Cost Of A Tunnel Road
  • Congress Slams Modi Govt’s Labour Policy For Manusmriti Reference
  • How Excess Rains And Poor Wastewater Mgmt Send Microplastics Into City Lakes
  • The Rise And Fall Of Globalisation: Battle To Be Top Dog
  • Interview: In Meghalaya, Conserving Caves By Means Of Ecotourism
  • The Monster Of Misogyny Continues To Harass, Stalk, Assault Women In India
  • AI Is Changing Who Gets Hired – Which Skills Will Keep You Employed?
  • India’s Farm Policies Behind Bad Air, Unhealthy Diet, Water Crisis
  • Why This Darjeeling Town Is Getting Known As “A Leopard’s Trail”
  • Street Vendors Struggle With Rising Temps
  • SC Denies Two-Week Extension In Umar Khalid, Sharjeel Imam Bail Pleas

Search

Main Links

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us

Related Stroy

  • Featured

Dealing With Discrimination In India’s Pvt Unis

2 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

‘PM Modi Wants Youth Busy Making Reels, Not Asking Questions’

18 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

How Warming Temperature & Humidity Expand Dengue’s Reach

22 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

India’s Tryst With Strategic Experimentation

22 hours ago Pratirodh Bureau
  • Featured

‘Umar Khalid Is Completely Innocent, Victim Of Grave Injustice’

2 days ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • Dealing With Discrimination In India’s Pvt Unis
  • ‘PM Modi Wants Youth Busy Making Reels, Not Asking Questions’
  • How Warming Temperature & Humidity Expand Dengue’s Reach
  • India’s Tryst With Strategic Experimentation
  • ‘Umar Khalid Is Completely Innocent, Victim Of Grave Injustice’
Copyright © All rights reserved. | CoverNews by AF themes.